Tuesday 30 May 2017

राजसूय यज्ञ का विश्लेषण



!!!---: राजसूय यज्ञ विश्लेषण :---!!!
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परिचयः---
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राजसूय यज्ञ छोटे-छोटे यज्ञों का समूह है, जिसमें बहुविध पृथक् पृथक् इष्टियों का सुदीर्घकाल पर्यन्त यज्ञ होता रहता है ।

कुछ विद्वानों ने इसे सीमा में बाँधा है---शताधिक इष्टियों, दो पशु यागों, ६ सोमयागों तथा सात दर्विहोमों का समुदाय है ।

चिन्ना स्वामी ने बताया है कि इसमें १२९ इष्टियों के साथ षट् सोमयाग, दो पशुयाग तथा सात दर्विहोम होते हैं---यज्ञतत्त्वप्रकाश

राजसूय यज्ञ की ऐतिहासिकता
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राजसूय यज्ञ सृष्टि के प्रारम्भ से किया जा रहा है । इसका वर्णन विभिन्न वैदिक वाङ्मय में मिलता है । सूर्यवंशीय और सोमवंशीय राजाओं ने इस यज्ञ को अनेक बार किया था । महाराज युधिष्ठिर ने भी इस यज्ञ को सम्पादित किया था । ब्रह्मा ने पूर्वकाल में बड़े समारोह के साथ इस यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उसी यज्ञ में दक्ष प्रजापति और शंकर में विवाद हो गया था । शांखायन श्रौतसूत्र के अनुसार सर्वप्रथम इस यज्ञ को राजा हरिश्चन्द्र ने सम्पादित करवाया था । इस यज्ञ में विश्वामित्र ने होता, आङ्गिरस ने उद्गाता और जमदग्नि ऋषि ने अध्वर्यु ऋत्विक् का कार्यभार वहन किया था---

"तस्मै हरिश्चन्द्राय वरुणो एतं राजसूयाख्यं यज्ञक्रतुं प्रोक्तवान् तस्यक्रतोर्विश्वामित्रो होता बभूव, अथास्य आङ्गिरस उद्गातासीत् । जमदग्निनामर्षिः सोSध्वर्युरासीत् ।" (शांखाय-श्रौतसूत्र १५.२०.२१)

शब्दनिर्वचन
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राजसूय पद में दो शब्द हैं--राज और सूय । इसके दो निर्वचन किए जा सकते हैं--एक सोम को दृष्टिगत रखते हुए और दूसरा राजा को दृष्टिगत रखते हुए ।

सोम को दृष्टि में रखकर निर्वचन---

"राजा सोमः सूयते अभिषूयते यागार्थमत्रेति राजसूयः ।"

इस निर्वचन में अथिव्याप्ति दोष है ।
द्वितीय निर्वचन---सायण के अनुसार इसमें यजमान राजा का अभिषेक करता है, इसलिए इसका यह नामकरण उपयुक्त है ।

"सूयतेSभिषिच्यते यजमानोSस्मिन् महाक्रतौ सोSयमभिषेकयुक्तो महाक्रतुः राजसूयः ।" (ताण्ड्यब्राह्मण--१८.८.१, सायणभाष्य)

शबर स्वामी ने दोनों ही निर्वचनों की ओर संकेत किया है---

"राजा यत्र सूयते तस्माद् राजसूयः । राज्ञो वा यज्ञो राजसूयः ।" (पूर्वमीमांसा--४.४.१ शबरभाष्य)

फल प्रयोजन तथा अधिकारी

इस यज्ञ का आयोजन केवल राजा ही कर सकता है । वह स्वर्ग एवं स्वराज्य की कामना से इस यज्ञ को करता है ।

शतपथ-ब्राह्मण (९.३.४.८) के अनुसार राजसूय यज्ञ करने से व्यक्ति राजा होता है ।

शांखायन श्रौतसूत्र के अनुसार जो यजमान राजसूय यज्ञ करता है, वह समस्त राज्यों में श्रेष्ठता प्राप्त करके राज्य पर आधिपत्य का अधिकारी होता है---

"यद् यजमानो यद्राजसूयेन यजते सर्वेषां राज्यानां श्रैष्ठ्यं स्वराज्यमाधिपत्यं पर्येति ।" (शांखायन-श्रौतसूत्र---१५.१३.१)

लाट्यायन, सत्याषाढ तथा कात्यायन आदि ने भी राजा अथवा स्वर्ग-कामी राजा द्वारा राजसूय के अनुष्ठान का निर्देश किया है ।

आश्वलायन श्रौतसूत्र (१५.१.१) के अनुसार वाजपेयी यज्ञ करने के बाद ही राजा को राजसूय यज्ञ करना चाहिए ।

शतपथ-ब्राह्मण (९.३.४.८) ने इसकी व्यवस्था की है कि राजसूय करने से व्यक्ति राजा होता है और वाजपेय करने से सम्राट् बनता है ।

आपस्तम्ब ने एक ही सूत्र में राजसूय के अधिकारी तथा फल का समाश्रित निरूपण किया है---

"राजा स्वर्गकामो राजसूयेन यजते ।" (आपस्तम्ब श्रौतसूत्र--१८.८.१)

राजसूय यज्ञ का काल

यह यज्ञ सुदीर्घ काल तक चलता है । यह २१ अथवा ३३ मासों तक चलता है ।

इस यज्ञ का प्रारम्भ फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता है ---कात्यायन श्रौतसूत्र--१५.१.६) और आश्वलायन-श्रौतसूत्र---९.३.२)

इसमें सर्वप्रथम पवित्र सोम दीक्षा का विधान है ।

राजसूय सम्बन्धी चातुर्मास्य-याग

फाल्गुन मास की शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ किए गए राजसूय याग में पूर्णिमा-पर्यन्त यथोक्त विधियों का अनुष्ठान करने के पश्चात् फाल्गुन की पूर्णिमा को चातुर्मास्यों का प्रारम्भ होता है , जो वर्षपर्यन्त अनुष्ठेय है---

"आदित्यं चरुमित्येताभिरन्वहमिष्ट्वा चातुर्मास्यान्यालभते । तैः संवत्सरं यजते ।" (आपस्तम्ब-श्रौतसूत्र--१८.९.३--४)

अतः वैश्वदेव, वरुणप्रघास, साकमेध तथा शुनासीरीय संज्ञक चातुर्मास्यों का विशिष्ट प्रयोग करते हुए नित्य चातुर्मास्य , दर्शपौर्णमासादि नित्यानुष्ठानों का सम्पादन करते रहना चाहिए । इस प्रकार फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा को शुनासीरीय पर्व के साथ चातुर्मास्यों की समाप्ति होती है । इसके बाद दूसरे वर्ष में इन्द्रातुरीय पञ्चवातीय अपामार्ग आदि विविध यज्ञों का विधान है ।
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