Friday 28 October 2016

उपनिषदों का सामान्य परिचय

!!!---: उपनिषदों का सामान्य परिचय :---!!!
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"उपनिषद्" शब्द का अभिप्राय
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उपनिषद् शब्द में उप और नि उपसर्ग है, सद्लृ धातु से बना है । इस धातु के तीन अर्थ हैं---
(1.) विशरण अर्थात् नाश होना,
(2.) गति अर्थात् प्राप्त करना या जानना ,
(3.) अवसादन अर्थात् शिथिल होना ।

उपनिषदों के अध्ययन से अविद्या का नाश होता है । ब्रह्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है और सांसारिक दुःख शिथिल होता है । उपनिषदों में ब्रह्मविद्या है । ब्रह्मविद्या के प्रतिपादक ग्रन्थों को उपनिषद् कहा जाता है ।

सद्लृ धातु का अर्थ बैठना भी होता है । गुरु के समीप बैठना । गुरु के समीप बैठने से रहस्यमय ज्ञान की प्राप्ति होती है ।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि उपनिषद् जिसमें विद्या का कथन हुआ हो, गुरु के अतिनिकट रहकर रहस्यमयी विद्या को प्राप्त करना ।

उपनिषदों को रहस्य भी कहा जाता है ।

उपनिषदों की संख्या अनगिनत है । किन्तु वैदिक-विचारधारा अनुसार कुल मुख्य उपनिषद् 10 हैं ।

(क.) ऋग्वेद से सम्बन्धित---(1.) ऐतरेय, (2.) कौषीतकि,

(ख) शुक्लयजुर्वेद से सम्बन्धित---(3.) बृहदारण्यक, (4.) ईश,

(ग) कृष्णयजुर्वेद से सम्बन्धित---(5.) तैत्तिरीय, (6.) कठ, (7.) मैत्रायणीय. (8.) श्वेताश्वतर,

(घ) सामवेद से सम्बन्धित---(9.) छान्दोग्य,, (10.) केन,

(ङ) अथर्ववेद से सम्बन्धित---(11.) मुण्डक, (12.) माण्डूक्य, (13.) प्रश्न ।

उपनिषदों का सामान्य परिचय
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(1.) ईशोपनिषद्
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शुक्लयजुर्वेद का अन्तिम व चालीसवाँ अध्याय ही "ईशोपनिषद्" है । इसमें कुल 18 मन्त्र हैं । इसका प्रथम मन्त्र "ईशावास्यम्" से प्रारम्भ होता है, अतः इसका नाम ईशोपनिषद् पड गया ।

निष्काम कर्म, परमार्थ ज्ञान की प्रधानता, कर्म और ज्ञान का समन्वय और ईश्वर की सर्वव्यापकता इसका प्रतिपाद्य विषय है । यह लघुकाय किन्तु महत्त्वपूर्ण उपनिषद् है ।

यह ज्ञान, कर्म और उपासना का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है । अतः इसे महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ माना गया है ।

(2.) केनोपनिषद्
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इस उपनिषद् का प्रथम श्लोक "केनेषितम्" है, अतः इसका नाम "केनोपनिषद्" पड गया ।

इसमें चार खण्ड हैं । प्रथम दो खण्डों में ब्रह्म के रहस्यमय रूप एवं अमृतत्व का विवेचन तथा तृतीय एवं चतुर्थ खण्डों में उमा हैमवती के समधुर आख्यान प्रस्तुत किए गए हैं ।

इस उपनिषद् को "जैमिनीयोपनिषद्" और "तवलकारोपनिषद्" भी कहा जाता है ।

(3.) कठोपनिषद्----
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कृष्णयजुर्वेद की शाखा "कठ" से सम्बन्धित होने के कारण इसका नाम "कठोपनिषद्" है । इसमें दो अध्याय है । इसके प्रथम अध्याय में प्रसिद्ध यम और नचिकेता का संवाद है ।

इसमें आत्मा के विषय में प्रश्न किया गया है । यम के उत्तर से मृत्यु के रहस्य से पर्दा उठ जाता है । साथ ही आत्मा के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है ।

इसमें ऐहिक जगत् की नश्वरता और ब्रह्म की नित्यता को प्रतिपादित किया गया है ।

(4.) प्रश्नोपनिषद्
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इस उपनिषद् प्रारम्भ प्रश्नों से होता है । अतः इसका नाम "प्रश्नोपनिषद्" पड गया । प्रश्न छः ऋषि पिप्पलाद मुनि से पूछते हैं । यह अथर्ववेद के पिप्पलाद शाखा से सम्बन्धित है, जिसके मुख्य ऋषि पिप्पलाद ही है । पिप्पलाद ऋषि जो केवल पीपल के फलों को खाकर जीवित रहे, इसलिए उनका नाम पिप्पलाद पड गया ।

इसमें ब्रह्मविद्या से सम्बन्धित प्रश्न पूछे गए हैं---
(1.) समस्त प्रजा कहाँ से और कैसे उत्पन्न हुई ।
(2.) प्रजा को धारण करने वाले देवता कितने हैं ।
(3.) प्राणों की उत्पत्ति कहाँ से होती है ।
(4.) आत्मा की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति --इन तीन अवस्थाओं का क्या रहस्य है  ।
(5.) ओम् की उपासना का क्या स्वरूप है ।
(6.) षोडश कला सम्पन्न पुरुष का क्या स्वरूप है ।

इन सभी प्रश्नो के उत्तर आप इसी वैदिक संस्कृत पेज पर पढ सकते हैं, जो गतवर्ष लिखे गए । आप उन्हें प्रश्नोपनिषद् लिखकर सर्च कर लें, इसी पेज पर ।

(5.) मुण्डकोपनिषद्
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"मुण्डक" शब्द का अर्थ है---घुटे हुए सिर वाला । सम्भवतः सिर घुटाने वाले लोगों के किसी सम्प्रदाय से इसका सम्बन्ध रहा हो ।

यह उपनिषद् अथर्ववेद से सम्बद्ध है । इसमें तीन मुण्डक एवं छः खण्ड हैं । इसमें ब्रह्मविद्या के उपदेश की प्रधानता है ।

इसमें बताया गया है कि ब्रह्मा ने अपने पुत्र अथर्वा को ब्रह्मा विद्या का उपदेश दिया है । इसमें याज्ञिक अनुष्ठान और कर्मकाण्ड की हीनता दिखाई गई है, जबकि ब्रह्मज्ञान की श्रेष्ठता प्रमाणित की गई है ।

सांख्य और वेदान्त के सिद्धान्त भी इसमें प्रतिपादित किया गया है । द्वैतवाद का प्रसिद्ध मन्त्र इसमें दिया गया है---"द्वा सुपर्णा सयुजा सखायः ।



(6.) माण्डूक्योपनिषद्
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यह लघु आकार का छोटा ग्रन्थ है, किन्तु महत्त्व इसका सबसे अधिक है । इसमें केवल 12 वाक्य या खण्ड हैं । इसमें ओंकार की विस्तृत व्याख्या की गई है । चैतन्य की चार अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और व्यवहार) का वर्णन किया गया है । इसी प्रकार  आत्मा को भी चार प्रकार का बताया गया है ---वैश्वानर, तैजस्, प्राज्ञ, प्रपञ्चोपशम । वेदान्त-दर्शन  का प्रासाद इसी उपनिषद् पर खडा है ।

(7.) तैत्तिरीयोपनिषद्--
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तैत्तिरीयारण्यक के अन्तिम तीन अध्याय (7,8 और 9) को ही तैत्तिरीय-उपनिषद् कहा जाता है ।

इस प्रकार इसमें तीन अध्याय है । इसमें अध्यायों को "वल्ली" कहा गया है । इसका प्रथम अध्याय शिक्षावल्ली, द्वितीय अध्याय ब्रह्मानन्दवल्ली और तृतीय अध्याय भृगुवल्ली है ।

"शिक्षावल्ली" में वर्ण, स्वर, मात्रा और बल का विवेचन है । इसमें वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के प्रकार भी दिए गए हैं । आचार्य अपने शिष्य को कैसे अनुशासित करता है--बताया गया है ।

ब्रह्मावल्ली में ब्रह्मा के स्वरूप को बताया गया है । ब्रह्मा को आनन्द कहा गया है । समस्त सृष्टि ब्रह्मा से उत्पन्न हुई है । ब्रह्म की प्राप्ति से परमानन्द की प्राप्ति होती है । इसमें पाँच कोशों ( अन्न, प्राण, मन, विज्ञान तथा आनन्द) का भी वर्णन किया गया है ।

"भृगुवल्ली" में भृगु और वरुण का संवाद है । यहाँ भी ब्रह्म के स्वरूप को बताया गया है ।

(8.) ऐतरेयोपनिषद्---
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यह ऐतरेयारण्यक का एक अंश है । ऐतरेयारण्यक के द्वितीय अध्याय के चतुर्थ, पञ्चम और षष्ठ खण्ड ही "ऐतरेयोपनिषद्" है । इस प्रकार इसमें कुल अध्याय हैं ।

अध्याय एक में बताया गया है कि परमात्मा ईक्षण के सृष्टि हुई है । शरीर में सभी देवों का निवास है । शरीर में व्याप्त ब्रह्म के दर्शन से ही जीवात्मा का नाम "इन्द्र" पडा ।

द्वितीयाध्याय में पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है । कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जन्म का वर्णन है ।

तृतीयाध्याय में प्रज्ञान-ब्रह्म का वर्णन है । मनोविज्ञान की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण अध्याय है । मन ही ब्रह्म, इन्द्र और प्रजापति है ।

(9.) छान्दोग्योपनिषद्
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सामवेद के छान्दोग्य ब्राह्मण के अन्तिम आठ अध्यायों को "छान्दोग्योपनिषद्" कहा जाता है ।
इस प्रकार इसमें कुल आठ अध्याय हैं । यह सन्धिकालीन उपनिषद् है । इसका आकार बहुत बडा है ।

प्रथमाध्याय में ओम् (प्रणव, उद्गीथ) की उपासना, ऋक् और साम का युग्म, वाक्---मन और प्राण की उपासना, प्रणव और उद्गीथ की एकता, साम का आधार स्वर, प्राण--आदित्य और अन्न का मह्त्त्व बताया गया है ।

द्वितीयाध्याय में पञ्चविध साम की उपासना, सप्तविध साम, त्रयी विद्या, धर्म के तीन स्कन्ध और ओम् ही वेदत्रयी का सार है---बताया गया है ।

तृतीयाध्याय में सूर्योपासना, गायत्री का महत्त्व, प्राण ही वसु, रुद्र और आदित्य है , बताया गया है ।

चतुर्थाध्याय में रैक्व द्वारा अध्यात्म-शिक्षा,  सत्यकाम जाबाल की कथा और ब्रह्म के चार पाद का वर्णन ।

पञ्चमाध्याय में प्राण की श्रेष्ठता, प्रवाहण जैबलि के दार्शनिक सिद्धान्त, परलोक-विज्ञान, राजा अश्वपति द्वारा सृष्टि-उत्पत्ति विषय प्रश्न, आदि ।

षष्ठाध्याय में महर्षि आरुणि द्वा अपने पुत्र श्वेतकेतु को अद्वैतवाद का उपदेश दिया गया है ।

सप्तमाध्याय में ऋषि सनत्कुमार द्वारा नारद को उपदेश ।

अष्टमाध्याय में देवराज इन्द्र और असुरपति विरोचन को प्रजापति का उपदेश ।

(10.) बृहदारण्यकोपनिषद्
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शुक्लयजुर्वेद से सम्बद्ध शतपथ-ब्राह्मण के 14 वें काण्ड के अन्तिम छः अध्यायों को ही बृहदारण्यकोपनिषद् कहा जाता है । इसमें आरण्यक और उपनिषद् का सम्मिश्रण होने से यह नाम पडा है । इसे ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् तीनों कह सकते हैं ।  इसमें कुल छः अध्याय हैं । यह आकार में सबसे विशाल उपनिषद् है । यह अध्यात्म-शिक्षा से ओत-प्रोत है ।

इसके प्रथमाध्याय में यज्ञीय-अश्व के रूप में परम पुरुष का वर्णन, मृत्यु का विकराल रूप और प्राण की श्रेष्ठता का वर्णन है ।

द्वितीयाध्याय में गार्ग्य और काशीराज अजातशत्रु का संवाद , याज्ञवल्क्य और उनकी पत्नी मैत्रेयी का संवाद है ।

तृतीयाध्याय में गार्गी और याज्ञवल्क्य का संवाद साथ में याज्ञवल्क्या द्वारा प्रतिपक्षियों को हराना ।

चतुर्थाध्याय में याज्ञवल्क्य द्वारा राजा जनक को ब्रह्मविद्या का उपदेश है ।

पञ्चमाध्याय में प्रजापति द्वारा देव, मनुष्य और असुरों को द, द, द का उपदेश, ब्रह्म के विभिन्न रूपों का वर्णन, प्राण ही वेदरूप है और गायत्री के विभिन्न रूपों का वर्णन है ।

षष्ठाध्याय में ऋषि प्रवाहण जैबलि और श्वेतकेतु का दार्शनिक संवाद, पञ्चाग्नि-मीमांसा और ऋषियों की वंश-परम्परा का वर्णन ।

आचार्य शंकर ने भी इन्हीं 10 उपनिषदों पर स्व-व्याख्या लिखी है ।

विषय-वस्तु
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वेद के चार भाग हैं - संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्।

(१) संहिता में वैदिक देवी देवताओं की स्तुति के मंत्र हैं;
(२) ब्राह्मण में वैदिक कर्मकाण्ड और यज्ञों का वर्णन है;
(३) आरण्यक में कर्मकाण्ड और यज्ञों की रूपक कथाएँ और तत् सम्बन्धी दार्शनिक व्याख्याएँ हैं; और
(४) उपनिषद् में वास्तविक वैदिक दर्शन का सार है।

उपनिषद् में आत्म और अनात्म तत्त्वों का निरूपण किया गया है जो वेद के मौलिक रहस्यों का प्रतिपादन करता है। प्राय: उपनिषद् वेद के अन्त में ही आते हैं। इसलिए ये वेदान्त के नाम से भी प्रख्यात हैं। वैदिक धर्म के मौलिक सिद्धान्तों को तीन प्रमुख ग्रन्थ प्रमाणित करते हैं जो प्रस्थानत्रयी के नाम से विख्यात हैं, ये हैं - उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता।

मुक्तिकोपनिषद् में एक सौ आठ (१०८) उपनिषदों का वर्णन आता है, इसके अतिरिक्त अडियार लाइब्रेरी मद्रास से प्रकाशित संग्रह में से १७९ उपनिषदों के प्रकाशन हो चुके है। गुजराती प्रिटिंग प्रेस बम्बई से मुदित उपनिषद्-वाक्य-महाकोष में २२३ उपनिषदों की नामावली दी गई है, इनमें उपनिषद (१) उपनिधि-त्स्तुति तथा (२) देव्युपनिषद नं-२ की चर्चा शिवरहस्य नामक ग्रंथ में है लेकिन ये दोनों उपलब्ध नहीं हैं तथा माण्डूक्यकारिका के चार प्रकरण चार जगह गिने गए है इस प्रकार अबतक ज्ञात उपनिषदो की संख्या २२० आती है ।



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