Sunday 2 August 2020

श्रावणी उपाकर्म

श्रावणी-उपाकर्म, ऋषि-तर्पण, वेद-स्वाध्याय पर्व, रक्षा-बन्धन, विश्व-संस्कृत दिवस

तिथि - श्रावण पूर्णिमा वि. सं. २०७७
दिनांक - ३/८/२०२० ई. सोमवार

ऐसे मनाएं श्रावणी पर्व व रक्षाबन्धन

(१) श्रावणी उपाकर्म - "श्रावणी" शब्द श्रु श्रवणे धातु से ल्युट् प्रत्यय पूर्वक छन्दसि (वेदार्थ) में स्त्री लिंग में श्रावणी शब्द सिद्ध होता है। जिसका अर्थ होता है :---- सुनाये जाने वाली। 


क्या सुनाये जाने वाली? 

जिसमें वेदों की वाणी को सुना जाये। वह "श्रावणी" कहाती है। अर्थात् जिसमें निरन्तर वेदों का श्रवण-श्रावण और स्वाध्याय और प्रवचन होता रहे। वह श्रावणी है।

    "उपाकर्म" उप+आ+कर्म = उपाकर्म। उप= सामीप्यात् , आ=समन्ताद, कर्म =यज्ञीय कर्माणि।

 जिसमें ईश्वर और वेद के समीप ले जाने वाले यज्ञ कर्मादि श्रेष्ठ कार्य किये जायें, वह "उपाकर्म" कहाता है। 

"अध्ययनस्य उपाकर्म उपाकरणं वा" (पारस्कर गृह्य सूत्र २,१०,१-२) 

अर्थात् यह समय स्वाध्याय का उपकरण था। उप=समीप, +आकरण=ले आना, जनता को ऋषि-मुनियों, समाज के विद्वानों के समीप ले आना। 

(२) ऋषि तर्पण -  जिस कर्म के द्वारा ऋषि मुनियों का और आचार्य, पुरोहित, पंडित जो विशेषकर वेदों के विद्वान है उनका तर्पण किया जाता है, उन्हें यथेष्ट दान देना अर्थात् उनके वचनों को सुनकर उनका सम्मान करना ही "ऋषि-तर्पण" कहाता है।
    
(३) वेद स्वाध्याय पर्व  - स्वाध्याय भारत की संस्कृति का प्रधान अंग है। ब्रह्मचारी के लिए आदेश है - "आचार्याधीनो वेदमधीष्व" = आचार्य के अधीन रहकर वेदाध्ययन करते रहो।

 स्नातक हो जाने पर गृहस्थी के लिए आदेश है - "स्वाध्यायान्मा प्रमदः, स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्" विद्याध्ययन कर चुकने के बाद भी स्वाध्याय करते रहना। 

वानप्रस्थी के लिए आदेश है - "स्वाध्याये नित्य युक्तः स्यात्" सदा स्वाध्याय में युक्त रहे। 

संन्यासी के लिए आदेश है - "संन्यसेत्सर्वकर्माणि वेदमेकं न संन्यसेत्" सब कुछ छोड़ दें, परंतु वेद का स्वाध्याय ना छोड़ें। 

श्रावण माह में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी, ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र सभी को स्वाध्याय में लगने का आदेश है। 

(४) यज्ञोपवीत धारण - यज्ञोपवीत ज्ञान ग्रहण करने का बाह्य चिह्न है। इसीलिए इस समय जिन लोगों ने यज्ञोपवीत नहीं धारण किया हुआ है, उन्हें नया यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। अर्थात इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वे अज्ञान, अंधकार से बाहर निकलेंगे और ज्ञानवान् होकर परिवार, समाज, राष्ट्र को प्रकाशित करेंगे।

 जिन लोगों ने यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है, उन्हें पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया धारण करना चाहिए। अर्थात् इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वह अपने जीवन में स्वाध्याय और यज्ञ को कभी नहीं छोडेंगे। विशेषकर यज्ञोपवीत में तीन धागे होते है । वे तीन ऋणों के प्रतीक है। ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण। मनुष्य को इन तीनों ऋणों का बोध हो, यही उद्देश्य है।

(५) विश्व संस्कृत दिवस -"सा प्रथमा संस्कृति विश्ववाराः"  संसार की सबसे प्राचीनतम संस्कृति "वैदिक संस्कृति" है। जो समस्त विश्व को वरणीय है अर्थात् सारा संसार जिस सभ्यता और संस्कृति का गुणगान करता है । वह संस्कृति और कोई नहीं, अपितु वैदिक संस्कृति है। जो संस्कृत पर अवलंबित है। आज जबसे हमने संस्कृत भाषा से नाता तोड़ लिया है, मानो यह वसुन्धरा हमसे रूठ सी गई है। संस्कृत के छोड़ देने से हमारी संस्कृति छूट गई, हमारी सभ्यता छूट गई,  हमारा ज्ञान विज्ञान छूट गया है।

     संस्कृत भाषा तो देवों की वाणी है। संस्कृत भाषा ईश्वर की वाणी है। संस्कृत भाषा वेद की भाषा है। संस्कृत भाषा सभी भाषाओं की जननी है। यही वह भाषा है जिसकी अपनी ध्वनि व देवनागरी लिपि है। जो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक और ईश्वर द्वारा प्रदत्त है। संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति की प्राण है। संस्कृत के बिना भारत की संस्कृति अधूरी है। दुनिया में सबसे अधिक वाङ्गमय  (साहित्य) संस्कृत भाषा के हैं।  सबसे अधिक शब्दों का भंडार  संस्कृत भाषा का है। 

वेद स्वाध्याय के इस महान पर्व पर संस्कृत के प्रचार प्रसार के लिए समाज के मनीषियों ने इस दिन को संस्कृत दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया है। संस्कृत भाषा कठिन नहीं, अपितु सरल, मधुर, कर्णप्रिय बोलने में अति रुचिकर है। इस देश में महाभारत काल के पश्चात स्वामी शंकराचार्य तक आपस में सभी संस्कृत में ही वार्तालाप किया करते थे । यहां तक जब स्वामी दयानन्द कार्य क्षेत्र में उतरे तो उनके व्याख्यान की भाषा भी संस्कृत हुआ करती थी । अर्थात् भारत के लोग स्वामी दयानन्द के काल में भी अच्छी तरह से संस्कृत समझ लिया करते थे। आइए संस्कृत भाषा के संरक्षण, संवर्धन, प्रचार, प्रसार में योगदान दें। इसकी उन्नति में अपनी उन्नति समझें। 

संस्कृत वाङ्गमय को समझने के लिए पढ़ने के लिए जानने के लिए आप हमारे पेज पर आमंत्रित हैं :--  वैदिक-संस्कृत , लौकिक संस्कृत , शिशु-संस्कृतम्, आर्ष दृष्टि, चाणक्य नीतिकथा मञ्जरी, काव्याञ्जलिः, सूक्ति-सुधा, वैदिक विचारधारा, वैदिक संस्कार, शब्दानुशासनम्, वेदवाणी, पाणिनि महाविद्यालय रेवली, स्वाध्यायः, आर्यावर्त्त-गौरवम्, वाल्मीकीय रामायण, महाभारत, गीता का ज्ञान, आयुर्वेद और हमारा जीवन, जीवन का आधार, भाषाणां जननी संस्कृत भाषा, संस्कृत प्रश्न मञ्च, संस्कृत नौकरी, भारत महान्, गीर्वाणवाणी, भारत रत्न राजीव दीक्षित जी, पटाक्षेपः, भारतीयं विज्ञानम्, गृहस्थ का केन्द्र नारी, सद्विचाार, चलचित्रम्, हमारी परम्पराएं, गावो विश्वस्य मातरः, वीरभोग्या वसुन्धरा, तन स्वदेशी मन स्वदेशी, 
किसी ने कहा है -

"मातुः स्तन्यं विना बालो यथा नो पुष्टिमर्हति।
समाजो भारतीयोsयं अपुष्टः संस्कृतं विना।।"

     अर्थ - जैसे माता के स्तनपान के बिना बालक पुष्ट नही होता है। अर्थात् बालक के सम्पूर्ण विकास के लिये जैसे माता का दुग्ध अत्यावश्यक है, ठीक वैसे ही संस्कृत के बिना भारतीयता भी अपुष्ट है।

(६) रक्षाबन्धन - रक्षाबंधन का पर्व भारत की संस्कृति से जुड़ा पर्व है। राजपूत काल में अबलाओं द्वारा अपनी रक्षा के लिए वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार हुआ। जिस किसी वीर क्षत्रियों को कोई अबाला राखी भेजकर अपना राखी बंद भाई बना लेती थी वो उसकी रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता था। इतिहास में ऐसी बहुत सारी घटनाएं दर्ज है जहां पर भाइयों ने अपने प्राणों की आहुति दे कर बहनों की रक्षा की है। ध्यान देने की बात यह है कि यह त्यौहार सिर्फ अपने देश में मनाया जाता है अन्य किसी देश में नहीं। अपना ही ऐसा देश है जिसमें कोई भी अबला किसी पुरुष के हाथ में राखी बांधकर उसे जीवन भर का अपना भाई बना लेती है और वह भाई उस बहन को आश्वासन देता है कि वह जीवन भर उसकी सहायता रक्षा करेगा। इस दृष्टि से यह त्यौहार भारत की संस्कृति के आध्यात्मिक पथ पर गहरा प्रकाश डालता है।
     
विशेष - आवश्यक रुप से अपने घरों में यज्ञ करें। श्रावणी उपाकर्म के विशेष मंत्रों से आहुति प्रदान करें। घर के बालक जो दस बारह वर्ष से अधिक आयु के हो गए हैं या समझदार हैं, उनका यज्ञोपवीत संस्कार अवश्य करें। यज्ञोपवीत का महत्व बताएं। जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है, वह पुराना उतार कर नया यज्ञोपवीत धारण करें। 

वेद पढ़ने-पढ़ाने का संकल्प लें, स्वाध्याय करने का संकल्प लें, प्रतिदिन यज्ञ करने का संकल्प लें, अपनी बहनों एवं मातृशक्ति की रक्षा करने का संकल्प लें, बहनों को विशेष रूप से प्रशिक्षित करें सावधान करें कि हिंदुओं के भेष में छुपे हुए मुसलमान युवकों के साथ दोस्ती ना करें । बस यही संदेश है श्रावणी पूर्णिमा का । इस संदेश को घर-घर पहुंचाएं, ऐसे ही मनाएं श्रावणी पर्व।

   श्रावणी-उपाकर्म, ऋषि-तर्पण, वेद-स्वाध्याय पर्व, रक्षा-बन्धन, विश्व-संस्कृत दिवस की आप सभी को शुभकामनाएं। परमात्मा आप सभी को उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घायु, ऐश्वर्य, यश, कीर्ति प्रदान करें। और ऐसे ही व्यस्त रहें, स्वस्थ रहें, मस्त रहें।

Saturday 25 July 2020

दर्श पौर्णमास यज्ञ

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संकलनकर्त्ता--- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

(१.) वैदिक यज्ञों के सात प्रमुख हविर्यज्ञो में से तीसरा यज्ञ है---दर्शपौर्णमास यज्ञ ।

(२.) दर्शयाग अमावास्या को होता है ।

(३.) पौर्णमास यज्ञ पूर्णिमा को  होता है ।

(४.) दर्शपौर्णमास ६ यागों का समुच्चय है ।


(५.) दर्श यागों के ३ समूह है ।

(६.) पौर्णमास यागों के भी ३ समूह हैं ।

संकलनकर्त्ता--- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

(७.) यज्ञों में अग्नि का आधान क्रमशः अमावस्या और पूर्णिमा को होता है ।

(८.) यागविधि प्रतिपदा के दिन सम्पन्न होती है .।

(९.) छः कर्म एक ही फल देते हैं ।

(१०.) अमावस्या के तीन याग हैं --अग्नि प्रीत्यर्थ पुरोडाशयाग, इन्द्र प्रीत्यर्थ पुरोडाशयाग और इन्द्र प्रीत्यर्थ पयोद्रव्यकयाग

(११.) पूर्णिमा के भी तीन याग हैं---अष्टकपाल पुरोडाशयाग, उपांशुयाग और एकादश कपाल पुरोडाशयाग

संकलनकर्त्ता--- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

(१२.) दर्शपौर्णमास याग ३० वर्षों तक अनवरत अखण्डित चलता है ।

(१३.) ३० वर्षं में कुल पूर्णिमा ३६० और कुल अमावस्या भी ३६० होती है ।

(१४.) दाक्षायण यज्ञ १५ वर्षं तक किया जाता है ।

(१५.) यज्ञ के दिन को "उपवसथ" कहा जाता है ।

(१६.) यज्ञ के द्वितीय दिन को "यजनीय" कहा जाता है ।

(१७.) इसमें यजमान चार पुरोहितों को नियुक्त करता है ।

(१८.) दर्श की दृष्टि में पुरोडाश के देवता इन्द्र एवं इन्द्राणी हैं ।

Friday 3 July 2020

वेदपाठ का विश्लेषण

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वेदों में किसी प्रकार की कोई मिलावट ना हो, इसके लिए हमारे मनीषियों, विद्वान् ब्राह्मणों ने, ऋषियों ने अनेक उपाय किए । उनमें से एक उपाय है वेद मंत्रों के पाठ का । ये पाठ इस प्रकार से किए गए हैं कि कोई भी व्यक्ति एक भी अक्षर की मिलावट नहीं कर सकता ।

सच तो यह है कि संपूर्ण विश्व में किसी भी भाषा अथवा ग्रंथ में इतनी विशुद्ध उच्चारण परंपरा नहीं पाई जाती है ।वेद पाठियों के मुख से आज भी वेदों का सस्वर उच्चारण ठीक उसी प्रकार से विशुद्ध रूप में सुना जा सकता है जैसा कि प्राचीन युग में किया जाता था ।


प्रत्येक शाखा के पदपाठ के पदपाठकर्त्ता ऋषि पृथक् पृथक् हैं । जैसे ऋग्वेद की "शाक्ल शाखा" के पदपाठकर्त्ता शाकल्य ऋषि, यजुर्वेदीय "तैत्तिरीय शाखा" के आत्रेय तथा सामवेदीय "कौथुम शाखा" के पदपाठकर्त्ता गार्ग्य ऋषि हैं । संकलनकर्ता :-- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

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वेदों के दो प्रकार के पाठ किए गए हैं :--- 

(१.) संहिता पाठ :--- संहिता पाठ को प्रकृति पाठ भी कहते हैं, अर्थात् वेदों में जिस प्रकार से और जिस क्रम से वर्ण, अक्षर, शब्द और वाक्य रखे हुए हैं, ठीक उसी प्रकार से, उसी क्रम से पाठ करना संहिता पाठ है । इसे "प्रकृति पाठ" भी कहते हैं । यह पाठ ही वेद का मूल रूप है । यह तीन प्रकार का है । संकलनकर्ता :-- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

"संहिता" शब्द का स्वरूप बतलाते हुए महर्षि पाणिनि ने अष्टाध्यायी (१/४/१०८) में लिखा है :---"परः सन्निकर्षः संहिता" अर्थात् वर्णानामतिशयितः सन्निधिः संहितासंज्ञः स्यात् । वर्णों के अत्यंत सन्निकर्ष अर्थात् समीपता की संहिता संज्ञा होती है । संकलनकर्ता :-- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

 आचार्य कात्यायन ने लिखा है :--- "वर्णानामेकप्राणयोगः संहिता" अर्थात् वेदवाणी का वह प्रथम पाठ जो गुरु परंपरा से अध्ययनीय है तथा जिसमें वर्णों एवं पदों की एकश्वासरूपता या अत्यंत सान्निध्य के लिए संप्रदायानुगत संधियों तथा अवसानों से युक्त और उदात्तानुदात्त स्वरित रूपी त्रिविध स्वरों में अपरिवर्तनीयता से पठनीय वेदपाठ को "संहिता पाठ" कहते हैं । संकलनकर्ता :-- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

संहिता पाठ को याज्ञवल्क्य शिक्षा में पुण्यप्रदा यमुना नदी का स्वरूप बतलाया गया है :---"कालिन्दी संहिता ज्ञेया" । संहिता पाठ से सूर्य लोक की प्राप्ति होती है :---"संहिता नयते सूर्यपदम्" । संकलनकर्ता :-- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

संहिता पाठ ही पदपाठ का मूल है । जैसा कि निरुक्तकार महर्षि यास्क ने लिखा है :----"पदप्रकृतिः संहिता" । अतः यह प्रथम प्रकृति पाठ माना गया है । ऋषियों द्वारा दृष्ट इस संहिता रूप वेदपाठ का ही याज्ञिक अनुष्ठानों के समय देवता स्तुति आदि में प्रयोग किया जाता है । इसीलिए कहा जाता है :---"आचार्याः सममिच्छन्ति पदच्छेदं तु पण्डिताः" । संकलनकर्ता :-- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

(२.) विकृति पाठ :---- विकृति पाठ वे पाठ है जो संहिता से भिन्न क्रम से पाठ किए जाते हैं । इसको विभिन्न तरह से किया जाता है और यह आठ तरह के पाठ हैं ।

इस प्रकार दोनों पाठों को मिलाकर कुल ११ पाठ होते हैं ।

११ पाठ के पहले तीन पाठ को प्रकृति पाठ व अन्य आठ को विकृति पाठ कहते हैं।

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 १ संहिता पाठ
 २ पदपाठ
 ३ क्रमपाठ 

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(१.) जटापाठ
(२.) मालापाठ
(३.) शिखापाठ
(४.)  लेखपाठ
(५.)  दण्डपाठ
(६.) ध्वजपाठ
(७.) रथपाठ
(८.) घनपाठ

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 इसमें वेद मन्त्रों के पद को अलग किये बिना ही यथावत्  पढा जाता है।
 जैसे 
 अ॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृ॒त्विज॑म् । होता॑रं रत्न॒धात॑मम् ॥


इसमें पदों को अलग करके क्रम से उनको पढा जाता है

अ॒ग्निम् । ई॒ळे॒ । पु॒रःऽहि॑तम् । य॒ज्ञस्य॑ । दे॒वम् । ऋ॒त्विज॑म् । होता॑रम् । र॒त्न॒ऽधात॑मम् ॥


पदक्रम- १ २ | २ ३| ३ ४| ४ ५| ५ ६
क्रम पाठ करने के लिए पहले पदों को गिनकर पहला पद दूसरे पद के साथ, दूसरा तीसरे पद के साथ, तीसरा चौथे पद के साथ इस तरह से पढा जाता है :---

अ॒ग्निम् ई॒ळे॒| ई॒ळे॒ पु॒रःऽहि॑तम् |  पु॒रःऽहि॑तम् य॒ज्ञस्य॑ |
य॒ज्ञस्य॑ दे॒वम्| दे॒वम् ऋ॒त्विज॑म्| ऋ॒त्विज॑म् होता॑रम्|
होता॑रम् र॒त्न॒ऽधात॑मम्||

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पदक्रम -   १ २| २ १| १ २|
                २ ३| ३ २| २ ३|
                ३ ४| ४ ३| ३ ४|
                ४ ५| ५ ४| ४ ५|
                ५ ६| ६ ५| ५ ६|
                ६ ७| ७ ६| ६ ७|
 जैसे-      अ॒ग्निम् ई॒ळे॒|  ई॒ळे॒ अ॒ग्निम्| अ॒ग्निम् ई॒ळे॒| ई॒ळे॒ पु॒रःऽहि॑तम्| पु॒रःऽहि॑तम् ई॒ळे॒| ई॒ळे॒ पु॒रःऽहि॑तम्| पु॒रःऽहि॑तम् य॒ज्ञस्य॑| य॒ज्ञस्य॑ पु॒रःऽहि॑तम्| पु॒रःऽहि॑तम् य॒ज्ञस्य॑| य॒ज्ञस्य॑ दे॒वम्| दे॒वम् य॒ज्ञस्य॑| य॒ज्ञस्य॑ दे॒वम्| य॒ज्ञस्य॑ दे॒वम्| दे॒वम् य॒ज्ञस्य॑| य॒ज्ञस्य॑ दे॒वम्| दे॒वम् ऋ॒त्विज॑म्| ऋ॒त्विज॑म् दे॒वम्| दे॒वम् ऋ॒त्विज॑म्| ऋ॒त्विज॑म् होता॑रम्| होता॑रम् ऋ॒त्विज॑म्|      ऋ॒त्विज॑म् होता॑रम्| होता॑रम् र॒त्न॒ऽधात॑मम्| र॒त्न॒ऽधात॑मम् होता॑रम्| होता॑रम् र॒त्न॒ऽधात॑मम्||


जिस तरह  पांच छह फूलो को लेकर माला गूथी जाती है सेम उसी तरह इसमे क्रम बनता है
पदक्रम-  १ २ ६ ५|
              २ ३ ५ ४|
              ३ ४ ४ ३|
              ४ ५ ३ २|
              ५ ६ २ १|

  अ॒ग्निम् ई॒ळे॒ र॒त्न॒ऽधात॑मम् होता॑रम् | ई॒ळे॒ पु॒रःऽहि॑तम् होता॑रम् ऋ॒त्विज॑म्| पु॒रःऽहि॑तम् य॒ज्ञस्य॑ य॒ज्ञस्य॑ पु॒रःऽहि॑तम्|....
  इस तरह से


पदक्रम-  १ २| २ १ | १ २ ३| 
              २ ३| ३ २ | २ ३ ४|
              ३ ४| ४ ३ | ३ ४ ५|
              ४ ५| ५ ४ | ४ ५ ६|
              
     
यह क्रम पाठ की तरह ही होता है।       
पदक्रम-  १ २ २ ३ ३ ४ 
              ३ ४ २ ३ १ २|
              ४ ५ ५ ६ ६ ७
              ६ ७ ५ ६ ४ ५|  

    
पदक्रम- १ २| २ १| १ २| २ ३ | ३ २ १||     
             २ ३| ३ २| २ ३| ३ ४ | ४ ३ २||
             इस तरह से
             
        
पदक्रम-   १ २ ४ ५| 
               १ २ ५ ४|
               १ २ २ ३|
               ४ ५ ५ ४|
               ३ ४ ६ ७|
               ३ ४ ७ ६|
               ३ ४ ४ ५|  इत्यादि
               

पदक्रम- १ २| २ १| १ २ ३| ३ २ १| 
             १ २ ३| २ ३| ३ २| २ ३ ४| ४ ३ २|
             २ ३ ४| ३ ४| ४ ३| ३ ४ ५| ५ ४ ३| इत्यादि


       पदक्रम-  १ २  २ १  १ २| २ ३ ४  ४ ५ २   २ ३  ३ ४ इत्यादि

मित्रों ! इस तरह से ११ तरह के पाठ है जिनका गुरुकुल मे
ब्रह्मचारी पाठ करते हैं । इससे वेद मन्त्र सुनने मे कर्णप्रिय लगते हैं और विद्यार्थी मन्त्रों को याद भी कर लेते  हैं।

जब विदेशी मुसलमान आक्रान्ताओं ने भारत के गुरुकुल नष्ट करने शुरु किये तो विद्वान् ब्राह्मणों ने  बहुत कष्ट सहकर वेदों के पाठ को आज तक सुरक्षित रखा। इसलिए वेदों में आज तक कोई मिलावट नही हो पायी।

जो दो वेद पढे, उसे द्विवेदः (द्विवेदी), जो तीन तरह के पाठ का अभ्यास करते हैं, उनको त्रिपाठी । तीन वेद को पढ़ने वाले को त्रिवेदः (त्रिवेदी) । जो चारों वेद पढे, उनको  चतुर्वेदः (चतुर्वेदी) कहते हैं ।  इस तरह से उस समय उपाधि दी जाती थी। संकलनकर्ता :-- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

 आज भी जो लोग इन उपाधि को लगाते हैं, उनके पूर्वज वैसे ही वेदपाठ करते थे, किंतु आजकल यह लोग केवल नाम मात्र की उपाधि लगाते हैं । वेदों के पाठ को नहीं जानते हैं ।

Sunday 28 June 2020

सुखी परिवार का रहस्य

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अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु  संमनाः । जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम् ।। (अथर्ववेद ३/३०/२)

पुत्र पिता के अनुकूल कर्म करने वाला हो और माता के साथ समान मनवाला हो । पत्नी पति से मधुर और सुखद वाणी बोले । 

Thursday 25 June 2020

वेदों की सम्पूर्ण जानकारी

!!!---: ऋग्वेदः---!!!
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लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

 ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएँ हैं- एकविंशतिधा बाह्वृच्यम्। इनमें से उपलब्ध पाँच शाखाएँ हैं ---शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन।  

"ऋक्" का अर्थ हैः--स्तुतिपरक-मन्त्र। "ऋच्यते स्तूयतेऽनयाया इति ऋक्।" 
जिन मन्त्रों के द्वारा देवों की स्तुति की जाती है, उन्हें ऋक् कहते हैं। 


ऋग्वेद में विभिन्न देवों की स्तुति वाले मन्त्र हैं, अतः इसे ऋग्वेद कहा जाता है। इसमें मन्त्रों का संग्रह है, इसलिए इसे "संहिता" कहा जाता है। संहिता सन्निकट वर्णों के लिए भी कहा जाता है, ऐसा पाणिनि का मानना हैः--"परः सन्निकर्षः संहिता।" (अष्टाध्यायी--१/४/१०९)  लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

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ऋक् भूलोक है, (अग्नि देवता प्रधान)।
 यजुः अन्तरिक्ष-लोक है, (वायु-देवता-प्रधान)।
 साम द्युलोक है। (सूर्य-देवता-प्रधानः---"अयं (भूः) ऋग्वेदः।" (षड्विंश-ब्राह्मणः--१/५) 

 अत एव अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद, आदित्य से सामवेद और अङ्गिरा से अथर्ववेद की उत्पत्ति बताई गई है।  लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

इस प्रकार कहा जा सकता है कि तीनों वेदों में तीनों लोकों का समावेश है।   यजुर्वेद में इसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से की गई हैः--ऋग्वेद वाक्-तत्त्व (ज्ञान-तत्त्व या विचार-तत्त्व) का संकलन है। यजुर्वेद में मनस्तत्त्व (चिन्तन, कर्मपक्ष, कर्मकाण्ड, संकल्प) का संग्रह है तथा सामवेद प्राणतत्त्व (आन्तरिक-ऊर्जा, संगीत, समन्वय) का संग्रह है। इन तीनों तत्त्वों के समन्वय से ब्रह्म की प्राप्ति होती हैः---  "ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये साम प्रपद्ये।" (यजुर्वेदः--३६/१)  लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

 ब्राह्मण-ग्रन्थों में इसकी अन्य प्रकार से व्याख्या की गई हैः--- 
(क) ऋग्वेद ब्रह्म हैः---"ब्रह्म वा ऋक्" (कौषीतकि- ७/१०)
 (ख) ऋग्वेद वाणी है----"वाक् वा ऋक्" (जैमिनीय-ब्राह्मण--४/२३/४)। 
(ग) ऋग्वेद प्राण हैः--"प्राणो वा ऋक्" (शतपथः--७/५/२/१२)
(घ) ऋग्वेद अमृत हैः--"अमृतं वा ऋक्" (कौषीतकि--७/१०)।
(ङ) ऋग्वेद वीर्य हैः--"वीर्यं वै देवता--ऋचः" (शतपथ---१/७/२/२०)  

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यज्ञों के चार प्रकार के ऋत्विक् होते हैंः--
(क) होता, (ख) अध्वर्यु, (ग) उद्गाता, (घ) ब्रह्मा । 

इसका वर्णन ऋग्वेद में आया हैः---  "ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान् गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु। ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उत्वः।।" (ऋग्वेदः--१०/७१/११)  

(१.) होताः---होता ऋग्वेद का ऋत्विक् है। यह यज्ञ में ऋग्वेद के मन्त्रों का पाठ करता है। ऐसी देवस्तुति वाली ऋचाओं का पारिभाषिक नाम "शस्त्र" है। इसका लक्षण हैः--"अप्रगीत-मन्त्र-साध्या स्तुतिः शस्त्रम्।" अर्थात् गान-रहित देवस्तुति-परक मन्त्र को "शस्त्र" कहते हैं।  

(२.) अध्वर्युः---अध्वर्यु का सम्बन्ध यजुर्वेद से है। यह यज्ञ के विविध कर्मों का निष्पादक होता है। यह प्रमुख ऋत्विक् है। यज्ञ में घृताहुति-आदि देना इसी का कर्म है।

 (३.) उद्गाताः---उद्गाता सामवेद का प्रतिनिधि ऋत्विक् है। यह यज्ञ में देवस्तुति में सामवेद के मन्त्रों का गान करता है। 

(४.) ब्रह्माः---ब्रह्मा अथर्ववेद का ऋत्विक् है। यह यज्ञ का अधिष्ठाता और संचालक होता है। इसके निर्देशानुसार ही अन्य ऋत्विक् कार्य करते हैं। यह चतुर्वेद-विद् होता है। यह त्रुटियों का परिमार्जन, निर्देशन, यज्ञिय-विधि की व्याख्या आदि करता है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

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 पतञ्जलि ऋषि ने ऋग्वेद की २१ शाखाओं काउल्लेख किया हैः--"एकविंशतिधा बाह्वृच्यम्।" (महाभाष्य--पस्पशाह्निक)। 

इसमें से सम्प्रति पाँच शाखाओं के नाम उपलब्ध होते हैंः---(१.) शाकल, (२.) बाष्कल, (३.) आश्वलायन, (४.) शांखायन और (५.) माण्डूकायन। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

  (१.) शाकलः--सम्प्रति यही शाखा उपलब्ध है। इसी का वर्णन विस्तार से आगे किया जाएगा। 

 (२.) बाष्कलः--यह शाखा उपलब्ध नहीं है। शाकल में १०१७ सूक्त हैं, परन्तु बाष्कल में १०२५ सूक्त थे, अर्थात् ८ सूक्त अधिक थे। इन ८ सूक्तों का शाकल में संकलन कर लिया गया है। एक "संज्ञान-सूक्त" के रूप में और शेष ७ सूक्त "बालखिल्य" के रूप में समाविष्ट कर लिया गया है। ये ७ सूक्त प्रथम ७ सूक्तों में सम्मिलित किया गया है।  लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

 (३.) आश्वलायनः--इस शाखा की संहिता और ब्राह्मण उपलब्ध नहीं है, किन्तु श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र उपलब्ध है। 

 (४.) शांखायनः---यह शाखा उपलब्ध नहीं है, किन्तु इसके ब्राह्मण, आरण्यक, श्रौत और गृह्यसूत्र उपलब्ध हैं। 

 (५.) माण्डूकायनः--इस शाखा का कोई भी साहित्य उपलब्ध नहीं है।  

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 ऋग्वेद का विभाजन दो प्रकार से किया जाता हैः---(१.) अष्टक, अध्याय, वर्ग और मन्त्र। (२.) मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मन्त्र। 

 (१.) अष्टक-क्रमः--इसमें आठ अष्टक हैं, प्रत्येक अष्टक में आठ-आठ अध्याय हैं, जिनकी कुल संख्या ६४ (चौंसठ) है। प्रत्येक अध्याय में वर्ग है, किन्तु इनकी संख्या समान नहीं है। कुल वर्ग २०२४ है, सूक्त २०२८ बालखिल्य सहित है।   लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

 (२.) मण्डलक्रमः----यह विभाजन अधिक सुसंगत और उपयुक्त हैं। इसके अनुसार ऋग्वेद में कुल १० मण्डल हैं। इसमें बालखिल्य के ११ सूक्तों के ८० मन्त्रों को सम्मिलित करते हुए ८५ अनुवाक, १०२८ सूक्त और १०,५५२ मन्त्र हैं। जब कभी ऋग्वेद का पता देना हो तब अनुवाक की संख्या छोड देते हैं। सन्दर्भ में मण्डल, सूक्त और मन्त्र-संख्या ही देता हैं, जैसेः---ऋग्वेदः--१०/७१/११  इसमें अनुवाक सम्मिलित नहीं है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

ऋग्वेद के प्रत्येक मण्डल में सूक्तों की संख्याः-- 

प्रथम-मण्डलः---१९१,
 द्वितीय---४३
तृतीयः--६२
चतुर्थः---५८
पञ्चमः---८७
षष्ठः---७५
सप्तमः--१०४
अष्टमः---१०३
नवमः---११४
दशमः---१९१

ऋग्वेद में १० मण्डल, ८५ अनुवाक, १०२८ सूक्त हैं ।  

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प्रथम-मण्डलः--२४,
 द्वितीयः---०४, 
तृतीयः---०५
चतुर्थः---०५
पञ्चमः---०६
षष्ठ---०६
सप्तमः--०६
अष्टमः--१०
नवमः--०७
दशमः---१२
इस प्रकार ऋग्वेद में कुल अनुवाक ८५ हैं।  

ऋग्वेद के प्रत्येक मण्डल में सूक्तों की संख्याः-- 
प्रथम-मण्डलः---१९१
द्वितीय---४३
तृतीयः--६२
चतुर्थः---५८
पञ्चमः---८७
षष्ठः---७५
सप्तमः--१०४
अष्टमः---१०३
नवमः---११४
दशमः---१९१
इस प्रकार ऋग्वेद में कुल सूक्त १०२८ हैं।  

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श्रद्धासूक्त, पुरुष-सूक्त, यम-यमी-सूक्त, उर्वशी-पुरुरवा-सूक्त, नासदीय-सूक्त, वाक्-सूक्त, हिरण्यगर्भ-सूक्त, दान-सूक्त, सरमा-पणि-सूक्त, औषधि-सूक्त, विश्वामित्र-नदी-सूक्त आदि-आदि।  

ऋग्वेद में कुल मन्त्रों की संख्या १०,५८०, कुल शब्द १५३८२६ और कुल अक्षर ४३,२००० हैं।  

पतञ्जलि मुनि ने ऋग्वेद की २१ शाखाओं का उल्लेख किया है। इनमें से पाँच शाखाओं के नाम उपलब्ध हैः--शाकल, बाष्कल, शांखायन, माण्डूकायन औऱ आश्वलायन। 

इन पाँच शाखाओं में से केवल एक शाखा उपलब्ध हैः--शाकल-शाखा। बाष्कल-शाखा में १०,६२२ मन्त्र हैं । 

ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं---
ऐतरेय और कौषीतकि (शांखायन) । 
ऋग्वेद के आरण्यक को ऐतरेय कहते हैं, इसमें पाँच आरण्यक और अठारह अध्याय हैं।  

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ऋग्वेद के ऋषि और मण्डल निम्न हैः--- 
मण्डल-------सूक्तसंख्याः------मन्त्र-संख्याः----ऋषिनाम
 (१.)प्रथम-----१९१--------------२००६--------मधुच्छन्दाः, मेधातिथिः, दीर्घतमा,अगस्त्य, गौतम, पराशर,

 (२.) द्वितीय—--४३----------------४२९---------गृत्समद और उनके वंशज 

(३.) तृतीय----६२-----------------६१७--------विश्वामित्र और उनके वंशज
 (४.) चतुर्थ-----५८------------------५८९------वामदेव और उनके वंशज 

(५.) पञ्चम----८७------------------७२७------अत्रि और उनके वंशज
 (६.) षष्ठ-------७५ ----------------७६५------भरद्वाज और उनके वंशज 
(७.) सप्तम----१०४-----------------८४१------वशिष्ठ और उनके वंशज 
(८.) अष्टम-----१०३----------------१७१६----कण्व, भृगु, अंगिरस् और उनके वंशज

 (९.) नवम-------११४----------------११०८-----अनेक ऋषि
(१०.) दशम-----१९१-----------------१७५४----

त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा-कामायनी, इन्द्राणी, शची, उर्वशी  मन्त्र-द्रष्टा ऋषिकाएँ ------
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ऋग्वेद में २४ मन्त्र-द्रष्टा ऋषिकाएँ हैं। इनके द्वारा दृष्ट मन्त्रों की संख्या २२४ है।  

ऋषिका---------------मन्त्रसंख्या-------------सन्दर्भ
 (१.) सूर्य सावित्री-------४७-----------------१०/८५ 
(२.) घोषा काक्षीवती----२८--------------१०/३९-४०
 (३.) सिकता निवावरी---२०-----------------९/८६
 (४.) इन्द्राणी-------------१७---------------१०/८६,१४५
(५.) यमी वैवस्वती------११------------१०/१०,१५४ 
(६.) दक्षिणा प्राजापत्या—११----------------१०/१०७ 
(७.) अदिति----------------१०---------------4४/१८, १०/७२ 
(८.) वाक् आम्भृणी-------८------------------१०/१२५ 
(९.) अपाला आत्रेयी-------७-------------------८/९१
 (१०.) जुहू ब्रह्मजाया-----७-------------------१०/१०९ 
(११.) अग्स्त्यस्वसा-------६--------------------१०/६० 
(१२.) विश्ववारा आत्रेयी---६---------------------5.28 
(१३.) उर्वशी-----------------६--------------------10.95 
(१४.) सरमा देवशुनी--------६--------------------१०/१०८
(१५.) शिखण्डिन्यौ अप्सरसौ—६-----------------९/१०४ 
(१६.) श्रद्धा कामायनी----------५-----------------१०/१५१
(१७.) देवजामयः-----------------5----------------१०/१५३
 (१८.) पौलोमी शची--------------६---------------१०/१५९
(१९.) नदी------------------------४------------------३/३३ 
(२०.) सार्पराज्ञी--------------------३---------------१०/१८९
(२१.) गोधा-----------------------१-----------------१०/१३४
(२२.) शश्वती आंगिरसी-----------१-----------------८/१
 (२३.) वसुक्रपत्नी------------------१---------------१०/२८ 
(२४.) रोमशा ब्रह्मवादिनी---------१.------------१/१२६  

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ऋग्वेद में कुल २० छन्दों का प्रयोग हुआ है। इनमें से ७ छन्दों का मुख्य रूप से प्रयोग हुआ है। ये हैं---- 
(१.) गायत्री (२४ अक्षर),  
(२.) उष्णिक् (२८अक्षर), 
(३.) अनुष्टुप् (३२ अक्षर), 
(४.) बृहती (३६ अक्षर),
(५.) पंक्ति (४० अक्षऱ), 
(६.) त्रिष्टुप् (४४ अक्षर), 
(७.) जगती (४८ अक्षर), 

इनमें से त्रिष्टुप्, गायत्री, जगती और अनुष्टुप् छन्दों का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है। 

इनका विवरणः---- 
छन्दनाम----------मन्त्र-संख्या-------------अक्षर-संख्या 
(१.) त्रिष्टुप्---------४२५८-------------------१,८७,३१२ 
(२.) गायत्री--------२४५६-------------------५८,९३८ 
(३.) जगती---------१३५३-------------------६४,९४४ 
(४.) अनुष्टुप्---------८६०--------------------२७,५२०
(५.) पंक्ति-------------४९८ 
(६.) उष्णिक्-----------३९८ 
(७.) बृहती---------------३७१

इस प्रकार ऋग्वेद के लगभग ८०% प्रतिशत मन्त्र इन्हीं छन्दों में है। अन्य छन्दों का विवरण इस प्रकार हैः---- 

छन्दनाम--------------अक्षर------------------मन्त्र 
(८.) अतिजगती-------५२--------------------१७ 
(९.) शक्वरी-----------५६--------------------१९ 
(१०.) अतिशक्वरी-----६०-------------------१०
(११.) अष्टि-------------६४--------------------०७ 
(१२.) अत्यष्टि-----------६८-------------------८२ 
(१३.) धृति---------------७२-------------------०२ 
(१४.) अतिधृति-----------७६------------------०१
(१५.) द्विपदा गायत्री-------१६-----------------०३
(१६.) द्विपदा विराट्--------२०---------------१३९ 
(१७.) द्विपदा त्रिष्टुप्---------२२-----------------१४ 
(१८.) द्विपदा जगती---------२४-------------------०१ 
(१९.) एकपदा विराट्---------१०------------------०५ 
(२०.) एकपदा त्रिष्टुप्---------११-----------------०१  

वेदों को स्वरूप के आधार पर तीन भागों में बाँटा गया हैः—पद्य, गद्य और गीति। मीमांसाकार जैमिनि के इसका उल्लेख किया है।  लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

(१.) जिन मन्त्रों में अर्थ के आधार पर पाद (चरण) की व्यवस्था है और पद्यात्मक है, उन्हें ऋक् या ऋचा कहते हैं। ऐसे संकलन को ऋग्वेद कहते हैं----”तेषाम् ऋक् यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था।” (जैमिनीय सूत्र—२/१/३५)  

(२.) जिन ऋचाओं का गान होता है और जो गीति रूप है, उन्हें साम कहते हैं। ऐसे मन्त्रों का संकलन सामवेद में किया गया हैः----”गीतिषु सामाख्या।” (पूर्वमीमांसा---२/१/३६) 

 (३.) जो मन्त्र पद्य और गान से रहित है अर्थात् गद्य रूप हैं, उन्हें यजुष् कहते हैं। ऐसे मन्त्रों का संकलन यजुर्वेद में हैं----”शेषे यजुः शब्दः।” (पूर्वमीमांसा—२/१/३७) 

 (४.) अथर्ववेद में पद्य और गद्य दोनों का संकलन हैं, अतः वह इन्हीं तीन भेद के अन्तर्गत आ जाता है।  इस भेदत्रय के कारण वेदों को ”वेदत्रयी” कहते हैं। वेदत्रयी का भाव है-- वेदों की त्रिविध रचना।  लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

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 ”खिल” से अभिप्राय है—परिशिष्ट या प्रक्षिप्त। जो अंश या मन्त्र मूल ग्रन्थ में न हो और आवश्यकतानुसार अन्यत्र से संग्रह किया गया हो, उसे खिल कहते हैं। इस समय सम्पूर्ण विश्व ऋग्वेद की बाष्कल शाखा प्रसिद्ध है। शाकल शाखा में कुछ अधिक मंन्त्र थे। जो इस समय उपलब्ध नहीं है, किन्तु उनके कुछ मन्त्र बाष्कल में परिशिष्ट के रूप में गृहीत हैं।  मैक्समूलर के संस्करण में ३२ तथा ऑफ्रेख्त के संस्करण में २५ खिल सूक्त हैं। सातवलेकर की ऋक्संहिता में ३६ खिल सूक्त हैं।   प्रो. रॉठ की प्रेरणा से डॉ. शेफ्टेलोवित्स ने एक खिल-सूक्त-संग्रह १९०६ में ब्रेस्लाड (जर्मनी) से प्रकाशित करवाया। तदनन्तर पूना से सायण ऋग्वेद-भाष्य के प्रकाशित किया गया। चिन्तामणि गणेश काशीकर ने खिल सूक्तों पर विस्तृत विवेचन किया है। ५ अध्यायों में ८६ खिल सूक्तों का पाठभेद आदि के साथ इसका विवरण यहाँ प्रस्तुत हैः---  

अध्याय----सूक्त------मन्त्रसंख्या----------विशिष्ट सूक्त
 (१.) ------१२----------८६-------------------सौपर्ण सूक्त (११ सूक्त. ८४ मन्त्र) 

(२.) -------१६----------६६+७० (अन्य)------श्रीसूक्त (१९+२१=४० मन्त्र) 

(३.) -------२२---------१३७+२५ (अन्य)------बालखिल्य (८ सूक्त, ६६ मन्त्र) 

(४.) -------१४----------१०५+६० (अन्य)------शिवसंकल्प (२८ मन्त्र), 

(५.) --------२२----------३७०+९ (अऩ्य)-------निविद् १९३, प्रैष ६४, कुन्ताप ८० मन्त्र) इस प्रकार कुल सूक्त ८६ और कुल मन्त्र ९२९ हैं। 

 !!!---: यजुर्वेद :---!!! 
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यजुष् का अर्थ हैः---(१.) “यजुर्यजतेः” (निरुक्त—७/१२) अथार्त् यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्रों को यजुष् कहते हैं।   

(२.) ”इज्यतेऽनेनेति यजुः।” अर्थात् जिन मन्त्रों से यज्ञ किया जाता है, उन्हें यजुष् कहते हैं। यजुर्वेद का कर्मकाण्ड से साक्षात् सम्बन्ध है। इसका ऋत्विक् अध्वर्यु होता है, अतः इसे ”अध्वर्युवेद” भी कहा जाता है। यह अध्वर्यु ही यज्ञ के स्वरूप का निष्पादक होता हैः---”अध्वर्युनामक एक ऋत्विग् यज्ञस्य स्वरूपं निष्पादयति। अध्वरं युनक्ति, अध्वरस्य नेता।” (सायणाचार्य-ऋग्भाष्यभूमिका)   

(३.) ”अनियताक्षरावसानो यजुः” अर्थात् जिन मन्त्रों में पद्यों के तुल्य अक्षर-संख्या निर्धारित नहीं होती, वे यजुः हैं।  

(४.) ”शेषे यजुःशब्दः” (पूर्वमीमांसा—२/१/३७) अर्थात् पद्यबन्ध और गीति से रहित मन्त्रात्मक रचना को यजुष् कहते हैं। इसका अभिप्राय यह भी है कि सभी गद्यात्मक मन्त्र-रचना यजुः की कोटि में आती है।   लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

(५.) ”एकप्रयोजनं साकांक्षं पदजातमेकं यजुः” अर्थात् एक उद्देश्य से कहे हुए साकांक्ष एक पद-समूह को यजुः कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि एक सार्थक वाक्य यजुः की एक इकाई माना जाता है।   तैत्तिरीय-संहिता के भाष्य की भूमिका में सायण ने यजुर्वेद का महत्त्व बताते हुए कहा है कि यजुर्वेद-भित्ति (दीवार) है और अन्य वेद (ऋक् और साम) चित्र है। इसलिए यजुर्वेद सबसे मुख्य है। यज्ञ को आधार बनाकर ही ऋचाओं का पाठ और सामगान होता हैः----”भित्तिस्थानीयो यजुर्वेदः, चित्रस्थानावितरौ। तस्मात्कर्मसु यजुर्वेदस्यैव प्राधान्यम्।” (सायण)

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ब्राह्मण-ग्रन्थों में यजुर्वेद का दार्शनिक रूप प्रस्तुत किया गया है।

 (१.) यजुर्वेद विष्णु का रूप है, अर्थात् इसमें विष्णु (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन हैः---”यजूंषि विष्णुः” (शतपथ—४/६/७/३)

(२.) यजुर्वेद प्राणतत्त्व और मनस्तत्त्व का वर्णन करता है। अतः वह प्राण है, मन हैः---”प्राणो वै यजुः” (शतपथ—१४/८/१४/२) । ”मनो यजुः” (शतपथ---१४/४/३/१२)

(३.) यजुर्वेद में वायु व अन्तरिक्ष का वर्णन है। अतः वह अन्तरिक्ष का प्रतिनिधि हैः--”अन्तरिक्षलोको यजुर्वेदः” (षड्विंश-ब्राह्मण—१/५)

(४.) यजुर्वेद तेजस्विता का उपदेश देता है। अतः वह महः (तेज) हैः--”यजुर्वेद एव महः” (गोपथ-ब्राह्मण, पूर्व---५/१५)

(५.) यजुर्वेद क्षात्र-धर्म और कर्मठता की शिक्षा देता है। अतः वह क्षत्रियों का वेद हैः--”यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम्।” (तैत्तिरीय-ब्राह्मण---३/१२/९/२)  

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यजुर्वेद मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त है---

(१.) शुक्लयजुर्वेद (२.) कृष्णयजुर्वेद। यजुर्वेद के दो सम्प्रदाय प्रचलित हैं---(१.) आदित्य-सम्प्रदाय (२.) ब्रह्म-सम्प्रदाय। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

शुक्लयजुर्वेद आदित्य-सम्प्रदाय से सम्बद्ध है और कृष्णयजुर्वेद ब्रह्म-सम्प्रदाय से। शतपथ-ब्राह्मण में इसका उल्लेख हुआ है कि शुक्लयजुर्वेद आदित्य-सम्प्रदाय से सम्बन्धित है और इसके आख्याता याज्ञवल्क्य हैं----”आदित्यानीमानि शुक्लानि यजूंषि। वाजसनेयेन याज्ञवल्क्येन आख्यायन्ते।” (शतपथ—१४/९/४/३३)  लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

शुक्लयजुर्वेद को ही वाजसनेयि-संहिता और माध्यन्दिन-संहिता भी कहते हैं। याज्ञवल्क्य इसके ऋषि हैं। वे मिथिला के निवासी थे। इनके पिता वाजसनि थे, इसलिए याज्ञवल्क्य वाजसनेय कहलाते थे। वाजसनेय से सम्बद्ध संहिता ”वाजसनेयि-संहिता” कहलाई। याज्ञवल्क्य ने मध्याह्न के सूर्य के समय अपने आचार्य वैशम्पायन से इस वेद का ज्ञान प्राप्त किया था, इसलिए इस ”माध्यन्दिन-संहिता” भी कहते हैं।   लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

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शुक्ल और कृष्ण भेदों का आधार यह है कि शुक्ल यजुर्वेद में यज्ञों से सम्बद्ध विशुद्ध मन्त्रात्मक भाग ही है। इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग नहीं है। ये मन्त्र इसी रूप में यज्ञों में पढे जाते हैं। विशुद्ध और परिष्कृत होने के कारण इसे शुक्ल (स्वच्छ, श्वेत, अमिश्रित) यजुर्वेद कहा जाता है। इस शुक्लयजुर्वेद की एक अन्य शाखा काण्व-शाखा है।  

कृष्णयजुर्वेद का सम्बन्ध ब्रह्म-सम्प्रदाय से है। इसमें मन्त्रों के साथ व्याख्या और विनियोग वाला अंश भी मिश्रित है। अतः इसे कृष्ण (अस्वच्छ, कृष्ण, मिश्रित) यजुर्वेद कहते हैं। 

इसी आधार पर शुक्लयजुर्वेद के पारायणकर्ता ब्राह्मणों को ”शुक्ल” और कृष्णयजुर्वेद के पारायणकर्ता ब्राह्मणों को ”मिश्र” नाम दिया गया है।  लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

 गुरु वैशम्पायन ने अपने शिष्यों को दोनों प्रकार के यजुर्वेद का अध्ययन कराया था। इन्हीं का एक शिष्य तित्तिरि थे, जिन्होंने कृष्णयजुर्वेद का अध्ययन किया था, किन्तु इन्होंने अपनी एक पृथक् शाखा बना ली। उनके नाम से ही तैत्तिरीय-शाखा कहलाई । 

मैत्रेय ने कृष्णयजुर्वेद की अपनी एक पृथक् शाखा चलाई, जिसका नाम मैत्रायणी पडा। इसी प्रकार कठ और कपिष्ठल भी कृष्णयजुर्वेद की पृथक्-२ शाखाएँ हैं।   

(१.) महर्षि पतञ्जलि ने महाभाष्य के पस्पशाह्निक में यजुर्वेद की १०१ शाखा का उल्लेख किया हैः--“एकशतमध्वर्युशाखाः”।  लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

(२.) षड्गुरुशिष्य ने सर्वानुक्रमणी की वृत्ति में १०० शाखाओं का उल्लेख किया है---”यजुरेकशताध्वकम्।” (सर्वानुक्रमणी)। 

(३.) कूर्मपुराण में भी १०० शाखाओं का उल्लेख प्राप्त होता है---”शाखानां तु शतेनाथ यजुर्वेदमथाकरोत्।” (कूर्मपुराण—४९/५१)

(४.) इसके विपरीत ”चरणव्यूह” में यजुर्वेद की केवल ८६ शाखाओं का ही उल्लेख प्राप्त होता है। उसके अनुसार 
(क) चरकशाखा की १२, 
(ख) मैत्रायणी की ७, 
(ग) वाजसनेय की १७, 
(घ) तैत्तिरीय की ६, और 
(ङ) कठ की ४४ शाखाएँ हैं---”यजुर्वेदस्य षढशीतिर्भेदाः, चरका द्वादश, मैत्रायणीयाः सप्त, वाजसनेयाः सप्तदश, तैत्तिरीयकाः षट्, कठानां चतुश्चत्वारिंशत्.” (चरणव्यूह—२)

इस निर्देश से ऐसा प्रतीत होता है कि यजुर्वेद की शाखाएँ क्रमशः लुप्त होती जा रही थीं और चरणव्यूह के समय में केवल ४२ शाखाएँ ही उपलब्ध थीं । कठ-शाखा के ४४ ग्रन्थों एवं उनके लेखकों के नाम भी लुप्त हो चुके थे। सम्प्रति केवल ६ शाखाएँ ही यजुर्वेद की उपलब्ध हैं। दो शुक्ल की और ४ कृष्ण यजुर्वेद की।   लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

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इसकी दो शाखाएँ उपलब्ध हैं---(१.) वाजसनेयि और (२.) काण्व। 

(१.) माध्यन्दिन या वाजसनेयि-संहिताः----इस संहिता में ४० अध्याय और १९७५ मन्त्र हैं। इसका ब्राह्मण शतपथ-ब्राह्मण है। इसके अनुसार वाजसनेयि-संहिता में कुल अक्षर २,८८,००० (दो लाख, अठासी हजार) हैं। इस शाखा का प्रचार-प्रसार उत्तर भारत में है। इसका उपनिषद् ईशोपनिषद्, बृहदारण्यकोपनिषद् है।  लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

(२.) काण्व-संहिताः---इसमें ४० अध्याय, ३२८ अनुवाक और मन्त्र २०८६ हैं। इसमें माध्यन्दिन की अपेक्षा १११ मन्त्र अधिक हैं। इसके प्रवर्तक ऋषि कण्व हैं। इनके पिता बोधायन और गुरु याज्ञवल्क्य थेः---”बोधायन-पितृत्वाच्च प्रशिष्यत्वाद् बृहस्पतेः। शिष्यत्वाद् याज्ञवल्क्यस्य कण्वोsभून्महतो महान्।।” इस शाखा का प्रचार महाराष्ट्र प्रान्त में अधिक है। प्राचीन काल में इसका प्रचार उत्तर भारत में भी था। महाभारत आदि-पर्व (६३/१८) के अनुसार शकुन्तला के धर्मपिता महर्षि कण्व का आश्रम मालिनी नदी (सम्प्रति बिजनौर जिले में कोटद्वार के पास) था। इस प्रकार देखा जाए तो कण्व का सम्बन्ध उत्तर भारत से रहा है।   

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 चरणव्यूह के अनुसार यजुर्वेद की ८६ शाखाओं में से शुक्लयजुर्वेद की १७ और कृष्णयजुर्वेद की ६९ शाखाएँ हैं। कृष्णयजुर्वेद की चार शाखाएँ सम्प्रति उपलब्ध हैं---(१.) तैत्तिरीय, (२.) मैत्रायणी, (३.) काठक (या कठ), (४.) कपिष्ठल 

तैत्तिरीय-शाखा के दो मुख्य भेद हैं---औख्य और खाण्डिकेय। खाण्डिकेय के ५ भेद हैः—आपस्तम्ब, बौधायन, सत्याषाढ, हिरण्यकेशि और लाट्यायन। 

मैत्रायणी के भी ७ भेद हैं और चरक (या कठ) के १२ भेद हैं। कठ के ४४ उपग्रन्थ भी हैं। इसके उपनिषद् कठोपनिषद् और श्वेताश्वतर है।  लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

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यह कृष्णयजुर्वेद की प्रमुख शाखा है। इसमें ७ काण्ड, ४४ प्रपाठक और ६३१ अनुवाक हैं। अनुवाकों के भी उपभेद (खण्ड) किए गए हैं। इसलिए जब पता दिया जाता है तो उसमें चार अंक होते हैं। जैसेः---देवा वसव्या अग्ने सोम सूर्य। (तै.सं. कां. २/ प्र.४/अनु.८/खण्ड.१)  

यही एक संहिता है, जिसके सम्पूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इसका ब्राह्मण (तैत्तिरीय-ब्राह्मण) आरण्यक (तैत्तिरीय-आरण्यक), उपनिषद् (तैत्तिरीय-उपनिषद्), श्रौतसूत्र (बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशि या सत्याषाढ, वैखानस, भारद्वाज), गृह्यसूत्र (बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशि,वैखानस, भारद्वाज, अग्निवेश्य), शुल्बसूत्र बौधायन और आपस्तम्ब) और धर्मसूत्र (बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशि) प्राप्त हैं। इसीलिए यह सर्वांगपूर्ण संहिता है।  तैत्तिरीय-संहिता का विशेष प्रचार दक्षिण भारत में हैं। आचार्य सायण की यही शाखा थी। इसलिए उन्होंने इसी शाखा का सर्वप्रथम भाष्य लिखा।  

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चरणव्यूह के अनुसार मैत्रायणी-संहिता की सात शाखाएँ हैं---(१.) मानव, (२.) दुन्दुभ, (३.) ऐकेय, (४.) वाराह, (५.) हारिद्रवेय, (६.) श्याम, (७.) श्यामायनीय। मैत्रायणी-संहिता के प्रवर्तक आचार्य मैत्रायण या मैत्रेय थेः----”मैत्रायणी ततः शाखा मैत्रेयास्तु ततः स्मृतः।” (हरिवंशपुराण—अ. ३४)   

इस शाखा में मन्त्र और व्याख्या भाग (ब्राह्मण या गद्यभाग) मिश्रित है। इसमें ४ काण्ड, ५४ प्रपाठक और ३१४४ मन्त्र हैं। इनमें से १७०१ ऋचाएँ ऋग्वेद से उद्धृत हैं। इस संहिता में विभिन्न यागों का विस्तृत वर्णन है।   लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

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इसे कठ-संहिता भी कहते हैं। यह चरकों की शाखा मानी जाती है। इसमें ५ खण्ड हैं---(१.) इठिमिका, (२.) मध्यमिका, (३.) ओरामिका, (४.) याज्यानुवाक्या, (५.) अश्वमेधादि अनुवचन। इसके उपखण्डों को स्थानक और अनुवचन कहा जाता है। जैनियों ने स्थानक शब्द को अपना लिया। कुल ५ खण्डों में ४० स्थानक और १३ वचन हैं, दोनों को मिलाकर ५३ उपखण्ड हैं। कुल अनुवाक ८४३ और कुल मन्त्र ३०२८ हैं। मन्त्र और ब्राह्मणों की सम्मिलित संख्या १८ हजार है। इसमें १९ प्रमुख यागों का वर्णन है। कभी इस शाखा का ग्राम-ग्राम में प्रचार था। मुनि पतञ्जलि लिखते हैं कि बालक-बालक इस शाखा को जानते थेः---”ग्रामे ग्रामे काठकं कालापकं च प्रोच्यते।” (महाभाष्य—४/३/१०१) आज कल यह शाखा प्रायः लुप्त हो गई है, अर्थात् इसका अधिक प्रचार नहीं है।   लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री

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 प्राचीन काल में कठों की कई शाखाएँ प्रचलित थीं---कठ, प्राच्य कठ और कपिष्ठल कठ। इस शाखा के प्रवर्तक आचार्य थे---कपिष्ठल ऋषि। ये वसिष्ठ गोत्र के थे। इनका निवास स्थान कुरुक्षेत्र के पास कपिष्ठल (कैथल) नामक स्थान है। यह ग्रन्थ अपूर्ण है। यह ग्रन्थ अष्टकों और अध्यायों में विभक्त है। इसके ६ अष्टक उपलब्ध हैं। कुल ४८ अध्याय हैं। 

अतीव परिश्रम से लिखा गया यह लेख आपकी प्रंशसा, टिप्पणी आदि की अपेक्षा रखता है। कृपया अपने विचार अवश्य दें।  


Monday 22 June 2020

मृत्यु से अभय

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जो उस परमब्रह्मा को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है :----
"स यो हि वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति ।"
(मुण्डकोपनिषद् ३/२/९)

इसका अर्थ यह नहीं है कि ईश्वर के गुणों को जानने से व्यक्ति परमात्मा बन जाता है । जीवात्मा परमात्मा के स्वरूप को जानने से उसके गुणों को धारण कर लेता है ।जैसे लोहे के गोले को हम अग्नि में डाल दें तो वह अग्नि रूप हो जाता है । यही स्थिति जीवात्मा की होती है :---

"अकामो धीरो अमृतः स्वयंभू रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः ।
तमेव विद्वान् न विभाय मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम् ।।" (अथर्ववेद १०/८/४४)


वह परमात्मा कामनाओं से रहित है । जैसे सांसारिक व्यक्तियों की कामनाएं होती है, वैसी उसकी कोई कामना नहीं है । वह धीर है, धैर्यवान् है, अमर है, आनंद अथवा शक्ति से तृप्त है, उसमें कहीं से भी कोई कमी नहीं है । उस धीर अजर, युवा (महाबली) परमात्मा को जानता हुआ मनुष्य मृत्यु से नहीं डरता है ।

अतः वेद भगवान के अनुसार मृत्यु से बचने का एक उपाय यह है कि हम परमात्मा के स्वरूप को समझे । उसे हृदयंगम करने का प्रयत्न करें । प्रश्न यह है कि परमात्मा का स्वरूप क्या है ? महर्षि दयानंद सरस्वती महाराज ने परमात्मा के स्वरूप का वर्णन आर्य समाज के दूसरे नियम ने किया है । वह नियम इस प्रकार है :---"ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है ।उसी की उपासना करनी योग्य है। ।

Tuesday 16 June 2020

वैदिक ऋषिकाएं

!!!---: वैदिक  ऋषिकाएं :---!!!
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वेद मंत्रों के दर्शन करने वाले विद्वानों को ऋषि कहा जाता है । ऐसे अनेक विद्वान् हुए हैं जिन्होंने वेद मंत्रों का दर्शन किया है । इसी प्रकार से वेदों का दर्शन करने वाली स्त्रियां भी हुई है । जो ऋषिकाएं कही जाती थी । ऐसी कुछ ऋषिकाओं का वर्णन यहां पर प्रस्तुत है :----


गार्गी जनक की सभा में उपस्थित विद्वानों में से एक थीं। उनको वेदों का अच्छा ज्ञान था। उनके और महर्षि याज्ञवल्क्य के बीच हुए संवाद (बृहदारण्यक उपनिषद – 3.6) के प्रसंग से वर्णित है कि वह एक प्रभावशाली व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं। गार्गी के प्रश्न ‘आसमान से ऊँचा और पृथ्वी से नीचे क्या है’ ने सभा में उपस्थित सभी लोगों को सोच में डाल दिया था।


मैत्रेयी को भारतीय विदुषियों का प्रतीक माना जाता है। वह एक वैदिक दार्शनिक थीं और उनको दर्शन में निपुणता प्राप्त थी। बृहदारण्यक उपनिषद (2.4.2–4 और 2.4.5) में उनके और ऋषि याज्ञवल्क्य के बीच हुआ एक संवाद हुआ है, जिसमे वह आत्मा और ब्रह्म के अंतर पर चर्चा करती हैं। माना जाता है कि मैत्रेयी ने तत्व पर गहन अध्ययन किया था। उस समय धर्म और शिक्षा, दोनों ही क्षेत्रों में मैत्रेयी को विशेष स्थान प्राप्त था। मैत्रेयी ऋषि याज्ञवल्क्य की पत्नी थी ।


लोपामुद्रा वैदिक काल की एक दार्शनिक थीं और महर्षि अगस्त्य की पत्नी थीं। ऋग्वेद की 179वीं सूक्त उनके और उनके पति के बीच हुए एक संवाद को दर्शाता है। पंचदशी के मन्त्रों से ले कर यज्ञ संपन कराने तक लोपामुद्रा, पारिवारिक जीवन का महत्त्व समझाने से लेकर ललित सहस्त्रनाम के प्रचार-प्रसार और महाभारत में लोपामुद्रा का नाम आता है।


राजा पॉलोम की पुत्री और इंद्र की पत्नी, शचि इंद्र के दरबार में मौजूद 7 मन्त्रिकाओं में से एक थीं। बुद्धिमती और शक्ति से संपन्न होने के कारण शचि को विशेषाधिकार प्राप्त था। कुछ ग्रंथों में इंद्र को शचिपति कहकर सम्बोधित किया जाना यह दर्शाता है कि वह उस समय एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थीं। ऋग्वेद (ऋचा, 10-159) में एक सूक्त में शचि ने अपनी शक्तियों का वर्णन किया है ।


मंत्रादिका, यानि मन्त्रों में निपुण, होने के साथ ही घोषा को आध्यात्म और दर्शन का भी अच्छा ज्ञान था। ऋग्वेद के दसवें मंडल के दो सूक्त (39 और 40), जिनमें कुल चौदह-चौदह मन्त्र हैं, घोषा द्वारा कहे गये हैं। घोषा को वैदिक विज्ञान, जैसे मधु विद्या का भी ज्ञान था। यह उसने अश्विनीकुमारों से सीखी थी, जो उस समय के त्वचा विशेषज्ञ थे।


अपाला अत्रि मुनि की पुत्री थीं। ऋग्वेद में लिखे हुए आठवें मंडल के साथ 7 सूक्त (8.91) उनके द्वारा इंद्र से कही गयी प्रार्थना और वार्तालाप की हैं। प्रचलित कथाओं के अनुसार, अपाला अपनी बुद्धिमत्ता के कारण पूरे भारतभर में प्रसिद्ध थीं।