Monday 29 May 2017

याज्ञिक प्रक्रिया और बाह्य आडम्बर

!!!---: याज्ञिक प्रक्रिया और बाह्य आडम्बर :---!!!
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संसार का यह नियम है कि जिस विषय में जनसाधारण की रुचि अधिक हो जाती है, व्यवहारकुशल समझे जाने व्यक्ति उस जनरुचि का अनुचित लाभ उठाया करते हैं ।
उसकी सदा यही चेष्टा रहती है कि जनसाधारण की वह रुचि उत्तरोत्तर बढती जाए, जिससे उनका काम बनता रहे ।

इस नियम के अनुसार जब जनसाधारण की रुचि यज्ञों के प्रति बढने लगी, तब लोभ-लालच के कारण पुरोहित याज्ञिक लोगों ने भी यज्ञों की रोचकता बढाने के लिए उनमें परिवर्तन करने लगे, पाखण्ड करने लगे, बाह्य-आडम्बर करने लगे । शुभ-अशुभ प्रत्येक अवसर पर करने योग्य विविध नये -नये यज्ञों का निर्माण किया ।

अधिकतर काम्य और नैमित्तिक यज्ञों के विकास (या ह्रास) का यही मूल कारण या आधार है ।

आज भी जनता की यज्ञकर्म के प्रति श्रद्धा का अनुचित लाभ उठाने के लिए दुर्गासप्तशती एवं तुलसी रामायण आदि से यज्ञ कराने की परिपाटी शुरु हो गई है ।

यह गलत परिपाटी आर्य समाजों में भी शुरु हो गई है, जो आर्य समाज स्वयं अन्धश्रद्धा को दूर करके वैदिक कर्मकाण्ड को प्रचलित करने का उद्देश्य रखती थी , आज वो स्वयं इसमें फँसती जा रही है ।

आर्य समाज में कुछ काल से स्वामी दयानन्द द्वारा उद्घोषित "अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेधपर्यन्त" वैदिक यज्ञों के स्थान पर वेद-पारायण, गायत्री-महायज्ञ, स्वस्ति-याग, शान्तियाग जैसे अवैदिक यज्ञों का प्रचलन बढता जा रहा है ।

इस प्रकार यज्ञों में उत्तरोत्तर सादगी और सात्त्विकता की हानि तथा बाह्याडम्बर की वृद्धि हुई है । नए यज्ञों की कल्पना से अन्त में याज्ञिक-कल्पना की प्रारम्भिक वैज्ञानिक दृष्टि आँखों से सर्वथा ओझल हो गई है । अतः इस काल में कल्पित अधिकांश यज्ञों की क्रियाओं तथा पदार्थों का आधिदैविक तथा आध्यात्मिक जगत् के साथ दूर का भी सम्बन्ध नहीं रहा ।
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