Sunday 5 March 2017

अग्निदेव परिचय

!!!---: अग्नि-देव-परिचय :---!!!
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वेदों में सभी देवों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देव अग्नि है । यह पृथिवी स्थानीय देवता है । इसकी महत्ता का परिचय इस बात से मिलता है कि स्वतन्त्र रूप से अग्नि की स्तुति २०० सूक्तों में की गई है ।

अग्नि से अभिप्राय भौतिक अग्नि भी है, जीवात्मा भी है, परमात्मा भी है और सेनापति भी है । यह अग्नि मुख्य रूप से यज्ञीय अग्नि का बोधक है । सभी यागों का आधार अग्नि ही है , अतः अग्नि के बिना कोई भी धार्मिक कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता है ।

अग्नि ही देवों का दूत है । यह अग्नि ही देवों का मुख है । जब यज्ञशाला हम यज्ञ में आहुति देते हैं , तब हम सबसे पहले अग्नि का ही आह्वान् करते हैंः--"अग्न आ याहि ।" (सामवेद--१.१.१)

अग्नि का आह्वान सबसे पहले क्यों करते हैं ???

क्योंकि जब हम किसी देवता को मानकर आहुति देते हैं, तब यह अग्नि ही उस देवता को अपने सुवर्णमय रथ में बिठाकर सम्मान के साथ यज्ञशाला में लाता है और अपने मुख से ग्रहण कर उस देवता तक आहुति पहुँचाता है ।

इसलिए यज्ञ में सबसे पहले अग्नि को प्रज्वलित करते हैं और उससे प्रार्थना करते हैं कि वह पूरे यज्ञ में कभी बुझे नहीं, शान्त न हो---"उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि....।" (यजुर्वेदः---१५.५४)

उसके पश्चात् अग्नि को ही समिदाधान करते हैं----"अयन्त इध्म आत्मा जातवेदः...." (आश्वलायनगृह्यसूत्र---१.१०.१२)

अग्नि मनुष्य का सबसे निकटस्थ देवता है---"अग्निर्वै देवानामवमो विष्णुः परमः ।" (ऐतरेय-ब्राह्मण-१.१.१.१)

अग्नि भी इन्द्र की तरह वृत्रह है, कैसे ??? क्योंकि अग्नि ही अपान वायु, कार्बन डाय ऑक्साइड को समाप्त करता है, वह पर्यावरण का शोधक है और प्रदूषण रूपी वृत्र का नाश करता है ।

अग्नि के चार प्रकार होते हैं---
(१.) भौतिक अग्नि,
(२.) जलीय अग्नि,
(३.) सूर्य-अग्नि,
(४.) विद्युत्-अग्नि ।

"रक्षन्तु त्वाग्नयो ये अप्स्वन्ता रक्षतु त्वा मनुष्या३यमिन्धते ।
वैश्वानरो रक्षतु जातवेदा दिव्यस्त्वा मा प्र धाग्विद्युता ।।"
(अथर्ववेद---८.१.११)

इसका अभिप्राय है कि जहाँ भी आग्नेय तत्त्व है, वह अग्निदेव है । अग्नि को द्युलोक, अन्तरिक्ष, पृथिवी, विद्युत्, वायु और दिशाओं में व्याप्त बताया गया हैः---

"दिवं पृथिवीमन्वन्तरिक्षं ये विद्युतमनुसंचरन्ति ।
ये दिक्ष्व१न्तर्ये वाते अन्तस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ।।"
(अथर्ववेदः---३.२१.७)

अग्नि विभिन्न रूपों में सभी पदार्थों में विद्यमान हैः---

"ये अग्नयो अप्स्व१न्तर्ये वृत्रे ये पुरुषे ये अश्मसु ।
य आविवेशौषधीर्यो वनस्पतींस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ।।"
(अथर्ववेद---३.२१.१--२)

अग्नि जल में विद्युत् के रूप में, मेघ में बिजली के रूप में, मनुष्य में स्फूर्ति के रूप में, नेत्र में तेज के रूप में, पत्थरों में चिंगारी के रूप में, वनस्पति में ऊष्मा के रूप में, पशु-पक्षियों में स्फूर्ति के रूप में, बैटरी-टार्च में प्रकाश के रूप में, घडी में गति के रूप में , शरीर में रक्त के रूप में वर्त्तमान है ।

वेदों में तीन अग्नियों का उल्लेख है, यह धार्मिक कृत्य के रूप में हैः---
(१.) गार्हपत्याग्नि,
(२.) आहवनीयाग्नि,
(३.) दक्षिणाग्नि ।

"पूर्वो अग्निष्ट्वा तपतु शं पुरस्ताच्छं पश्चात्तपतु गार्हपत्यः ।
दक्षिणाग्निष्टे तपतु शर्म वर्मोत्तरतो मध्यतो....।" (अथर्ववेद--१८.४.९)

"एकस्त्रेधा विहितो जातवेदः ।" (अथर्वेवेद--१८.४.११)

इन तीनों अग्नियों में से गार्हपत्य अग्नि सदैव प्रज्वलित रहती है, परन्तु आहवनीय और दक्षिणाग्नि बिना प्रज्वलित किए कोई भी याग नहीं हो सकता । इसलिए अग्नि की महत्ता सर्वाधिक है ।

अग्नि का मानवीय रूप भी वेदों में मिलता है । जैसे --- घृतपृष्ठ, घृतमुख, घृतकेश, हरितकेश आदि । अग्नि को वृषभ, अश्व, वत्स, दिव्य पक्षी आदि के रूप में प्रस्तुत किया गया है । अग्नि का भोजन काष्ठ और घृत है । उसका प्रिय पेय पदार्थ आज्यम् है । वह द्यावापृथिवी का पुत्र है । अग्नि यद्यपि पृथिवीस्थानीय देवता है, तथापि उसका जन्म स्थान स्वर्ग है । स्वर्ग से मातरिश्वा ने मानव कल्याण के लिए उसे धरातल पर आनयन किया । अग्नि का ज्ञान सर्वातिशायी है, वह सब कुछ जानता है । इसीलिए वह जातवेदाः है । वह अपने उपासकों का सदा कल्याण करता है और सहायक होता है । वह विशेष रूप स् सन्तान, गार्हस्थ-मंगल और सौख्य-समृद्धि का प्रदाता है । उसके सात मुँह और सात जिह्वा हैंः---

"सप्तास्यानि तव जातवेदस्तेभ्यो जुहोमि स जुषस्व हव्यम् ।।" (अथर्ववेदः--४.३९.१०)

मुण्डकोपनिषद् में अग्नि की सात जिह्वाएँ बताई गईं हैं । ये जिह्वाएँ हैं--- काली, कराली, मनोजवा (मन के समान वेग से उठने वाली), रक्त वर्ण वाली (सुलोहिता), धूम्रयुक्त (सुधुम्रवर्णा), चिंगारियों वाली (स्फुलिंगिनी), भिन्न-भिन्न रूपों वाली (विश्वरुची) आदि बताई गईं हैं---

"काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधुम्रवर्णा ।
स्फुलिंगिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः ।।"
(मुण्डकोपनिषद्---१.२.४)

कभी-कभी इन्द्र और अग्नि एक ही रथ पर साथ बैठकर चलते हैंः---

"स नः पितेव सूनवेSग्ने सुपायनो भव ।।" (ऋग्वेदः---१.१.९)

इसका अभिप्राय यही है कि इस मनुष्य शरीर रूपी रथ पर बैठकर इन्द्र अर्थात् परमात्मा और अग्नि अर्थात् जीवात्मा दोनों यात्रा करते हैं ।

अग्नि परमात्मा को भी कहते हैं, वह सबका पिता है---"स नः पितेव सूनवेSग्ने सुपायनो भव ।।" (ऋग्वेदः---१.१.९) वह हमें प्राप्त हो और हमारा कल्याण करे ।

श्री अरविन्द ने अग्नि शब्द से मानव में विद्यमान संकल्प शक्ति और विवेक अर्थ लिया है । इस संकल्प शक्ति को जागृत और विकसित करने के लिए ही शरीर में ज्ञानाग्नि को प्रदीप्त किया जाता है ।
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