Tuesday 16 May 2017

सप्त मर्यादाः

!!!---: जीवन की सात मर्याएँ :---!!!
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"सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामिदेकामभ्यंहुरोSगात् ।
आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीडे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ ।।"
(अथर्ववेदः--५.१.६)

शब्दार्थः----
कवयः---ऋषियों ने
सप्त---सात
मर्यादाः---मर्यादाएँ अर्थात् सीमाएँ
ततक्षुः---बनाई है,
तासाम्--उनमें से
एकाम्---एक को
इद्--भी
अभ्यगात्---को प्राप्त होता है, वह
अंहुरः---पापी होता है ।
स्कम्भः---स्कम्भरूप परमात्मा
उपमस्य---उपमीभूत
आयोः---मनुष्य के
नीडे---हृदयरूपी घोंसलें में
पथाम्---मार्गों की
विसर्गे---समाप्ति पर और
धरुणेषु---धारक वस्तुओं में
तस्थौ--स्थित है ।

भावार्थः----

(क) मनुष्य के जीवन के लिए वेद ने ७ मर्यादाएँ निश्चित की है । जिनका वर्णन यास्कमुनि ने निरुक्त में किया हैः---

(१.) स्तेय--चोरी,
(२.) तल्पारोहणम्--व्यभिचार
(३.) ब्रह्महत्या---नास्तिकता,
(४.) भ्रूणहत्या---गर्भघात
(५.) सुरापान---शराब पीना
(६.) दुष्टस्य कर्मणः---पुनः पुनः सेव । दुष्ट कर्म का बार-बार सेवन करना ।
(७.) पातकेSनृतोद्यम्---पाप करने के बाद उसे छिपाने के लिए झूठ बोलना ।

मर्यादा कहते हैं, सीमा को । कर्त्तव्य-शास्त्र की ये सात मर्यादाएँ (सीमाएँ) हैं । कर्त्तव्य-शास्त्र इन सीमाओं के अन्दर रहता है । इन सीमाओं का अतिक्रम न करना सत्कर्त्तव्य का कर्म है ।

(ख) इन मर्यादाओं में से एक का भी जो उल्लंघन करता है, वह पापी होता है ।

(ग) जो इन सातों मर्यादाओं में रहता है, वह परमात्मा का अधिक सदृश बन जाता है । परमात्मा में और उसमें परस्पर उपमानोपमेय भाव हो जाता है ।

(घ) परमात्मा की स्कम्भरूप अर्थात् भुवनप्रासाद का स्तम्भरूप है, वह उपमीभूत मनुष्य के हृदय-नीड में रहता है । इसी हृदय-मन्दिर में वह मर्यादाबद्ध मनुष्य परमात्मा का भजन और उसका प्रत्यक्ष कर सकता है ।

मनुष्य के हृदय में ही परमात्मा का भान क्यों होता है, इसके उत्तर के लिए ही मन्त्र में "उपमस्य" यह पद दिया है । जीवात्मा की उपमा परमात्मा से और परमात्मा की जीवात्मा से है । ये दोनों ही अप्राकृतिक है , प्रकृति से विलक्षण है । इसीलिए वेद तथा उपनिषदों में प्रकृति-वृक्ष पर बैठे दो पक्षियों से जीवात्मा और परमात्मा को रूपित किया गया है ।

रूपक का अभिप्राय यही है कि जीवात्मा और परमात्मा परस्पर सदृश हैं और प्रकृति से विलक्षण हैं । तभी तो जीवात्मा और परमात्मा में परस्पर सादृश्य अर्थात् उपमानोपमेय भाव है । जब साधारण जीवात्मा जो कि मनुष्य की देह है, परमात्मा के साथ सादृश्य रखता है, तब मनुष्य का वह आत्मा तो, जिसने कि सात मर्यादाओं में रहकर अपने आपको पवित्र कर लिया है, अवश्य ही परमात्मा का उपमीभूत होना चाहिए ।

(ङ) परमात्मा पथों की समाप्ति पर है । सभी धर्मग्रन्थों का केन्द्र-स्थान वेद है । इसी केन्द्र से धर्म के भिन्न-भिन्न पथ निकले हैं । इन सब पथों का विसर्ग अर्थात् समाप्ति वेद पर होती है । इसी समाप्ति पर परमात्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान सब धर्मग्रन्थों के केन्द्रीभूत वेदों द्वारा ही सम्भव है ।

"पथां विसर्गे" का एक और अभिप्राय भी सम्भव है । वेदों में जगत् और ब्रह्म में व्याप्यव्यापकता दिखलाई है । जगत् व्याप्य और ब्रह्म व्यापक है । ब्रह्म में जगत् व्यापक नहीं है । अपितु सम्पूर्ण जगत् ब्रह्म के एकदेश में विद्यमान रहता है । इसी आशय को अधिक स्पष्ट करने के लिए वेदों में ब्रह्म और जगत् दैशिक सत्ता का दृष्टान्त नीड और वृक्ष से दिया जाता है ।

उनमें ब्रह्म को वृक्ष और जगत् को नीड बताया है । नीड कहते हैं घोंसले को । घोंसला वृक्ष के एक देश पर आश्रित रहता है और वृक्ष घोंसले से बहुत बडा होता है । इसी प्रकार परमात्माी रूपी वृक्ष इस जगत् रूपी नीड का आश्रय है और जगत् बहुत बडा है ।

ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र , तारादिकों के समुदायों को ही जगत् कहते हैं । ये ग्रह, नक्षत्रादि अपने-अपने नियत पथों पर घूम रहे हैं ।इनमें से कोई भी विपथगामी नहीं होता । अतः जहाँ जहाँ जगत् की सत्ता है, वहाँ वहाँ हम पथों की सत्ता की कल्पना भी कर सकते हैं ।

परन्तु जहाँ जगत् की अन्तिम सीमा है, जिस से परे जगत् की सत्ता नहीं, वहाँ पृथिव्यादि के घूमने का कोई पथ भी नहीं, यह स्पष्ट है । वह स्थान "पथां विसर्गे" है । वहाँ पथों का विसर्ग अर्थात् समाप्ति हो जाती है । उससे आगे कोई पथ नहीं । परन्तु परमात्मा वहाँ भी विद्यमान है । अतः परमात्मा की स्थिति "पथां विसर्गे" पर भी है ।

(च) वह स्कम्भ रूप परमात्मा धारक पदार्थों में भी स्थित है । स्कम्भ का अर्थ है---धारण करने वाला, थामने वाला । परमात्मा के स्कम्भरूप का वर्णन अथर्ववेद (१०.७) में बहुत उत्तम शब्दों में किया है । सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र , तारा, वायु, , पृथिवी आदि पदार्थ संसार में धारक रूप से प्रसिद्ध है ।

ये सब प्राणी जगत् के तथा परस्पर के धारण करने वाले हैं । परमात्मा इन धारकों का भी धारक है । वह इन धारकों में भी स्कम्भरूप (धारकरूप) से स्थित है , अर्थात् संसार का मूलाधार या मूलधारक परमात्मा ही है । अतः भक्ति, उपासना और मनन इसी महान् शक्ति का करना चाहिए । चूंकि यह सर्वोच्च है, सर्वश्रेष्ठ है, सर्वाधार है ।
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