Sunday 26 June 2016

व्याकरण-शास्त्र की उत्पत्ति

!!!---: व्याकरण-शास्त्र की उत्पत्ति :---!!!
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भागः---एक

सम्पूर्ण सांसारिक व पारलौकिक विद्याओं का आदिमूल वेद है, क्योंकि वेद को सर्वज्ञानमय कहा गया है----"सर्वज्ञानमयो हि सः" (मनु-स्मृतिः--2.7)

व्याकरण का आदि मूल

इस सिद्धान्त के अनुसार व्याकरण-शास्त्र का भी मूल वेद ही है । इसी प्रकार सभी विद्याओं का आदि प्रवक्ता ब्रह्मा है । इस प्रकार व्याकरण का आदि प्रवक्ता भी ब्रह्मा ही है । वेदों में प्रारम्भिक वैयाकरणिक विषय मिलते हैं, ये व्युत्पत्ति के रूप में हैं, तद्यथा---

(1.) "यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः ।" (ऋग्वेदः--1.164.50)
यज्ञः कस्मात्---प्रख्यातं यजति कर्मेति नैरुक्ताः (निरुक्त--3.19)
अष्टाध्यायी--3.3.90 सूत्र से नङ् प्रत्यय

(2.) "ये सहांसि सहसा सहन्ते ।" (ऋग्वेद---6.66.9)
सह् धातोः असुन् प्रत्ययः (दशपादी-उणादि--9.49)

(3.) "पूर्वीरश्नन्तावश्विना ।" (ऋग्वेद---8.5.31)
अश्विनौ यद् व्यश्नुवाते सर्वम् (निरुक्त---12.1)

(4.) "स्तोतृभ्यो मंहते मघम् ।" (ऋग्वेद---1.11.3)
मघमिति धननामधेयम् , मंहतेर्दानकर्मणः । (निरुक्त--1.7)

(5.) "धान्यमसि धिनुहि देवान् ।" (यजुर्वेद---1.20)
धिनोतेर्धान्यम्--(महाभाष्यम्--5.2.4)

(6.) "केतपूः केतं नः पुनातु ।" (यजुर्वेदः--11.7)
केतोपपदात् पुनातेः क्विप् च अष्टाध्यायी---3.2.76 इति क्विप् ।

(7.) "येन देवाः पवित्रेणात्मानं पुनते सदा ।" (सामवेद, उ. 5.2.8.5)
पवित्रं पुनातेः । (निरुक्त---5.6) पुनातेः ष्ट्रन् (अ. 3.2.185)

(8.) "तीर्थेस्तरन्ति ।" (अथर्ववेद---18.4.8)
पञ्चपादी-उणादि---2.7 से स्थक्

(9.) "यददः सं प्रयतीरहावनदता हते । तस्मादा नद्यो नाम स्थ ।" (अथर्ववेद--3.13.1)
नद्यः कस्मान्नदना इमाः भवन्ति शब्दवत्यः ।(निरुक्त---2.24)

(10.) तदाप्नोदिन्द्रो वो यतीस्तस्मादापो अनुष्ठन ।" (अथर्ववेद---3.13.2)
आप आप्नोतेः । निरुक्त--9.26)

आचार्य पतञ्जलि ने भी व्याकरण-अध्ययन के प्रयोजन के अन्तर्गत कुछ मन्त्रों का पाठ किया है ।

"चत्वारि शृंगा" ((ऋग्वेद--4.58.3), "चत्वारि वाक्" (ऋग्वेद--1.164.45), "उतत्वः" (ऋग्वेद---10.71.4), सक्तुमिव" (ऋग्वेद---10.71.2), "सुदेवोसि" (ऋग्वेद---8.69.12)

इन पाँच मन्त्रों को उद्धृत किया है । इन मन्त्रों की व्याख्या उन्होंने व्याकरण परक की है ।

आचार्य यास्क ने भी "चत्वारि वाक्" (ऋग्वेद--1.164.45), को उद्धृत कर व्याकरणपरक व्याख्या लिखी है । "नामाख्याते चोपसर्गनिपाताश्चेति वैयाकरणाः ।" (निरुक्त---13.2)

व्याकरण जिस धातु से निष्पन्न होता है, उसके मूल अर्थ में प्रयोग यजुर्वेद---19.77 में उपलब्ध होता हैः---"दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः ।"

व्याकरण-शास्त्र की उत्पत्ति

व्याकरण-शास्त्र की उत्पत्ति का इतिहास ठीक-ठीक बताना दुष्कर है । इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि "वैदिक पदपाठों" (3200 वि.पू.) की रचना से पूर्व व्याकरण-शास्त्र अपनी पूर्णता को प्राप्त कर चुका था । प्रकृति-प्रत्यय ("वाजिनीवती" ऋग्वेद--1.3.10), धातु-उपसर्ग ("सम्जग्मानः" ऋग्वेद, पदपाठ--1.6.7) और समास-घटित पूर्वोत्तरपदों ("रुद्रवर्तिनी इति रुद्रवर्तनी" ऋग्वेद पदपाठ---1.3.3) का विभाग पूर्णतया निर्धारित हो चुका था ।

"वाल्मीकीय रामायण" से विदित होता है कि महाराज राम के काल में व्याकरण-शास्त्र का सुव्यवस्थित पठन-पाठन होता था । "नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् । बहु व्याहरतानेन न किञ्चिदपभाषितम् ।।" (किष्किन्धा--3.29) हनुमान् का इतना वाक्पटु होना युक्त ही था, क्योंकि हनुमान् का पिता वायु शब्दशास्त्र-विशारद था । (वायुपुराण---2.44)

भारत-युद्ध के समकालिक यास्कीय निरुक्त में व्याकरण प्रवक्ता अनेक वैयाकरणों का उल्लेख मिलता है । "न सर्वाणीति गार्ग्यो वैयाकरणानां चैके ।" (निरुक्त---1.12)

समस्त नाम शब्दों की धातुओं से उत्पत्ति दर्शाने वाला मूर्धाभिषिक्त शाकटायन व्याकरण भी यास्क से पूर्व बन चुका था । "तत्र नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च ।" (निरुक्त--1.12)

पतञ्जलि मुनि ने प्राचीन काल पढाए जाने वाले व्याकरणशास्त्र का उल्लेख किया है---"पुराकल्प एतदासीत् , संस्कारोत्तरकालं ब्राह्मणा व्याकरणं स्मधीयते ।" (महाभाष्य---1.1.1)


इन प्रमाणों से इतना तो निश्चित है कि व्याकरण-शास्त्र की उत्पत्ति अत्यन्त प्राचीन काल में हो गई थी । इतना भी निश्चित है कि व्याकरण शास्त्र अपने पूर्ण रूप में रामायण काल तक आ चुका था ।

शब्दशास्त्र के लिए व्याकरण शब्द का प्रयोग रामायण (3.29), गोपथ-ब्राह्मण (1.24), मुण्डकोपनिषद् (1.1) और महाभारत (उद्योग--43.61) आदि अनेक ग्रन्थों में मिलता है ।

षडङ्गों में व्याकरण सम्मिलित

शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, कल्प और ज्योतिष् इन छः वेदाङ्गों का "षडङ्ग" शब्द से निर्देश गोपथ-ब्राह्मण ("षडङ्गविदस्तत् तथाधीमहे" 1.27) बोधायन आदि धर्मशास्त्र और रामायाण ("नाषडङ्गविदत्रास्ति नाव्रतो नाबहुश्रुतः" बाल. 7.15) आदि में प्रायः मिलता है ।

पतञ्जलि मुनि ने भी "ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोध्येयो ज्ञेयश्चेति" (महाभाष्य--1.1.1) आगमवचन उद्धृत किया है । अति प्राचीन देवल ने व्याकरण की षडङ्गों में गणना की है ---"शिक्षाव्याकऱणनिरुक्तछन्दकल्पज्योतिषाणि"।

ब्राह्मण-ग्रन्थों में कहीं-कहीं "षडङ्ग" शब्द से आत्मा का भी ग्रहण किया है । जैसे---"षड्विधो वै पुरुषः षडङ्गः" (ऐतरेय-ब्राह्मण--2.39)



इसका द्वितीय भाग अतिशीघ्र ही प्रस्तुत करेंगे, जिसमें व्याकरणशास्त्र के प्रवक्ताओं का उल्लेख होगा ।
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