Monday 30 May 2016

मृत्यु का रहस्य

!!!---: मृत्यु का रहस्य :---!!!
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भूमिका
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कहते हैं मौत के बाद का जीवन किसी ने नहीं देखा। इसलिए मृत्यु से जुड़ा कोई भी विषय या घटना इंसान के सामने आती है तो वह उसे जानने के लिए आतुर हो जाता है। इस विषय को लेकर उसकी यह जिज्ञासा आजीवन बनी रहती है। असल में, मृत्यु क्या है और खासतौर पर मृत्यु के बाद क्या होता है। यह जान लेना किसी भी आम इंसान के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

परिचय
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प्राचीन धर्मशास्त्र कठोपनिषद में मृत्यु और आत्मा से जुड़े कई रहस्य बताए गए हैं, जिसका आधार बालक नचिकेता और यमराज के बीच हुए मृत्यु से जुड़े संवाद हैं। नचिकेता वह बालक था, जिसकी पितृभक्ति और आत्म ज्ञान की जिज्ञासा के आगे मृत्यु के देवता यमराज को भी झुकना पड़ा। विलक्षण बालक नचिकेता से जुड़ा यह प्रसंग न केवल पितृभक्ति, बल्कि गुरु-शिष्य संबंधों के लिए भी बड़ी मिसाल है।

प्रसंग के मुताबिक ऋषि वाजश्रवस (उद्दालक) नचिकेता के पिता थे। एक बार उन्होंने "विश्वजीत" नामक ऐसा यज्ञ किया, जिसमें सब कुछ दान कर दिया जाता है। दान के वक्त नचिकेता यह देखकर बेचैन हुआ कि पिता स्वस्थ गायों के बजाए कमजोर, बीमार गाएं दान कर रहें हैं। तीक्ष्ण व सात्विक बुद्धि का बालक नचिकेता ने समझ लिया कि पुत्र मोह के वशीभूत ही उनके पिता ऐसा कर रहे हैं।

पिता द्वारा पुत्र को मृत्यु को दान
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जीवन से दुःख को विदा करना है तो एक तरीका ये भी है :--- बड़ा पाप मोह दूर कर धर्म-कर्म करवाने के लिए ही नचिकेता ने पिता से सवाल किया कि आप मुझे किसे देंगे ? उद्दालक ऋषि ने इस सवाल को टाला, पर नचिकेता नहीं माना। उसने वही सवाल बार-बार पूछा इससे क्रोधित ऋषि ने कह दिया कि तुझे मृत्यु (यमराज) को दूंगा। पिता को यह बोलने का दु:ख भी हुआ, लेकिन सत्य की रक्षा के लिए नचिकेता ने मृत्यु को दान करने का संकल्प पिता से पूरा करवाया।

मृत्यु के बाद क्या होता है
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यम के यहां पहुंचने पर नचिकेता को पता चला कि यमराज वहां नहीं है। फिर भी उसने हार नही मानी और तीन दिन तक वहीं पर बिना खाए-पिए डटा रहा। यम ने लौटने पर द्वारपाल से नचिकेता बारे में जाना तो उस बालक की पितृभक्ति और कठोर संकल्प से बहुत खुश हुए। यमराज ने नचिकेता को पिता की आज्ञा का पालन व तीन दिन तक कठोर प्रण करने के लिए तीन वर मांगने के लिए कहा।

तीन वरदान
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तब नचिकेता ने पहला वर पिता का स्नेह मांगा। दूसरा अग्नि विद्या जानने बारे में था। तीसरा वर मृत्यु रहस्य और आत्मज्ञान को लेकर था। यम ने आखिरी वर को टालने की भरपूर कोशिश की। साथ ही, उसके बदले नचिकेता को कई सांसारिक सुख-सुविधाओं को देने का लालच दिया।

"शतायुषः पुत्रपौत्रान्वृणीष्व बहून्पशून्हस्तिहिरण्यमश्वान् ।
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ।।"
(कठौपनिषद्---1.23)

नचिकेता के आत्मज्ञान जानने के इरादे इतने पक्के थे कि वह अपने सवालों पर टिका रहा। नचिकेता ने नाशवान कहकर भोग-विलास की सारी चीजों को नकार दिया और शाश्वत आत्मज्ञान पाने का रास्ता ही चुना। आखिरकार, विवश होकर यमराज को मृत्यु के रहस्य, जन्म-मृत्यु से जुड़ा आत्मज्ञान देना पड़ा।

क्या है आत्मा का स्वरूप ?
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यमदेव के मुताबिक शरीर का नाश होने के साथ आत्मा का नाश नहीं होता। आत्मा का भोग-विलास, नाशवान, अनित्य और जड़ शरीर से कोई लेना-देना नहीं है। यह अनंत, अनादि और दोष रहित है। इसका न कोई कारण है, न कोई कार्य यानी इसका न जन्म होता है, न ये मरती है।

"न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोSयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।"
(कठोपनिषद्--2.18)

किस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान व दर्शन ?
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मनुष्य शरीर दो आंखं, दो कान, दो नाक के छिद्र, एक मुंह, ब्रह्मरन्ध्र, नाभि, गुदा और शिश्न के रूप में 11 दरवाजों वाले नगर की तरह है। अविनाशी, अजन्मा, ज्ञानस्वरूप, सर्वव्यापी ब्रह्म की नगरी ही है। वे मनुष्य के हृदय रूपी महल में राजा की तरह रहते हैं। इस रहस्य को समझ जो मनुष्य जीते जी ओम् का ध्यान और चिंतन करता है। वह शोक में नहीं डूबता, बल्कि शोक के कारण संसार के बंधनों से छूट जाता है। शरीर छूटने के बाद विदेह मुक्त यानि जन्म-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है। उसकी यही अवस्था सर्वव्यापक ब्रह्म रूप है।

"पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतसः ।
अनुष्ठाय शोचति विमुक्तश्च विमुच्यते, एतद्वै तत् ।।"
(कठोपनिषद्--5.1)

क्या आत्मा मरती या मारती है ?
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वे लोग जो आत्मा को मारने वाला या मरने वाला माने वे असल में आत्म स्वरूप को नहीं जानते और भटके हुए हैं। उनके बातों को नजर अंदाज करना चाहिए, क्योंकि आत्मा न मरती है, न किसी को मार सकती है।

"हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतौ नाSयं हन्ति न हन्यते ।।"
(कठोपनिषद्--2.19)


क्या होते हैं आत्मा-परमात्मा से जुड़ी अज्ञानता व अज्ञानियों के परिणाम ?
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पर्वत की ऊँची चोटियों पर बरसा हुआ पानी जैसे पर्वत के भिन्न-भिन्न भागों में नाले बनकर दौडने लगते हैं, एक ही पानी अनेक धाराओं में बह निकलता है और लोग समझते हैं कि ये जल एक नहीं अनेक हैं, इस प्रकार इन्द्रियों के भिन्न-भिन्न धर्मों को देखकर मनुष्य समझने लगता है कि संसार में एकता नहीं, अनेकता है और उस अनेकता को पाने के लिए उसके पीछे दौडने लगता है ।

"यथोदेकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति ।
एवं धर्मान्पृथक् पश्यंस्तानेवाSनुविधावति ।।"
(कठोपनिषद्---4.14)


जैसे शुद्ध जल को शुद्ध जल में डाल दें, तो वह शुद्ध रहता है, अशुद्ध में डाल दें, तो अशुद्ध हो जाता है, इसी प्रकार शुद्ध आत्मा शुद्ध-स्वरूप परमात्मा के साथ मिल जाय, तो शुद्ध-स्वरूप हो जाता है, अशुद्ध संसार में मिल जाय, तो अशुद्ध-स्वरूप हो जाता है । हे गौतम ! आत्मा की ऐसी ही गति है ।।

"यथोदकं शुद्धे शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति ।
एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम ।।"
(कठोपनिषद्----4.15)


कैसा है ब्रह्म का स्वरूप यानी वह कहां और कैसे प्रकट होते हैं ?
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ब्रह्म प्राकृतिक गुण से परे, स्वयं दिव्य प्रकाश स्वरूप अन्तरिक्ष में प्रकट होने वाले वसु नामक देवता है। वे ही अतिथि के तौर पर गृहस्थों के घरों में उपस्थित रहते हैं, यज्ञ की वेदी में पवित्र अग्रि और उसमें आहुति देने वाले होते हैं। इसी तरह सारे मनुष्यों, श्रेष्ठ देवताओं, पितरों, आकाश और सत्य में स्थित होते हैं। जल में मछली हो या शंख, पृथ्वी पर पेड़-पौधे, अंकुर, अनाज, औषधि तो पर्वतों में नदी, झरनों और यज्ञ फल के तौर पर भी ब्रह्म ही प्रकट होते हैं। इस तरह ब्रह्म प्रत्यक्ष, श्रेष्ठ और सत्य तत्व हैं।

आत्मा के जाने पर शरीर में क्या रह जाता है ?
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एक शरीर से दूसरे शरीर में आने-जाने वाली जीवात्मा जब वर्तमान शरीर से निकल जाती है। उसके साथ जब प्राण व इन्द्रिय ज्ञान भी निकल जाता है, तो मृत शरीर में क्या बाकी रहता है। यह नजर तो कुछ नहीं आता, किंतु असल में वह परब्रह्म उसमें रह जाता है। हर चेतन और जड़ प्राणी व प्रकृति में सभी जगह, पूर्ण शक्ति व स्वरूप में हमेशा मौजूद होता है।

"अस्य विस्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिनः ।
देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते, एतद्वै तत् ।।"
(कठोपनिषद्---5.4)

मृत्यु के बाद जीवात्मा को क्यों और कौन-सी योनियां मिलती हैं ?
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यमदेव के मुताबिक अच्छे और बुरे कामों और शास्त्र, गुरु, संगति, शिक्षा और व्यापार के जरिए देखे-सुने भावों से पैदा भीतरी वासनाओं के मुताबिक मरने के बाद जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश करती है। इनमें जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं। वे मनुष्य का और जिनके पुण्य से भी ज्यादा पाप होते हैं, वे पशु-पक्षी के रूप में जन्म लेते हैं। जो बहुत ज्यादा पाप करते हैं, वे पेड़-पौधे, लता, तृण या तिनके, पहाड़ जैसी जड़ योनियों में जन्म लेते हैं।

"योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः ।
स्थाणुमन्येSनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ।।"
(कठोपनिषद्---5.7)

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