Monday 23 May 2016

अग्नि के प्रथम आविष्कारक--अथर्वन्

!!!---: अग्नि के प्रथम आविष्कारक--अथर्वन् :---!!!
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हे अग्ने , ऋषि अथर्वन् ने कमल से मन्थन करके पुरोहित विश्व के सिर से तुम्हारा आविर्भाव किया । "त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत । मूर्ध्नो विश्वस्य वाघतः ।।" (ऋग्वेदः--6.16.13)

इस मन्त्र में दो अरणियों की रगड से अग्नि प्रकट होने की बात कही गई है ।

अथर्वन् द्वारा आनिर्भूत हे अग्ने, आप सभी स्तवनों के ज्ञाता हैं । आप विवस्वत् के दूत हैं, यम के प्रिय सुहृद् हैं । यह स्तवन् आपकी प्रसन्नता के लिए है । आप समर्थ हैं । "अग्निर्जातो अथर्वणा विदद् विश्वानि काव्या ।
भूवद्दूतो विवस्वतो वि वो मदे प्रियो यमस्य काम्यो विवक्षसे ।।" (ऋग्वेदः--10.21.05)

इस मन्त्र में भी अथर्वा द्वारा अग्नि उत्पन्न करने की बात कही गई है ।

हे अग्ने, विद्वान् आपका मन्थन करते हैं, वैसा कि अथर्वन् ने किया था । रात्रि के अन्धतमस् से, अनिश्चित रूप से विचरण करने वाले अग्नि का आविर्भाव अथर्वन् ने विस्मयान्वित हुए विना करते हैं । "इममु त्यमथर्ववदग्निं मन्थन्ति वेधसः ।
यमङ् कूयन्तमानयन्नमूरं श्याव्याभ्यः ।।" (ऋग्वेदः---6.15.17)

इस मन्त्र में भी अथर्वा द्वारा अग्नि उत्पन्न करने की बात कही गई है ।

अथर्वन् , जिनको अंगिरस् या अथर्वाङ्गिरस भी कहा जाता है, अग्नि के प्रथम आविष्कारक हैं । अगर मानव को सचमुच ही किसी आविष्कार पर गर्व हो सकता है, तो यह अग्नि का ही आविष्कार है । सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण इस आविष्कार का ठीक-ठीक मूल्यांकन आज कठिन है , जब अग्नि आज सर्वसाधारण हो चुकी है और उसे पैदा करने के हमारे साधन इतने आसान हैं । किन्तु जरा उन दिनों की बात सोचिए, जब इस धरती पर अग्नि का आविर्भाव नहीं हुआ था और जब प्रकाश और ऊष्मा केवल सूर्य से ही प्राप्त होती थी । अग्नि के पहले आविष्कर्त्ता के जीवन सम्बन्धी ब्योरे हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं । हम उसके कई नामों से परिचित हैं । इनमें अथर्वन् या अथर्वा उनका निजी नाम है और अग्नि का आविष्कर्त्ता होने के कारण उनका नाम अंगिरस् भी पड गया । उनके नाम पर अग्नि का मन्थन करने वालों की पूरी-की-पूरी जाति आंगिरस नाम से विख्यात हुई, जिसका सम्बन्ध ऋग्वेद की विभिन्न ऋचाओं से हैं ।

मन्थन या रगडकर आग सबसे पहले अथर्वा ने ही प्राप्त की थी----

"पुरीष्योसि विश्वम्भराअथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने ।
त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत । मूर्ध्नो विश्वस्य वाघतः ।।"
(यजुर्वेदः---11.32)

ग्रिफिथ ने इसका इस तरह अनुवाद किया---

"आप पुरीष्य (पसु-पोषक) हैं, विश्व भर के आश्रय हैं, अथर्वन् ने ही हे अग्ने, सबसे पहले आपका मन्थन किया था, हे अग्ने , अथर्वन् ने कमल से मन्थन करके पुरोहित विश्व के सिर से तुम्हारा आविर्भाव किया ।

आग की खोज से पहले मनुष्य असहाय थे । इस असहाय और निराश अवस्था के बीच यजुर्वेद की इस आशापूर्ण वाणी में किसी की ध्वनि गूँज उठी----

"स्वर्ग तुम्हारी पीठ पर है, धरती तुम्हारा आधार है, वायु तु्म्हारी आत्मा है और समुद्र तुम्हारी योनि है ः----

"दद्यौस्ते पृष्ठं पृथिवी सधस्थमात्मान्तरिक्षं समुद्रो योनिः ।
विख्याय चक्षुषा त्वमसि तिष्ठ पृतन्यत ।।"
(यजुर्वेदः--11.20)

उसने यह सलाह सुनी । मनुष्य ने न केवल लकडी से आग का मन्थन किया, उसने उसे धरती से खोदकर, पत्थरों में से , वज्र (चकमक पत्थर) से भी निकाला ।
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