Friday 5 February 2016

निरुक्त नामक वेदांग

!!!---: निरुक्त नामक वेदांग :---!!!
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निरुक्त वेदपुरुष का श्रोत्र है---"निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।" सम्प्रति उपलब्ध निरुक्त यास्ककृत है । इस निरुक्त का आधार ग्रन्थ निघण्टु है । इसका कर्त्ता भी यास्क ही माने जाते है । इसे वैदिक कोष माना जाता है ।

निघण्टु में पाँच अध्याय है । इन्हें तीन भागों में बाँटा गया है । इसके आदि के तीन अध्यायों को (1.) "नैघण्टुक-काण्ड", चौथे अध्याय को (2.) "नैगमकाण्ड" (ऐकपदिककाण्ड) और अन्तिम पाँचवे अध्याय को (3.) "देवतकाण्ड" कहा जाता है ।

इसके प्रथम अध्याय में 17 खण्ड, 407 शब्द, द्वितीय में 22, 452 शब्द, तृतीय में 30, 402 शब्द, चतुर्थ में 3, 281 शब्द और पञ्चमाध्याय में 6 खण्ड, 151 शब्द हैं । इस प्रकार निघण्टु में वेद के कुल 1863 शब्दों का संग्रह है । निघण्टु पर एक ही व्याख्या उपलब्ध होती है--"निघण्टु-निर्वचनम्" । इसके कर्त्ता देवराज यज्वा हैं । इसकी व्याख्या अतीव प्रामाणिक और उपादेय है ।

निरुक्त का महत्त्व
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व्याकरण और कल्प की तुलना में निरुक्त अधिक महत्त्वपूर्ण है । व्याकरण से केवल शब्द का ज्ञान होता है और कल्प से केवल मन्त्रों के विनियोग का ज्ञान होता है, किन्तु निरुक्त से शब्दों के अर्थ का ज्ञान होता है । अर्थ-ज्ञान के पश्चात् ही यज्ञों में मन्त्रों का विनियोग होता है । अर्थ-ज्ञान के पश्चात् शब्द-ज्ञान सरल हो जाता है ।

निरुक्त का लक्षण
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आचार्य सायण के अनुसार निरुक्त का लक्षण हैः---

"अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम् ।"

अर्थः---अर्थ-ज्ञान के विषय में, जहाँ स्वतन्त्र रूप से पदसमूह का कथन किया गया है, वह "निरुक्त" कहलाता है । यास्क ने स्वयमेव निरुक्त और व्याकरण के सम्बन्ध को स्पष्ट किया हैः---

"तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य कार्त्स्न्यम् ।" (निरुक्त--1.5)

इससे ज्ञात होता है कि व्याकरण और निरुक्त का घनिष्ठ सम्बन्ध है । वस्तुतः निरुक्त के ज्ञान के लिए व्याकरण का ज्ञान होना आवश्यक है । यास्क ने आचार्यों को सावधान किया है कि जिसे व्याकरण न आता हो, उसे निरुक्त न पढायें--

"नावैयाकरणाय.....निर्ब्रूयात् ।" (निरुक्त--2.1.4)

निरुक्त का प्रतिपाद्य विषय है---वैदिक शब्दों का निर्वचन । यह निरुक्ति पाँच प्रकार से होती हैः---

"वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ ।
धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् ।।"

(1.) वर्णागम के द्वारा---शब्द के निर्वचन के समय यदि किसी अन्य वर्ण की आवश्यकता पडे तो उसे ले लेना चाहिए, मूल धातु में वह वर्ण न हो तो भी , जैसे--वार--द्वार ।

(2.) वर्णविपर्यय के द्वारा---शब्द के निर्वचन में वर्णों को आगे या पीछे उद्देश्य के अनुसार कर लेना चाहिए । जैसे--द्योतिष्---ज्योतिष् । कसिता---सिकता ।

(3.) वर्णविकार के द्वारा---मूल शब्दों के उच्चारण में परिवर्तन करके, जैसे---वच--उक्तिः ।

(4.) वर्णनाश के द्वारा---मूल धातु में किसी वर्ण का लोप करके---अस्---स्तः, दा---प्रत्तम्, गम्--गत्वा, राजन्---राजा, गम्--जग्मुः, याचामि--यामि ।

(5.) धातु का अर्थ बढा कर---धातु का उससे भिन्न अर्थ के साथ योग ।

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निरुक्त का परिचय
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निरुक्त में कुल 14 अध्याय हैं । अन्तिम के दो अध्याय परिशिष्ट माने जाते हैं । निरुक्त के भी तीन ही विभाग किए गए हैंः--

(1.) नैघण्टुक-काण्ड
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निरुक्त के भी प्रारम्भ के तीन अध्यायों को "नैघण्टुक-काण्ड" ही कहा जाता है । इसके प्रथम अध्याय में यास्क ने पद के चार भेद माने हैं--नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात । निरुक्त के द्वितीय और तृतीय अध्यायों में पर्यायवाची शब्दों का निर्वचन किया गया है । इनमें 1341 पद हैं, जिनमें यास्क ने 350 पदों की निरुक्ति की है ।

(2.) नैगमकाण्ड
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निरुक्त के चौथे-पाँचवें अध्याय को "नैगमकाण्ड" कहा जाता है । इसे "ऐकपदिक" भी कहते हैं । इन अध्यायों में तीन प्रकार के शब्दों का निर्वचन हुआ हैः--

(क) एक अर्थ में प्रयुक्त अनेक शब्द (पर्यायवाची शब्द), (ख) अनेक अर्थों में प्रयुक्त एक शब्द (अनेकार्थक शब्द), (ग) ऐसे शब्द, जिनकी व्युत्पत्ति (संस्कार) ज्ञात नहीं है (अनवगतसंस्कार शब्द) । इनमें कुल 179 पद हैं ।

(3.) दैवतकाण्ड
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निरुक्त के सात से बारह अध्यायों को "दैवतकाण्ड" कहा जाता है । इस काण्ड में वेद में प्रधान रूप से स्तुति किए गए देवताओं के नामों का निर्वचन है । इनमें कुल 155 पद हैं ।
इस प्रकार 12 अध्यायों में कुल 1675 पद हैं ।

निरुक्त में तीन प्रकार के देवता कहे गए हैं---
(क) पृथिवीस्थानीय देवता---अग्नि ।
(ख) अन्तरिक्षस्थानीय देवता---इन्द्र या वायु ।
(ग) द्युस्थानीय देवता--सूर्य ।

(4.) परिशिष्ट
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निरुक्त के तेरहवें और चौदहवें अध्याय को परिशिष्ट माना जाता है । इनमें अग्नि की स्तुति और ब्रह्म की स्तुति है ।

निरुक्त का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है कि सभी नाम शब्द धातुज हैं--"सर्वाणि नामानि आख्यातजानि ।"

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बारह निरुक्तकार
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दुर्गाचार्य ने 14 निरुक्तकारों का उल्लेख किया है--निरुक्तं चतुर्दशप्रभेदनम् । निरुक्त में स्वयं यास्क ने 12 निरुक्तकारों का उल्लेख किया हैः---(1.) अग्रायण, (2.) औपमन्यव, (3.) औदुम्बरायण, (4.) और्णवाभ, (5.) कात्थक्य, (6.) क्रौष्टुभि, (7.) गार्ग्य, (8.) गालव, (9.) तैटीकि, (10.) वार्ष्यायणि, (11.) शाकपूणि, (12.) स्थौलाष्ठीवि । तेरहवें निरुक्तकार स्वयम् आचार्य यास्क हैं । चौदहवाँ निरुक्तकार कौन है, इसका उल्लेख नहीं है ।

वेदार्थ के अनुशीलन के आठ पक्ष---
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(क) अधिदैवत, (ख) अध्यात्म, (ग) आख्यान-समय, (घ) ऐतिहासिकाः, (ङ) नैदानाः, (च) नैरुक्ताः, (छ) परिव्राजकाः, (ज) याज्ञिकाः ।

टीकाकार
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निरुक्त पर अनेक व्याख्याएँ लिखी गईं हैं---

(1.) दूर्गाचार्यः--
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इन्होंने निरुक्त पर एक वृत्ति लिखी थी, जिसे दुर्गवृत्ति कहा जाता है । यह विद्वत्तापूर्ण और प्रामाणिक टीका है । इनके बारे में बहुत अल्प जानकारी मिलती है । ये कापिष्ठल शाखाध्यायी वसिष्ठगोत्री ब्राह्मण थे । अनुमान के आधार पर ये गुजरात अथवा काश्मीर के वासी थे । इस वृत्ति की सबसे प्राचीन हस्तलिखित प्रति 1444 वि.सं. की है ।

(2.) स्कन्द महेश्वरः---
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ये दुर्गाचार्य से प्राचीन टीकाकार हैं । इनकी टीका लाहौर से प्राप्त हुई है । यह टीका अतीव पाण्डित्यपूर्ण है । इन्होंने ऋग्वेद पर एक भाष्य लिखा था । ये गुजरात के वल्लभी के रहने वाले थे ।

(3.) निरुक्त-निचय--इसके रचयिता वररुचि हैं ।

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