Sunday 31 January 2016

कल्प-ग्रन्थ

!!!---: कल्प नामक वेदाङ्ग :---!!!
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कल्प नामक वेदांग का वेदांगों में विशिष्ट स्थान है , क्योंकि ये वेद की प्रत्येक शाखा के अपने-अपने ब्राह्मण और आरण्यक आदि की भाँति ही वेद की प्रत्येक शाखा के के पृथक्-2 कल्पसूत्र है ।

कल्पसूत्र का अर्थः---
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विभिन्न वैदिक शाखाओं के ब्राह्मण-ग्रन्थों में विहित कर्मों का व्यवस्थित वर्णन करने वाला वेदांग कल्प कहा जाता है ब्राह्मणों के याज्ञिक विधानों को कल्प कहा जाता है । विष्णुमित्र ने कल्प का लक्षण दिया है--
"कल्पो वेदविहितानां कर्मणामानुपूर्व्येण कल्पनाशास्त्रम् ।" (ऋग्वेद-प्रातिशाख्य) अर्थात् वेद में विहित कर्मों का क्रमपूर्वक व्यवस्थित कल्पना करने वाला शास्त्र ।

कल्पसूत्र चार प्रकार के होते हैंः---
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(1.) श्रौतसूत्र, (2.) धर्मसूत्र, (3.) गृह्यसूत्र, (4.) शुल्वसूत्र ।

(1.) श्रौतसूत्रः---
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वेदों में मूल रूप में जिन यागों का वर्णन है, उसका श्रौत-सूत्र में विस्तार से वर्णन करना इसका मुख्य उद्देश्य है । इनमें याज्ञिक विधि-विधानों का विस्तृत विवेचन है । वैदिक यागों को श्रौत-याग कहते हैं । ये यज्ञ अनेक पुरोहितों द्वारा किए जाते थे । इन यज्ञों में आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि का प्रयोग किया जाता था । ये कुल 14 याग होते थे, जिनमें सात हविर्याग और सात सोमयाग होते थे ।
हविर्यागः--हविर्यागों में घृत, पायस, दधि, पुरोडाश आदि की आहुतियाँ दी जाती थीं । सात हविर्याग ये हैं--अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रहायण, चातुर्मास्य, निरूढपशुबन्ध और सौत्रामणी ।
सोमयाग--इसमें सोमरस देवताओं के लिए समर्पित किया जाता था । सात सोमयाग ये हैं--अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम ।

उपलब्ध श्रौतसूत्रः---
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(क.) ऋग्वेदः--(1.) आश्वलायन, (2.) शांखायन (कौषीतकि),
(ख) शुक्लयजुर्वेदः--(3.) कात्यायन,
(ग) कृष्णयजुर्वेदः--(4.) बोधायन, (5.) आपस्तम्ब, (6.) हिरण्यकेशी (सत्याषाढ), (7.) भारद्वाज, (8.) वैखानस, (9.) मानव (मैत्रायणीय), (10.) वाराह,
(घ) सामवेदः--(11.) आर्षेय, (12.) लाट्यायन, (13.) द्राह्यायन, (14.) जैमिनीय ।
(ङ) अथर्ववेदः--(15.) वैतान ।

(2.) गृह्यसूत्रः---
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गृह्यसूत्रों का महत्त्व लोकजीवन की दृष्टि से है । इनका सम्बन्ध गृह में होने वाले यज्ञों और संस्कारों से है । ये गृहस्थाश्रम की आचारसंहिता है । इसमें पञ्चमहायज्ञों का वर्णन विस्तार से है--(1.) ब्रह्मयज्ञ (सन्ध्या), (2.) देवयज्ञ (अग्निहोत्र), (3.) पितृयज्ञ, (4.) भूतयज्ञ (बलिवैश्वदेवयज्ञ), (5.) अतिथियज्ञ (नृयज्ञ) ।

मनुष्य जीवन में होने वाले 16 संस्कारों का वर्णन भी इनमें प्राप्त होता है । इनमें गृहनिर्माण की विधि का भी विधान है । गृह्यसूत्र ये हैं---(क) ऋग्वेदः--
(1.) आश्वलायन, (2.) शांखायन,
(ख) शुक्लयजुर्वेदः--(3.) पारस्कर,
(ग) कृष्णयजुर्वेदः---(4.) बोधायन, (5.) मानव, (6.) भारद्वाज, (7.) आपस्तम्ब, (8.) हिरण्यकेशी, (9.) वैखानस, (10.) वाधूल, (11.) काठक, (12.) वाराह
(घ) सामवेदः--(13.) गोभिल, (14.) खादिर, (15.) जैमिनीय,
(ङ) अथर्ववेदः--(16.) कौशिक,,

(3.) धर्मसूत्रः---
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यहाँ "धर्म" से तात्पर्य है--कर्त्तव्य और परम्परा । पूर्वोक्त गृह्यसूत्रों में जिस प्रकार व्यक्ति के घरेलू जीवन और गृह्य संस्कारों का विवेचन है, उसी प्रकार व्यक्ति के सामाजिक जीवन और सामाजिक आचार-व्यवहार का विवेचन धर्मसूत्रों में है । इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों के कर्त्तव्य-कर्मों के विवेचन के साथ राजाओं के कर्त्तव्य-कर्म भी दिए गए हैं ।

उपलब्ध धर्मसूत्रः--(क) ऋग्वेदः--(1.) वसिष्ठ,
(ख) कृष्णयजुर्वेदः---(2.) आपस्तम्ब, (3.) बोधायन, (4.) हिरण्यकेशी,
(ग) सामवेदः--(5.) गौतम ।

धर्मसूत्रों में गौतम सर्वाधिक प्राचीन है । कुमारिल भट्ट ने इसे सामवेद का धर्मसूत्र माना है । इसमें कुल 28 अध्याय हैं । भट्ट के अनुसार ही वसिष्ठ का सम्बन्ध ऋग्वेद से है । इसके अतिरिक्त अन्य अर्वाचीन धर्मसूत्र भी है--विष्णुधर्मसूत्र, हारीतधर्म सूत्र-यजुर्वेद से सम्बद्ध और शंखधर्मसूत्र--यजुर्वेद से सम्बद्ध परवर्ती रचना ।

(4.) शुल्वसूत्रः---
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"शुल्व" शब्द का अर्थ है---"नापने की रस्सी ।" ये शुल्वसूत्र क्रियात्मक है । इनमें वेदिका और मण्डप आदि के निर्माण के लिए उचित लम्बाई-चौडाई और उनके बनाने की विधि का विवरण है । इस दृष्टि से ज्यामितीय गणित का आविष्कार भारत में हुआ था । आजकल भारतीय राजमिस्त्री शुल्व के लिए सूल (शूल) शब्द का प्रयोग करते हैं । उपलब्ध शुल्वसूत्रः---(क) शुक्लयजुर्वेदः--(1.) कात्यायन,
(ख) कृष्णयजुर्वेदः--(2.) बोधायन, (3.) आपस्तम्ब, (4.) मानव, (5.) मैत्रायणीय, (6.) वाराह, (7.) वाधूल
शुल्वसूत्रों में बोधायन सबसे बडा प्राचीनतम है ।

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