Sunday 2 July 2017

योग के आठ अङ्ग

योग शब्द युजिर् योगे धातु से बना है,जिसका अर्थ है जुडना। किससे- परमात्मा से जुडना। एक युज समाधौ धातु भी है अर्थात् परमात्मा में एकाकार हो जाना—“योगः समाधिः। स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः।” (यो.द. व्यास भाष्य १.१)
योग समाधि है और वह समाधि चित्त की सब क्षिप्तादि भूमियों (अवस्थाओं) में सिद्ध हुआ चित्त (मन) का धर्म (गुण) है।
मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है, अर्थात् दुःखों से छूटकर परमानन्द प्राप्त करना।
इन्हीं बातों को लेकर सहृदयी पतञ्जलि महामुनि दुःखी लोगों के लिये दुःख से छूटने उपाय बताये हैं। उसका आधार योग है।
योग के आठ अङ्ग होते हैं——(१.) यम, (२.) नियम,  (३.) आसन, (४.) प्राणायाम, (५.) प्रत्याहार, (६.) धारणा, (७.) ध्यान,  (८.) समाधि।
“यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयो अष्टावङानि।।” ( योगदर्शन—२.२९) ।।
प्रथम योगांग यम है।
यमों की अपरिहार्यता==============
यम-नियमादि के पालन करने में यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि यमों के बिना नियमों का पालन करना बाह्यप्रदर्शन होने के कारण पतन की संभावना बनी रहती है। अतः यमों का नित्य पालन करना चाहिए। मनु महाराज (४.२०४) का वचनः—-
यमान् सेवेत सततं न नियमान् केवलान् बुधः।
यमान् पतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन्।।
(मनु महाराज (४.२०४)
यमों के बिना केवल इन नियमों का सेवन न करे, किन्तु इन दोनों का सेवन किया करें। जो यमों का सेवन छोडकर केवल नियमों का सेवन करता है, वह उन्नति को प्राप्त नहीं होता, किन्तु अधोगति (संसार) में गिरा रहता है।
(१.) यमः
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योग-मार्ग के पथिक के लिए यम प्रथम सोपान है। यम को महाव्रत कहा गया है—(जाति——-महाव्रतम्)। ये यम जाति, देश, काल की सीमाओं से न बँधने वाले सार्वभौम मानव की उन्नति के मूल व्रत है।

यम शब्द यद्यपि शास्त्रीय पारिभाषिक है, पुनरपि अपने मूल धात्वर्थ को साथ लिए हुए है। “यमु उपरमे” धातु से यम शब्द बनता है,जिसका अर्थ है कि अपनी चित्तवृत्तियों को बाह्यविषयों से रोककर नियन्त्रित करना और समाधि सिद्धि के लिए अग्रसर होना। इन यमों के मूल में अहिंसा वैसे ही सबका मूल है, जैसे अविद्या सब क्लेशों का मूल है। अहिंसा का विरोधी शब्द हिंसा है। हिंसा में मनुष्य स्वार्थवश प्रवृत्त होता है उसकी पूर्ति के लिए असत्यभाषण,चोरी, परिग्रहादि कारयों में प्रवृत्त होता है। हिंसा का कारण वैर-भावना है, वह भी स्वार्थवश होती है। अतः स्वार्थी व्यक्ति योगी कभी नहीं बन सकता। स्वार्थ का त्याग करना अत्यावश्यक है।
यम पाँच प्रकार का होता हैः—–
(क) अहिंसा, (ख) सत्य, (ग) अस्तेय, (घ) ब्रह्मचर्य, (ङ) अपरिग्रहः
“अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।।” (योगदर्शन– २.३०) ।।
(क) अहिंसाः—-
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अहिंसा पर आचार्य वेद व्यास लिखते हैं— उन पाँच यमों में अहिंसा का लक्षण है—सर्वथा सब प्रकार से शरीर, वाणी और मन से सर्वदा सब कालों में पीडा देने की भावना का त्याग करना अथवा वैर-भाव न रखना। शेष चारों यम अहिंसा पर ही आश्रित है अर्थात् बिना अहिंसा के यम की सिद्धि नहीं हो सकती। अहिंसा की सिद्धि करना ही मुख्य उद्देश्य है। अहिंसा को निर्दोष करना अर्थात् शुद्ध-स्वरूप को बताने के लिये यम-नियमादि को ग्रहण किया जाता हैः—-
“तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः। 
उत्तरे च यमनियमास्तन्मूलास्तत्सिद्धिपरतयैव तत्प्रतिपादनाय प्रतिपाद्यन्ते। 
तदवदातरूपकरणायैवोपादीयन्ते——।।” (व्यास भाष्य, योगदर्शन–२.३०)
सब प्रकार से सब कालों में प्राणिमात्र को दुःख न देना अहिंसा है। किसी प्राणि के प्रति द्रोह करना , ईर्ष्या करना, क्रोध करना आदि समस्त व्यवहार हिंसामूलक होता है। हिंसारत पुरुष को कहीं शान्ति नहीं मिल सकती।
मनु महाराज ने कहा हैः—–नहि वैरेण वैराणि प्रशाम्यन्ति कदाचन।
वैर भावना रखने से शत्रुता कभी खत्म नहीं हो सकती और वैरभावना मानसिक अशान्ति का मूल है। इसलिए योगाभ्यासी को हिंसावृत्ति को छोड देना चाहिए। उसका व्यवहार इस प्रकार का होना चाहिएः—-
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्। (योगदर्शन–१.३३)
अर्थात् साधक को चाहिए कि वह सुखी और साधन-सम्पन्न लोगों के साथ मित्रता की भावना रखे, दुःखी लोगों के साथ दया की भावना रखे पुण्यात्माओं और महापुरुषों के प्रति हर्ष की भावना रखे, अपुण्यात्माओं (पापी) लोगों के प्रति उदासीनता की भावना रखे ।
(ख) सत्यः
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सत्य वह है जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा कहना मानना व जानना सत्य है। इन्द्रियों से जैसा प्रत्यक्ष किया है, अनुमान से जैसा जाना है और जैसा दूसरों से सुना है ठीक वैसे ही वाणी और मन का होना सत्य है और दूसरे मनुष्यों में अपने ज्ञान को पहुँचाने के लिए जो वाणी बोली गई है, यदि वह ठगने वाली, भ्रान्ति पैदा करने वाली और जिससे सही या गलत कुछ भी बोध न होता हो, ऐसी वाणी न हो, तो वह सत्य है। यह सत्य वाणी सभी प्राणियों के उपकार के लिए हो, प्राणियों को दुःख देने के लिए न हो।यदि दूसरों को दुःख होता है तो वह सत्य नहीं है।इससे अपुण्य ही होता है।इसलिए वाणी की परीक्षा करके (सोच-समझकर) प्राणिमात्र के लिए हितकर सत्यवचन बोलने चाहिएः—
सत्यं यथार्थे वाङ्मनसे। यथा दृष्टं यथा अनुमितं यथा श्रुतं तथा वाङ्मनश्चेति। परत्र स्वबोधसंक्रान्तये वागुक्ता, सा यदि न वञ्चिता भ्रान्ता वा प्रतिपत्तिवन्ध्या वा भवेदिति। एषा सर्वभूतोपकारार्थं प्रवता न भूतोपघाताय। यदि चैवमप्यभिधीयमाना भूतोपघातपरैव स्यान्न सत्यं भवेत्पापमेव भवेत्तेन पुण्याभासेन पुण्यप्रतिरूपकेण कष्टतमं प्राप्नुयात्। तस्मात्परीक्ष्य सर्वभूतहितं सत्यं ब्रूयात्।
जैसा देखा, सुना तथा जाना वैसा ही मन और वाणी से व्यवहार करना सत्य कहलाता है। छल-कपट वाली वाणी का व्यवहार कदापि नहीं करना चाहिए। ऐसी वाणी कभी न बोलें जिससे दूसरों को दुःख हो।दूसरों की हानि अपनी वाणी से कदापि न करें। पूर्णतया परीक्षा करके वाणी का प्रयोग करें।
(ग) अस्तेयः
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शास्त्रोक्त विधान के विरुद्ध दूसरों के द्रव्य का ग्रहण करना स्तेय (चोरी) है, उसका प्रतिषेध (अभाव) होना तथा अस्पृहारूप-दूसरे के द्रव्य के ग्रहण करने की इच्छा भी न करना यह तीसरा यम है।
व्यास भाष्यः—-स्तेयमशास्त्रपूर्वकं द्रव्याणां परतः स्वीकरणं, तत्प्रतिषेधः पुनरस्पृहारूपमस्तेयमिति।
चोरी न करना अस्तेय है। दूसरों की वस्तु बिना पूछे लेना और उसका प्रयोग करना चोरी है। शास्त्र-विरुद्ध ढंग से किसी की वस्तु हस्तगत करना चोरी है। मानसिक चोरी भी होती है।जैसे दूसरे की वस्तु के ग्रहण करने की लालसा भी चोरी है। अतः साधक को इस दुष्प्रवृत्ति का सर्वथा त्याग करना चाहिए।
(घ) ब्रह्मचर्यः
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गुप्त-इन्द्रिय का संयम करना ब्रह्मचर्य नामक चौथा यम है।
व्या.भा.—–ब्रह्मचर्यं गुप्तेन्द्रियस्योपस्थस्य संयमः।
कामवासनाओं को उत्तेजित करने वाले खान-पान, दृश्य, श्रव्य, शृङ्गारादि से सर्वथा बचते हुए वीर्य रक्षा करना ब्रह्मचर्य है।
(ङ) अपरिग्रहः
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विषय (संसार) के बन्धन के कारण धनादि भोग्य-पदार्थों के अर्जन(संग्रह) करने में दोष, रक्षण(संग्रह) किये हुओं की रक्षा करने में दोष, क्षय-उनके नाश होने में दोष, संग-उनमें आसक्त होने में दोष, और हिंसा(प्राणियों की हिंसा) पीडा में दोष दिखाई देने से इन भोग्य पदार्थों को संग्रह न करना ही अपरिग्रह है।ये कुल पाँच यम हैं।
व्या.भा.—–विषयाणामर्जनरक्षणक्षयसंगहिंसादोषदर्शनादस्वीकरणमपरिग्रह इत्येते यमाः।।
धन को जमा करने में क्या दुःख होता है, एक कवि का विश्लेषणः—-
अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानाञ्च रक्षणे।
आये दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थान् कष्टसंश्रयान्।।
अर्थः—-धन को जमा करने तरह-2 के दुःख और उसकी रक्षा करने में भी दुःख। थोडा सा पलक झपकाओ, लोग उडा ले जाते हैं। खुली आँख में धूल झोंककर ठगकर ले जाते हैं धन आने पर दुःख व्यय होने पर भी दुःख। धिक्कार ऐसे धन को।
इस संसार में जीने के लिए सांसारिक पदार्थों की परमावश्यकता होती है, परन्तु इन साधनों को साध्य कभी नहीं बनाना चाहिए और ना ही इनमें आसक्ति होनी चाहिए। इनसे लोभादि वृत्तियाँ जागृत हो जाती हैं। इनके वशीभूत होकर मनुष्य अनावश्यक पदार्थों के संग्रह में लग जाता है। विशेष वस्त्रों व मकानों से बचना चाहिए। (मनसि च परितुष्टे को अर्थवान् को दरिद्रः) शृंगार से बचना चाहिए। योगाभ्यासी पुरुष को परिग्रह वृत्ति का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
अहिंसादि पाँच यमों का बहाना
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“जातिदेशकालसमयानविच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ।।” (योगदर्शन–२.३१)
अर्थः—-वे अहिंसा, अस्तेय, सत्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम जाति (पशु-पक्षी, मनुष्यादि), देश (स्थानविशेष), काल (तिथि आदि), समय (शिष्ट-परम्परा अथवा कर्त्तव्य की सीमाओं से न बँधे हुए अर्थात् सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा करने योग्य) सर्वत्र प्रसिद्ध, सब मनुष्यों के लिए हितकर महान् व्रत है।
यहाँ पर अहिंसादि पाँच यमों को सार्वभौम महाव्रत कहा है। अतः योगाभ्यासी को इन यमों का पालन जीवन पर्यन्त करना चाहिए।
जिह्वा के लालची हिंसा करने वाले तरह-2 के बहाने बनाते हैं। कुछ लोग ये कहते हैं कि मैं अण्डे खाता हूँ, अण्डा मांसाहार में नहीं आता, अपितु शाकाहार ही है। कुछ ये कहते हैं कि मैं सिर्फ मछलियाँ खाता हूँ, दूसरे जीवों की हत्या नहीं करता। कुछ लोग ये कहते हैं कि मैं किसी पवित्र-स्थल पर हत्या नहीं करता। कुछ लोग ये कहते हैं कि मैं पूर्णिमा या अमावस्या या त्योहारों में हत्या नहीं करता, कुछ लोग ये कहते हैं कि मैं सिर्फ देव लोगों (माता,पिता,आचार्य, ब्राह्मण आदि) की रक्षा के ही हत्या करूँगा अन्य कार्य के लिए नहीं।
ये सब जाति, देश, काल, समय की सीमाओं से बँधे हुए हैं। वस्तुतः हिंसा तो हिंसा ही होती है। योग-साधकों के लिए सर्वथा प्रतिबन्धित है।
यम योगी की नींव है। इसी पर योग की इमारत टिकी है। इसका पालन अवश्य करना चाहिए, यदि साधना में आगे बढना है तो।
(२.) नियमः
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योग का दूसरा अङ्ग नियम है। नियम भी पाँच होते हैं—-(क) शौच, (ख)  संतोष, (ग) तप, (घ)  स्वाध्याय, (ङ)  ईश्वरप्रणिधान।
तद्यथा—“शौचसंतोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः “ (योगदर्शन–२.३२)
(क) शौचः
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पहला नियम शौच ही है। इसका अभिप्राय पवित्रता है। हमारे जीवन में पवित्रता दो तरह से आती हैः–बाह्य और आन्तरिक। बाहरी पवित्रता स्नानादि से आती है।और पवित्र खाद्य पदार्थों के सेवन और अपवित्र खाद्य पदार्थों के त्याग से यह पवित्रता आती है। आन्तरिक पवित्रता दो तरह से हो सकती है। शौच (मलत्याग) व मूत्रत्याग से शारीरिक पवित्रता। दूसरी पवित्रता मानसिक है-मन की बुराइयों को हटाना, अविद्या, मिथ्याज्ञान से उत्पन्न राग, द्वेषादि मलों को यथार्थ ज्ञान से धोना।
मनुस्मृति (५.१०९) का प्रमाणः—-
“अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।।”
(मनुस्मृति ५.१०९)
अर्थात् स्नान से शरीर, सत्य से मन, विद्या तथा तप से आत्मा और ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है।
व्यास-भाष्यः—–“तत्र शौचं मृज्जलादिजनितं मेध्याभ्यवहरणादि च बाह्यम्। आभ्यन्तरञ्चित्तमलानामाक्षालनम्।”
(ख) संतोषः
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दूसरा नियम संतोष (लोभरहित) वृत्ति है। जीवन-निर्वाह के लिए मौजुद साधनों से अधिक साधनों के ग्रहण करने की इच्छा न करना संतोष है :—“संतोषः संनिहितसाधनादधिकस्यानुपादित्सा।”
(ग) तपः
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तीसरा नियम तप है।तप कहते हैं द्वन्द्वों को सहन करना, अर्थात् भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, उठने-बैठने का अभ्यास, काष्ठमौन-आकारमौन (इशारे से भी अपने भाव को प्रकट न करना और वाणी से भी न बोलना, किन्तु इशारों से भाव को प्रकट करते रहना आकारमौन है)। काष्ठमौन-आकारमौन ये दोनों द्वन्द्व है, इनका सहन करना तप है। इनके अतिरिक्त व्रत भी तप के अन्तर्गत आते हैं। जैसेः—-कृच्छ्रव्रत, चान्द्रायण व्रत और सान्तपनादि।
“गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम्।
एक रात्रोपवासश्च कृच्छ्रं सान्तपनं स्मृतम्।।”
(मनु स्मृति ११.२१२)
अर्थात् गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी और कुशाओं का जल इन सबको मिलाकर एक-एक दिन छोडकर खावे तो वह सांतपन कृच्छ्रव्रत होता है।
इन व्रतों का यथायोग्य (शरीर की अनुकूलता के अनुसार पालन करना चाहिए।
व्यास-भाष्यः—“तपो द्वन्द्वसहनम्। द्वन्द्व च जिघत्सापिपासे शीतोष्णे स्थानासने काष्ठमौनाकारमौने च। व्रतानि चैषां यथायोगं कृच्छ्रचान्द्रायणसांतपनादीनि।”
मोक्ष का उपदेश करने वाली योगदर्शनादि शास्त्रों का अध्ययन करना और प्रणव (ओम्) का जप करना स्वाध्याय कहलाता है(स्वाध्यायो मोक्षशास्त्राणामध्ययनं प्रणवजपो वा।)
ईश्वर को सब अर्पण कर देना ईश्वर-प्रणिधान है। परमगुरु परमात्मा में अपने को और अपने कार्यों को अर्पण कर देना। इस प्रकार के अनुष्ठान व ऐसी भावना से भगवान् के प्रति भक्ति का उद्रेक जागृत होता है, तथा बाह्य व्यवहार से चित्त हटा रहता है।
“ईश्वरप्रणिधानं तस्मिन्परमगुरौ सर्वकर्मार्पणम्।
जीवन्मुक्त योगी पुरुष चाहे शय्या अथवा आसन पर स्थित हो, चाहे मार्ग में जा रहा हो, वह ईश्वरप्रणिधान के द्वारा स्वरूप में ही स्थित होता है, उसके समस्त संशय, अज्ञान हिंसादि नष्ट हो गए हैं और वह योगी संसार के बीज (अविद्यादि क्लेशों) तथा अविद्याजन्य (संस्कारों) का नाश करता हुआ नित्य योगाभ्यास करता हुआ अमृतभोग (मोक्ष के आनन्द) का अधिकारी बन जाता है।

योग-विरोधी भावनाएँ
================जब योगी के मन में योग-विरोधी भावनाएँ प्रबल होने लगें (जैसे मैं अहित करने वाले को मार दूँगा, इस अपकारी के विषय में झूठ भी बोलूँगा, इसका धन भी ले लूँगा, इसकी पत्नी के साथ दुराचार करूँगा, इसके धन को ले लूँगा, अपना अधिकार कर लूँगा। इस प्रकार के विपरीत मार्ग की ओर ले जाने वाले अतीव प्रबल हिंसादि वृत्तियों के रोग से पीडित होता हुआ योगी विरोधी भावों को प्रबुद्ध करें) तो योगी को क्या करना चाहिए। उसके लिए ऋषि व्यास उपाय बताते हैं। उसे ये सोचना चाहिए– भयंकर संसार रूपी अंगारों में भूने जाते हुए मेरे द्वारा अर्थात् संसार के दुःखों से सन्तप्त होकर मैंने सब जीवों को अभयदान देने की भावना से योगधर्म की शरण ली थी और वहीं मैं अब योगधर्म को छोडकर फिर उन्हीं हिंसादि वितर्कों (विरोधी) भावों को ग्रहण करता जा रहा हूँ। ये तो ऐसे ही है, जैसे कुत्ते की वृत्ति हो। कुत्ता अपने उगले हुए वमन को स्वयं फिर चाट लेता है, वैसे ही छोडे हुए वितर्कादि को फिर मैं ग्रहण करने वाला हो गया हूँ। इस प्रकार वितर्कादि भावों को रोकने के लिए वितर्कविरोधी भावों को प्रबुद्ध करं।व्यास-भाष्यः—-“यदा अस्य ब्राह्मणस्य हिंसादयो वितर्का जायेरन्——यथा श्वा वान्तवलेही तथा त्यक्तस्य पुनराददान इति।”
 (३.) आसनः
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“स्थिरसुखमासनम्” (योगदर्शन–२.४६ )
जिसमें सुखपूर्वक शरीर और आत्मा स्थिर हों, उसको आसन कहते हैं, अथवा जैसी रुचि हो वैसा आसन करें। वे आसन ये हैं—-पद्मासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन, दण्डासन, सोपाश्रय (सहारे के साथ आसन), पर्यङ्कासन, क्रौञ्चनिषदन(क्रौञ्च पक्षी की तरह बैठना), हस्तिनिषदन (हाथी की तरह बैठना), उष्ट्रनिषदन (ऊँट की तरह बैठना), और समसंस्थान। ये सब आसन स्थिर तथा सुख देने वाले हैं।इन आसनों में से जिस आसन में योगी को सुख मिले, उसी का अभ्यास करना चाहिए।
चित्तवृत्तियों का निरोध कर तप, उपासनादि करने के लिए स्थिर होना कठिन होता है। अतः जप, उपासना करने के लिए योगाभ्यासी को किसी एसे आसन का अभ्यास चाहिए, जिसमें कई घण्टों तक सुखपूर्वक बैठ सकें।
आसन के विषय में यहाँ सूत्रकार पतञ्जलि ने दो विशेष बातें कही हैं–स्थिरता और सुख। स्थिरता से अभिप्राय है– उपासना के समय शरीर के किसी अङ्ग का भी चञ्चल न होना। मक्खी, मच्छर आदि के बैठने से अथवा शारीरिक खाज-खुजली से भी स्थिरता भंग न होनी चाहिए। अन्यथा शरीर के चंचल होते ही चित्त चंचल हो जाएगा। सुख से अभिप्राय है कि जिस आसन में अभ्यासी बैठा है, उसमें किसी प्रकार का कष्ट न होना। क्योंकि जिस आसन का पूर्णतः अभ्यास नहीं होता, उससे घुटने आदि भागों में पीडा होने लगती है।नीचे से भूमि का भाग चुभने लगता है, इत्यादि। अतः इसके समान भूनि का होना, नितम्बों के नीचे गद्दीदार आसन बिछाना, एकान्त व पवित्र स्थान का होना, वायु का शुद्ध होना, मच्छरादि का न होना और शारीरिक खाजादि रोगों का न होना अत्यन्त आवश्यक है इसी प्रकार युक्त आहार, विहार, शुद्ध आहार युक्त सोना-जागना आवश्यक है।
योग में आसन की स्थिरता और सुख के उपाय
==========================“प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्।।”  (योगदर्शन २.४७)व्यास-भाष्यः
“भवतीति वाक्यशेषः। प्रयत्नोपरमात्सिध्यत्यासनं येन नाङ्गमेजयो भवति। अनन्ते वा समापन्नं चित्तमासनं निर्वर्तयतीति।।”
सूत्रार्थः—- शारीरिक चेष्टाओं को रोक देने से आसन सिद्ध होता है और उससे शरीर में कम्पन नहीं होता। (यहाँ पर भवति क्रिया को वाक्य से जोडना चाहिए।(यहाँ पर वा समुच्चयार्थक है) इससे अनन्त सर्व्यापक परमात्मा में मन की स्थिति करने से आसन सिद्ध हो जाता है।
जब साधक ध्यान के लिए किसी आसन में बैठता है तो बहुत काल तक बैठने से शरीर में अकडाहट अथवा कम्पनादि होने लगती है, जिससे योग में बाधा आती है और सर्वव्यापक परमात्मा में मन लगाना कठिन हो जाता है। मन लगाने के लिए आसन का सिद्ध होना जरूरी है। यह मन सान्त, एकदेशी, सांसारिक वस्तु में सदा स्थिर नहीं रह सकता। अनन्त के साथ तादात्म्य होने से ही आसन सिद्धि और देह में स्थिरता आ सकती है।

इन प्रयत्न-शैथिल्य और अनन्त समापत्ति के बिना योगाभ्यासी को जप-उपासना में भी बाधाएँ आ जाती हैं।शारीरिक स्वाभाविक चेष्टाओँ का नाम प्रयत्न है। उसमें शिथिलता न करने पर शरीर में खिंचाव बने रहने से अकडाहट अथवा कम्पनादि होने से योग-साधना में बाधा होती है और योगी बहुत देर तक योगाभ्यास नहीं कर सकता। अतः शरीर में मृदुता रखने के लिए प्रयत्न-शैथिल्य करना आवश्यक है और अनन्त समापत्ति से अभिप्राय सर्वव्यापक परमेश्वर से तादात्म्य करना अर्थात् ईश्वरीय गुणों का चिन्तन, तदनुरूप भावना करने में मन को लगाना। अनन्त परमेश्वर के गुणों की सीमा न पाने से मन उसी में रमा रहता है। यदि ऐसा न किया जाए अथवा किसी सान्त पदार्थ का चिन्तन किया जाए तो सान्त की सीमा पाने पर मन स्थिर सदा न रह सकेगा। मन के चञ्चल होने अन्यमनस्कता आ जाएगी और योग सिद्ध न हो सकेगा , क्योंकि मन का यह स्वभाव है कि वह किसी पदार्थ में तभी तक लग पाता है, जब तक उसकी सीमा को न जान जावे।
(४.) प्राणायामः
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प्राणायाम का स्वरूपः
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“तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ।।” (योगदर्शन–२.४९)
व्यास-भाष्यः—–
“सत्यासने-जये बाह्यस्य वायोराचमनं श्वासः, कौष्ठ्यस्यवायोर्निःसारणं प्रश्वासः तयोर्गतिविच्छेद उभयाभावः प्राणायामः।।”
सूत्रार्थः—
आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास में — सांस के लेने छोडने में गति का रुक जाना यो रोक देना प्राणायाम कहलाता है।
ऋग्वेदादि भाष्यदभूमिका—-
जो वायु बाहर से भीतर को आता है, उसको श्वास और जो भीतर से बाहर जाता है, उसको प्रश्वास कहते हैं। उन दोनों के जाने-आने को विचार से रोकें, नासिका को हाथ से कभी न पकडे, किन्तु ज्ञान से ही उनके रोकने को प्राणायामकहते हैं।
भावार्थः–
प्राणायाम के सफल होने के लिए योग के पूर्व के तीनों अंगों (यम,नियम और आसन) का अनुष्ठान होना आवश्यक है। फिर भी प्राणायाम के लिए आसन का सिद्ध होना अत्यावश्यक है। इसके बिना प्राणायाम सम्भव नहीं है। यद्यपि श्वास-प्रश्वास की गति जीवन भर चलती रहती है, सोते समय भी इनकी गति अवरुद्ध नहीं होती, परन्तु ऐसा स्वाभाविक प्राण को आना-जाना प्राणायाम नहीं है। प्राणायाम तभी होता है, जब श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक गति को कुछ अवधि के लिए रोक दिया जाए।
प्राणायाम के भेदः
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“स तु बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः”  (योगदर्शन–२.५०)
यहाँ पर प्राणायाम के तीन भेद बजाए जा रहे हैं—–(१.) बाह्य प्राणायाम, (२.) आभ्यन्तर प्राणायाम,  (३.)  स्तम्भवृत्ति-प्राणायाम
(१.) बाह्य-प्राणायामः—-इसमें पेट की वायु को बाहर निकाल कर बाहर ही रोक देते हैं।
(२.) आभ्यन्तर-प्राणायामः—–इसमें बाहर की वायु को अन्दर लोकर अन्दर ही रोक देते हैं।
(३.) स्तम्भवृत्ति-प्राणायामः—-इसमें श्वास और प्रश्वास दोनों गतियों को रोकना होता है। यह एक साथ ही किया जाता है।
ऋग्वेदादि-भाष्य-भूमिकाः—यह प्राणायाम चार प्रकार से होता है। अर्थात् एक बाह्य विषय, दूसरा आभ्यन्तर विषय, तीसरा स्तम्भवृत्ति और चौथा बाहर-भीतर रोकने से होता है।
वे चार प्राणायाम इस प्रकार से होते हैं कि जब भीतर से बाहर को श्वास निकले तब उसको बाहर ही रोक दे, इसे प्रथम प्राणायाम कहते हैं। जब बाहर से श्वास भीतर को आवें,तब उसको जितना रोक सके, उतना भीतर ही रोक दे, इसको दूसरा प्राणायाम कहते हैं। तीसरा स्तम्भवृत्ति है कि न प्राण को बाहर निकले और न बाहर से भीतर ले जाए, किन्तु जितनी देर सुख से रोक सके , उसको जहाँ का तहाँ ज्यों का त्यों एकदम रोक दे। और चौथा यह है कि जब श्वास भीतर से बाहर को आवे तब बाहर ही कुछ-कुछ रोकता रहे और जब बाहर से भीतर जावे, तब उसको भी थोडा-थोडा रोकता रहे, इसको बाह्याभ्यन्तराक्षेपी कहते हैं और इन चारों का अनुष्ठान इसलिए है कि जिससे चित्त निर्मल होकर उपासना में स्थिर रहे।
इन तीनों के अन्य नाम भी हैः————रेचक (बाह्य)पूरक (आभ्यन्तर), और कुम्भक (स्तम्भवृत्ति)
(१.) रेचकः—-रेचक नाम इसलिए है कि इसमें प्राण का रेचन अर्थात् शरीर से बाहर होने से पृथक् भाव होता है।
(२.) पूरकः—-इसमें बाहर की वायु को अन्दर भरना होता है और यथाशक्ति अन्दर ही रोकना होता है।
(३.) कुम्भकः—इसमें प्राणवायु को बाहर-भीतर न करके जहाँ का तहाँ रोकना होता है, इसलिए इसे कुम्भक कहते हैं। जैसे कुम्भ (घडे) में भरा जल इधर-उधर नहीं जाता , एक स्थान पर ही निश्चल रहता है, वैसे ही इस प्राणायाम नें प्राण की स्थिति होती है।
प्राणायाम की विधिः
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प्राणायाम का अभ्यास किस प्राणायाम से करना चाहिए।
इस बात का संकेत पतञ्जलि ने बाह्य शब्द पहले पढकर दिया है, अर्थात् योगाभ्यासी को सबसे पहले बाह्य (रेचक) प्राणायाम करना चाहिए। इसके बाद दूसरे प्राणायाम करने चाहिए। बाह्य प्राणायाम को करने की विधि यह है कि वमन(उल्टी) की तरह तेजी से प्राण-वायु को बाहर फेंककर बाहर ही यथशक्ति रोक देना चाहिए और इसी दशा में प्रणव (ओ३म्) का जाप मानसिक रूप में करना चाहिए या फिर महाव्याहृति का जाप करना चाहिए। जो इस प्रकार हैं—-ओ३म् भूः। ओ३म् भुवः। ओ३म् स्वः। ओ३म् महः। ओ३म् जनः। ओ३म् तपः। ओ३म् सत्यम्।
इसका बार-बार जाप करना चाहिए। गायत्री मन्त्र से बढकर कोई मन्त्र नहीं, इसका भी जाप किया जा सकता है.जो इस प्रकार है—
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।
बाह्य प्राणायाम के अभ्यास के बाद दूसरे प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए और वो भी धीरे-धीरे । महर्षि दयानन्द जी ने नए साधक के लिए तीन प्राणायाम से लेकर २१ प्राणायाम तक करने की बात कही है। सूत्रकार पतञ्जलि ने भी देश, काल और संख्या की दृष्टि से कहा है कि नए साधक को धीरे-धीरे प्राणायाम बढाना चाहिए।

चौथा प्राणायाम
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“बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः।।” (योगदर्शन–२.५१)

सूत्रार्थः———-
बाह्य और आभ्यन्तर प्राणायामों के विषय को दूर फेंकने वाला चतुर्थ प्राणायाम होता है।
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के अनुसारः-
जब श्वास भीतर से बाहर को आवे, तब बाहर ही कुछ-2 रोकता रहे और जब बाहर से भीतर जावे तब उसको भीतर ही थोडा-2 रोकता रहे। इसको बाह्याभ्यन्तराक्षेपी कहते हैं।
सत्यार्थप्रकाशः—
जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे तब उससे विरुद्ध उसको न निकलने देने के लिए बाहर से भीतर लें और जब बाहर से भीतर आने लगे तब भीतर से बाहर की ओर प्राण को धक्का देकर रोकता जाए।
व्यास-भाष्यः———
“देशकालं संख्याभिर्बाह्यविषयपरिदृष्ट आक्षिप्तः। तथा आभ्यन्तरविषयपरिदृष्ट आक्षिप्तः। उभयथा दीर्घसूक्ष्मः। तत्पूर्वको भूमिजयात्क्रमेणोभयोर्गत्यभावश्चतुर्थः प्राणायामः।”
आङ् पूर्वक क्षिप् धातु का प्रयोग निवृत्ति अर्थ में होता है, परन्तु यहाँ पर व्यास-भाष्य में इसका अतिक्रान्त अर्थ अधिक संगत है। इस कारण इस प्राणायाम के उच्चस्तर की पुष्टि होती है।इस प्राणायाम में क्रिया-व्यापार पहले से ही निश्चित और परीक्षित होता है और उच्चस्तर में पहुँचकर दोनों प्राणायामों की निवृत्ति अथवा अतिक्रमण किया जाता है, अर्थात् भीतर प्राण रोक रक्खा हो और वह बाहर निकलना चाहता है उसके विपरीत बाहर से भीतर धक्का देना तथा बाहर निकलने न देना चतुर्थ प्राणायाम है। इसी प्रकार प्राण को बाहर रोक रक्खा है, भीतर जाना चाहता है, इसके विपरीत भीतर से बाहर धक्का देना तथा भीतर न जाने देना चतुर्थ प्राणायाम है। इस प्राणायाम को एकदम से प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। पहले बाह्य अथवा आभ्यन्तर प्राणायाम की प्रक्रिया चल रही हो, फिर उनका अतिक्रमण करके दोनों प्राणवायु को रोकना चतुर्थ प्राणायाम है।
प्राणायाम के लाभः
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“ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्।।” (योगदर्शन–२.५२)
सूत्रार्थः—-उपर्युक्त प्राणायामों के निरन्तर अभ्यास से विवेकज्ञान को ढकने वाला अविद्याजन्य कर्माशय दुर्बल होते हुए क्षीण हो जाते हैं।
ऋग्वेदादि-भाष्य-भूमिकाः—
इस प्रकार प्राणायामपूर्वक उपासना करने से आत्मा के ज्ञान का ढकने वाला आवरण जो अज्ञान है, वह नित्यप्रति नष्ट होता जाता है और ज्ञान का प्रकाश धीरे-धीरे बढता जाता है।

सत्यार्थ-प्रकाशः———-
(१.) ऐसे एक-दूसरे के विरुद्ध क्रिया करें तो दोनों की गति रुककर प्राण अपने वश में होने से मन और इन्द्रियाँ भी स्वाधीन होते हैं। बल पुरुषार्थ बढकर बुद्धि तीव्र सूक्ष्मरूप हो जाती है कि जो बहुत कठिन और सूक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण करती है। इससे मनुष्य शरीर में वीर्यवृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर, बल, पराक्रम, जितेन्द्रियता, सब शास्त्रों को थोडे ही काल में समझकर उपस्थित कर लेगा। सत्री भी इसी प्रकार योगाभ्यास करें।
(२.) जब मनुष्य प्राणायाम करता है, तब प्रतिक्षण उत्तरोत्तर काल में अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। जब तक मुक्ति न हो तब तक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढता जाता है।
सूत्र का भावार्थः—-
इस सूत्र में प्राणायाम करने का फल-कथन किया गया है। प्राणायाम के निरन्तर अभ्यास करने से विवेक-ज्ञान को ढकने वाला आवरण (चित्तस्थ अशुभ संस्कार रूप पर्दा) क्षीण हो जाता है। इसी अशुद्धि के कारण जीवात्मा सांसारिक बन्धनों में बँधा रहता है और विवेकज्ञान (जड-चेतन का भेद) नहीं होने देता। प्राणायाम से इस अशुद्धि का नाश कैसे होता है, इसका स्पष्टीकरण उदाहरण देकर मनुस्मृति में बताया गया है, जिससे प्राणायाम का फल बहुत ही स्पष्ट हो जाता है—-
(क) “दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां च यथा मलाः।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्।।”
(मनुस्मृतिः–६.७१)
अर्थः–जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं का मल नष्ट होकर शुद्ध होता है, वैसे प्राणायाम करके मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं।
(ख) “प्राणायामा ब्राह्मणस्य त्रयो अपि विधिवत्कृताः।
व्याहृतिप्रणवैर्युक्ता विज्ञेयं परमं तपः।।”
(मनस्मृतिः–६.७०)
अर्थः—जो ब्राह्मण (वेदों का विद्वान्) ब्रह्मज्ञान का इच्छुक है, उसके लिए यथाविधि ओङ्कारोपासना तथा महाव्याहृति के जप के साथ किए गए कम-से-कम तीन प्राणायाम भी परम-तप कहलाता है। इस प्रकार योगाभ्यासी के लिए प्राणायाम करने का विशेष महत्त्व है, क्योंकि इससे योगमार्ग के चरम लक्ष्य (विवेकख्याति) की प्राप्ति में मनादि इन्द्रियों के दोष क्षीण होने से अत्यधिक सहायता मिलती है।
प्राणायाम के अन्य लाभ
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“धारणासु च योग्यता मनसः ।।” (योगदर्शन–२.५३)
व्यास-भाष्य—-
“प्राणायामाभ्यासादेव “प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य” (योगदर्शन–१.३४) इति वचनात् ।।”
भाष्यानुवादः—-प्राणायाम के अभ्यास करने से ही धारणा करने में अर्थात् परमेश्वर में मन की धारणा होने से मन की योग्यता बढ जाती है। इसमें “प्रच्छर्दन-विधारणाभ्यां वा प्राणस्य” सूत्र भी प्रमाण है।
सूत्रार्थः—
ऋग्वेदादि-भाष्य-भूमिकाः— “उस अभ्यास से यह भी फल होता है कि (किंच धारणा0) परमेश्वर के बीच में मन और आत्मा की धारणा होने से मोक्षपर्यन्त उपासना योग और ज्ञान की योग्यता बढती जाती है, तथा उससे व्यवहार और परमार्थ का विवेक भी बराबर बढता रहता है।”
सूत्र का भावार्थः—–प्राणायाम करने का पूर्वोक्त लाभ चित्तस्थ अशुद्धि का नाश तो होता ही है, और दूसरा लाभ यह है कि मन के एकाग्र करने में भी पर्याप्त सहायता मिलती है। धरणा का लक्षण (योगदर्शन–३.१) सूत्र में यह किया है कि चित्त को शरीर में किसी स्थान में बाँध देना ही धारणा है और प्राणायाम करने से धारणा करने में मन की योग्यता-क्षमता हो जाती है। इसलिए योग के धारणादि अन्तरंग अंगों के अनुष्ठान करने में प्राणायाम मुख्य आधार है।
(५.) प्रत्याहार
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प्रत्याहार का स्वरूपः—“स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।।” (योगदर्शन—२.५४)
व्यास-भाष्यः—“स्वविषयसंप्रयोगाभावे चित्तस्वरूपानुकार इवेति चित्तनिरोधे चित्तवन्निरुद्धानीन्द्रियाणि नेतरेन्द्रियजयवदुपायान्तरमपेक्षन्ते। यथा मधुकरराजं मक्षिका उत्पन्तमनूत्पतन्ति निविशमानमनुनिविशन्ते तथेन्द्रियाणि चित्तनिरोधे निरुद्धानीत्येष प्रत्याहारः।।”
भाष्यानुवादः—-इन्द्रियों के अपने-2 विषयों (रूपरसादि) का संप्रयोग-संन्निकर्ष न होने पर मानों चित्तवृत्ति के अनुरूप ही इन्द्रियाँ हो जाती हैं, इसलिए चित्त के निरोध होने पर चित्त के समान इन्द्रियाँ भी निरुद्ध हो जाती हैं। इन्द्रियों को जीतने के अन्य उपाय की आवश्यकता नहीं होती। जैसे –शहद का संग्रह करने वाली मक्खियाँ मधु बनाने वाले राजा के साथ उडते हुए उड जाती हैं और बैठते हुए उस राजा के साथ बैठ जैती है। वैसे ही इन्द्रियाँ चित्त के निरोध हो जाने पर (बाह्य विषयों से विमुख हो जाने पर) निरुद्ध हो जाती हैं। यही प्रत्याहार नामक योगांग है।
सूत्रार्थः—–नेत्रादि इन्द्रियों के अपने-2 विषयों से सम्बन्ध न होने पर जो मन के स्वरूप के अनुरूप (जैसा) हो जाना है, वह प्रत्याहार नामक योगांग है।
ऋग्वेदादि-भाष्य-भूमिकाः—–प्रत्याहार उसका नाम है कि जब पुरुष अपने मन को जीत लेता है। तब इन्द्रियों का जीतना अपने आप हो जाता है, क्योंकि मन ही इन्द्रियों का चलाने वाला है।
भावार्थः——“प्रत्याहार” शब्द का अर्थ है विषयों से विमुख(पृथक्) होना। इसमें इन्द्रियाँ बाह्य विषयों से विमुख होकर अन्तर्मुखी हो जाती हैं। आङ् पूर्वक हृञ् धातु, आहरण ( आकृष्ट) करने अर्थ में प्रयुक्त होती है। प्रति उपसर्ग ने उससे विपरीत अर्थ (विमुख होना) को द्योतित कर रहा है। मन के एकाग्र होने से इन्द्रियाँ भी मन का अनुसरण करने से एकाग्र हो जाती हैं। इस विषय में यह जानना चाहिए कि बाह्य नेत्रादि इन्द्रियाँ मन के सम्पर्क के बिना विषयों का ग्रहण नहीं कर सकतीं। इसीलिए जब हमारा ध्यान अन्यत्र होता है तो हम देखते हुए भी नहीं देख पाते और सुनते हुए भी सुन नहीं सकते। जब मन शुद्ध और एकाग्र होकर आत्मचिन्तन में लग जाता है तो ये दूसरी नेत्रादि इन्द्रियाँ विषयों से सम्बद्ध होकर भी उसका ज्ञान नहीं करा सकतीं। इसी बात को सूत्रकार ने कहा है कि इन्द्रियाँ अपने विषयों से असम्बद्ध होकर चित्त का अनुसरण वैसे ही करने लगती हैं, जैसे मधुमक्खियाँ अपनी मधुकर-रानी मक्खी का अनुसरण करती हैं। राजा मन के निरोध होने से इन्द्रियों का भी निरोध हो जाता है। योग की इस स्थिति को ही “प्रत्याहार” नाम से कहा गया है।
प्रत्याहार का फल
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“ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् ।।” ( योगदर्शन–२.५५)
व्यास-भाष्यः—“शब्दादिष्वव्यसनमिन्द्रियजय इति केचित्। सक्तिर्व्यसनं व्यस्यत्येनं श्रेयस इति। अविरुद्धा प्रतिपत्तिर्न्याय्या। शब्दादिसंप्रयोगः स्वेच्छयेत्यन्ये। रागद्वेषाभावे सुखदुःखशून्यं शब्दादिज्ञानमिन्द्रियजय इति केचित्। चित्तैकाग्र्याद प्रतिपत्तिरेवेति जैगीषव्यः। ततश्च परमात्वियं वश्यता यच्चित्त-निरोधे निरुद्धानीन्द्रियाणि नेतरेन्द्रियजयवत्प्रयत्न-कृतमुपायान्तरमपेक्षन्ते योगिन इति।।
भाष्यानुवादः—परमावश्यता–स्वाधीनता–इन्द्रियजय के विषय में कुछ लोग ऐसा मानते है कि इन्द्रियों की शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध विषयों में आसक्ति न होना ही इन्द्रिय जय है। (व्यसन की व्याख्या—)— आसक्ति ही व्यसन है, क्योंकि प्राणियों को यह कल्याण-मार्ग से दूर कर देता है। और जो अविरुद्ध (शास्त्रों के अनुकूल प्रतिपत्तिः) विषयों का भोग करना है, वह न्यायोचित है।दूसरे लोग ऐसा मानते है कि स्वेच्छा से (भोगों के वशीभूत होकर नहीं) इन्द्रियों का शब्दादि विषयों के साथ सम्पर्क करना इन्द्रिय जय है। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि विषयों के प्रति राग और द्वेष से रहित होकर शब्दादि विषयों का सुख-दुःख से पृथक् होकर अनुभव करना इन्द्रिय जय है। और जैगीषव्य मुनि का मानना है कि चित्त की एकाग्रता होने के कारण शब्दादि विषयों में प्रवृत्ति का न होना ही इन्द्रिय जय है। इनमें श्रेष्ठ उपाय है–चित्त के निरोध होने पर इन्द्रियाँ भी निरुद्ध हो जाती हैं। इससे योगी लोग दूसरी इन्द्रियों के जय के समान पृथक् से किए गए दूसरे उपायों की , अपेक्षा आवश्यकता अनुभव नहीं करते है।
ऋग्वेदादि-भाष्य-भूमिकाः—-तब वह मनुष्य जितेन्द्रिय होके जहाँ अपने मन को ठहराना व चलाना चाहे, उसी में ठहरा और चला सकता है और फिर उसको ज्ञान हो जाने से सदा सत्य में प्रीति हो जाती है और असत्य में कभी नहीं।
प्रत्याहार की स्थिति के बाद इन्द्रियों की सर्वोत्कृष्ट स्वाधीनता (जितेन्द्रियता) हो जाती है।
भावार्थः——इस स्तर पर पहुँच कर इन्द्रियाँ पूर्ण रूपेण वश में हो जाती है। फिर किसी अन्य उपाय की आवश्यकता नहीं रहती। ऋषि व्यास ने इन्द्रिय-जय के सम्बन्ध में अनेक आचार्यों की परिभाषाएँ दी हैं—–
(१.)  शब्दादि-विषयों में न फँसना,
(२.) स्वेच्छा से भोग भोगना, आसक्त होकर नहीं,
(३.) राग-द्वेष के अभाव होने पर सुख-दुःख से रहित होकर शब्दादि-विषयों का अनुभव करना इन्द्रिय-जय है।
(४.) चित्त की एकाग्रता होने पर शब्दादि-विषयों में प्रवृत्त न होना इन्द्रिय-जय है।
इन सब में अन्तिम पक्ष ही सर्वोत्कृष्ट है। शेष अपूर्ण इन्द्रिय-जय है, क्योंकि उनमें भोगों के प्रति लालसा बनी रहती है। अतः मन के निरोध होने से इन्द्रियों का निरोध होना ही परमावश्यता (इन्द्रिय-जय) है।
(६.) धारणा
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उक्तानि पञ्च बहिरङ्गानि साधनानि धारणा वक्तव्या—-
यम से लेकर प्रत्याहार तक योग के पाँच बहिरंग साधन माने गए हैं। अब योग के अन्तरङ्ग अङ्ग प्रारम्भ हो रहे हैं ।
पहला अन्तरंग धारणा है, जिसका प्रथम सूत्र है—
“देशबन्धश्चित्तस्य धारणा”—(योगदर्शन-३.१)
जब उपासना योग के पूर्वोक्त पाँचों अङ्ग सिद्ध हो जाते हैं, तब उसका छठा अङ्ग धारणा भी यथावत् प्राप्त होती है। धारणा उसको कहते हैं कि मन को चञ्चलता से छुडा के नाभि, हृदय, मस्तक, नासिका और जीभ के अग्रभाग आदि देशों (अङ्गों) में स्थिर करके ओङ्कार का जप और उसका अर्थ जो परमेश्वर है उसका विचार करना…..(ऋ.वे.भू)।
व्यास-भाष्यः—–नाभिचक्रे, हृदयपुण्डरीके, मूर्ध्नि ज्योतिषि, नासिकाग्रे, जिह्वाग्रे इत्येवमादिषु देशेषु बाह्ये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति धारणा।” 
नाभि, हृदय, मूर्धाज्योति अर्थात् नेत्र, नासिकाग्र जिह्वाग्र इत्यादि देशों के बीच में चित्त को योगी धारण करे, तथा बाह्य विषय जैसा कि ओङ्कार वा गायत्री मन्त्र इनमें चित्त लगावें, क्योंकि “तज्जपस्तदर्थभावना” (योगदर्शन १.२८)। इसका योगी जप अर्थात् चित्त से पुनः-पुनः आवृत्ति करे और इसका अर्थ जो ईश्वर उसको हृदय में विचारे। “तस्य वाचकः प्रणवः” (योगदर्शन–१.२७)। ओङ्कार का वाच्य ईश्वर है और उसका वाचक ओङ्कार है। बाह्य विषय से इनको ही लेना और किसी दूसरे विषय को नहीं क्योंकि अन्य प्रमाण कहीं नहीं।
धारणा के विषय में
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ये पाँच अङ्ग बाह्य कहलाते हैं—-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार। मुख्य रूप से योग के साधनों का कथन होने से योग-दर्शन के द्वितीय पाद (अध्याय) का नाम “साधनपाद” रखा गया। योग के शेष तीन अङ्ग—-धारणा, ध्यान और समाधि——को तीसरे पाद (अध्याय) “विभूतिपाद” में रखा गया है। ये अवशिष्ट होने से अन्तरंग हैं। योगी इनसे विशेष सिद्धि या ऐश्वर्य प्राप्त करता है। ये सिद्धियाँ विभूति के रूप में हैं, अतः इन्हें “विभूतिपाद” में रखा गया है।
यद्यपि धारणादि भी योग के ही अङ्ग हैं, अतः समस्त योगांगों का एकत्र कथन करना ही उचित था, पुनरपि इन तीन अङ्गों को विभूतिपाद में क्यों रखा गया ? ऐसी आशंका का होना पाठकों के लिए स्वाभाविक था। इसका समाधान पतञ्जलि ने स्वयं दिया है–योगदर्शन ३.७  में। यम-नियमादि साधनों की अपेक्षा योगसाधना में धारणादि तीनों साधन अन्तरङ्ग हैं। यम-नियम बहिरंग क्यों हैं ? क्योंकि ये अंग चित्त को अविद्यादि क्लेशों की शुद्धि करने से योग के लिए उपयोगी बनाने वाले हैं, जिससे चित्त की वृत्ति एकाग्र होकर योग में लग सके। जैसे कृषक बीज बोने से पहले भूमि को जोतकर स्वच्छ और उपजाऊ बनाता है, वैसे ही बहिरंग साधनों से चित्त स्वच्छ तथा सूक्ष्म विषय को जानने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। अतः ये धारणादि योग के साक्षात् प्रमुख साधन हैं और योगांगों में भी आठवाँ अंग भी समाधि प्रथम अंगों का फल होने से विभूति है और उस विभूति की प्राप्ति में धारणा और ध्यान का साक्षात् सम्बन्ध है। अतः इन तीनों को “विभूतिपाद” में रखा गया है।
विमर्श-चित्त को शरीर के किसी नाभिचक्रादि अंग-विशेष में विषयान्तर से हटाकर बाँध (रोकने) देने या स्थिर करने का अभ्यास करना धारणा कहलाती है। परन्तु यह देशबन्ध शरीर के अन्दर ही होना चाहिए, बाह्य किसी पदार्थ या स्थान में नहीं। इस सूत्र के भाष्य में आचार्य व्यास ने “बाह्ये वा विषये” लिखा है, जिसका अर्थ प्रायः व्याख्याकार शरीर से बाहर किसी स्थान या पदार्थ में चित्त को रोकना अर्थ करते हैं, परन्तु यह अर्थ यहाँ संगत नहीं है। यहाँ पर सही अर्थ प्रणव-जप और तदर्थ-भावना है, जो प्रकरण से संगत भी है। योगशास्त्र में प्रणवजप का विधान किया गया है। धारणा का सम्बन्ध ध्यान और समाधि से है और ये तीनों योगांग अन्तरंग हैं, यह सूत्रकार ने ३.७ पर स्वयं माना है। अन्तरंग शब्द इस विषय में बहुत स्पष्ट कर रहा है कि धारणा अन्तरंग होने से शरीर के अन्दर ही करनी चाहिए, बाहर नहीं और वह अर्थ व्यावहारिक भी नहीं है। क्योंकि जब इन्द्रियाँ बाहर कार्य कर रही होंगी तो मन का सम्बन्ध भी नहीं होगा और मन बाह्य सान्त पदार्थों में कभी स्थिर नहीं हो सकता अर्थात् बँध नहीं सकता। इसलिए अन्दर ही प्रणवोपसना के द्वारा इसे रोका जा सकता है और जहाँ धारणा की जाएगी वहीं ध्यान लगाना पडेगा, यह बात सूत्रकार ने ३.२ में “तत्र” पद से स्पष्ट की है। धारणा बाहर होगी तो ध्यान भी बाहर होगा। किन्तु बाह्य ध्यान में प्रत्ययैकतानता (ज्ञानवृत्ति) की एकाग्रता कदापि संभव नहीं है। इसलिए धारणा शरीर से बाहर करना सूत्रकार और भाष्यकार दोनों के आशय से विरुद्ध होने से असंगत है।
(७.) ध्यान
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ध्यान किसे कहते है ?
“तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।” (योगदर्शन–३.२)
धारणा के पीछे उसी देश में ध्यान करने और आश्रय लेने के योग्य जो अन्तर्यामी व्यापक परमेश्वर है, उसके प्रकाश और आनन्द में अत्यन्त विचार और प्रेमभक्ति के साथ इस प्रकार प्रवेश करना कि जैसे– समुद्र के बीच में नदी प्रवेश करती है। उस समय में ईश्वर को छोड किसी अन्य पदार्थ का स्मरण नहीं करना, किन्तु उसी अन्तर्यामी के स्वरूप और ज्ञान में मग्न हो जाना, इसी का नाम ध्यान है।
व्यास-भाष्यः—“तस्मिन्देशे ध्येयालम्बनस्य प्रत्ययस्यैकतानता सदृशः प्रवाहः प्रत्ययान्तरेणापरामृष्टो ध्यानम्।।”
अर्थः—उन देशों में अर्थात् नाभि, हृदय, नेत्र, नासिकाग्र, जिह्वाग्र इत्यादि में ध्येय जो (परम) आत्मा उस आलम्बन की ओर चित्त की एकतानता अर्थात् परस्पर दोनों की एकता, चित्त आत्मा से भिन्न न रहे तथा आत्मा चित्त से पृथक् न रहे, उसका नाम है—सदृश प्रवाह। जब चित्त चेतन से ही युक्त रहे, अन्य प्रत्यय (कोई पदार्थान्तर) का स्मरण न रहे, तब जानना कि ध्यान ठीक हुआ।
प्रथम-प्रश्न—(क) मूर्त (भौतिक) पदार्थों के बिना ध्यान कैसे हो सकता है ?
उत्तरः–संसार में कई ऐसे पदार्थ हैं, जिनका आकार नहीं, किन्तु उनका अस्तित्व भी है और एहसास (अनुभव) भी। उदाहरण के लिए—शब्द का आकार नहीं होता, किन्तु फिर भी शब्द ध्यान में आता है। इसी प्रकार आकाश का कोई आकार नहीं, फिर भी आकाश का ज्ञान होता है। जीव का आकार नहीं, फिर भी जीव का ध्यान होता है। ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न ये नष्ट होते ही जीव निकल जाता है, यह एक साधारण व्यक्ति भी समझता है।
साकार का ध्यान कैसे करोगे ? साकार के गुणों का ज्ञानाकार होने तक ध्यान नहीं बनता अर्थात् संभव नहीं होता कि ज्ञान के पहले ध्यान हो जाए। एक सूक्ष्म परमाणु के भी अधम, उत्तम और मध्यम ऐसे अनेक विभाग ज्ञान-बल से कल्पना में आते हैं। अब कोई ऐसा कहे मुट्ठी में क्या है? तो विदित होने तक ढकी हुई मुट्ठी की ओर देखने से ही केवल उस पदार्थ का ध्यान कैसे करें। प्रत्यक्ष के सिवाय उस पदार्थ को जानने के लिए और भी दृढतर सबल उपाय है। देखो अनुमान—–। अनुमान ज्ञान के सम्मुख प्रत्यक्ष की क्या प्रतिष्ठा है। अभिप्राय है कि प्रत्यक्ष के अतिरिक्त जैसे अनुमान से भी पदार्थ को जाना जाता है. वैसे दृढतर रूप में परमात्मा को जानकर उपासना करनी चाहिए। सांसारिक पदार्थों में ध्यान करने से मन सांसारिक पदार्थों में ही लगा रहता है. परमात्मा में चित्त की दृढता नहीं होती, ध्यान सफल नहीं होता और मन बेचैन रहता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि परमपिता परमात्मा की उपासना की जाए।
ध्यान के विषय में दूसरा प्रश्न–
(२.) यद्यपि परमात्मा निराकार है तथापि ध्यान के लिए किसी सांसारिक मूर्ति की आवश्यकता होती ही है। अतः ध्यान के लिए कोई आधार तो चाहिए ही ।
उत्तरः–जब परमात्मा निराकार, सर्वव्यापक है, तब उसकी मूर्ति कैसे बन सकती है ? जो ये आभास है कि मूर्ति के देखने से परमेश्वर का स्मरण होता है, यह विचार आधारहीन है। क्योंकि यदि यह मूर्ति सामने नहीं होगी तो लोग एकान्त पाकर चोरी, जारी आदि कुकर्म (आजकल व्यभिचार, बलात्कार भी)करने में प्रवृत्त हो सकते हैं। क्योंकि ऐसे कुकर्म करने वाले जानते हैं कि इस समय यहाँ देखने वाला कोई नहीं है, इसलिए वह अनर्थ किए बिना नहीं रहता। जो पाषाण आदि मूर्तियों को न मानकर सर्वदा सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी परमात्मा को सर्वत्र जानता और मानता है वह व्यक्ति कुकर्म कुचेष्टा नहीं कर सकता ।
ध्यान के विषय में तीसरा प्रश्न—-जब किसी मूर्तिमान् वस्तु को चाहे वह कैसी हो, आप नहीं मानते तो ध्यान किसका करें ?
उत्तर—कोई चीज मानकर ध्यान नहीं करना चाहिए। ईश्वर सर्वशक्तिमान्, सर्वसृष्टिकर्त्ता, सृष्टि को एक क्रम में चलाने वाला, नियन्ता, पालनकर्त्ता और ऐसे ही अनेक ब्रह्माण्डों का स्वामी और नियन्ता है। ऐसी-ऐसी उसकी महिमा का स्मरण करके अपने चित्त में उसकी महत्ता का ध्यान करना चाहिए। अर्थात् इसी प्रकार समस्त विशेषणों से युक्त परमेश्वर को स्मरण करके उसका ध्यान करना चाहिए और उसकी अपार महिमा का वर्णन करना चाहिए। यह ध्यान है।
(८.) समाधि
समाधि किसे कहते हैं ?
“तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।” (योगदर्शन–३.३)
सूत्रार्थः——ऊपर ध्यान का वर्णन किया गया है। वह ध्यान ही ध्येय वस्तु मात्र का प्रतीत होना और अपने स्वरूप से शून्य जैसा भान होना समाधि है।
ऋग्. वे. भा. भू.—जैसे अग्नि के बीच में लोहा भी अग्नि रूप हो जाता है, इसी प्रकार परमेश्वर के ज्ञान में प्रकाशमय होके अपने शरीर को भी भूले हुए के समान जानकर आत्मा को परमेश्वर के प्रकाशस्वरूप आनन्द और ज्ञान में परिपूर्ण करने को समाधि कहते हैं।
ध्यान और समाधि में अन्तर—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान इन सातों अंगों का फल समाधि है।
जब ध्याता, ध्यान और ध्येय, इन तीनों का पृथक् भाव न रहे, तब जानना कि समाधि सिद्ध हो गई।
“ध्यानसमाधयोरयं भेदः ध्याने मनसो ध्यातृध्यानध्येयाकारेण विद्यमाना वृत्तिर्भवति, समाधौ तु परमेश्वरस्वरूपे तदानन्दे च मग्नः स्वरूपशून्य इव भवति।”
ध्यान और समाधि में इतना ही भेद है कि ध्यान में तो ध्यान करने वाला जिस मन से जिस चीज का ध्यान करता है, वे तीनों विद्यमान रहते हैं। परन्तु समाधि में केवल परमेश्वर ही के आनन्दस्वरूप ज्ञान में आत्ममग्न हो जाता है, वहाँ तीनों का भेदभाव नहीं रहता। जैसे मनुष्य जल में डुबकी मार के थोडा समय भीतर ही रुका रहता है, वैसे ही जीवात्मा परमेश्वर के बीच में मग्न होकर फिर बाहर आता है।
व्यास-भाष्यः—“ध्यानमेव ध्येयाकारनिर्भासं प्रत्ययात्मकेन स्वरूपेण शून्यमिव यदा भवति ध्येयस्वभावावेशात् तदा समाधिरित्युच्यते।।” (योगदर्शन–३.३)
संयम किसे कहते हैं ?
“त्रयमेकत्र संयमः” (योगदर्शन–३.४)
जिस देश (स्थान) में धारणा की जाय़, उसी में ध्यान और उसी में समाधि अर्थात् ध्यान करने योग्य परमेश्वर में मग्न हो जाने को संयम कहते हैं। जो एक ही काल में तीनों का मेल होना है, अर्थात् धारणा से संयुक्त ध्यान और ध्यान से संयुक्त समाधि होती है। उनमें बहुत सूक्ष्म काल का भेद रहता है, परन्तु जब समाधि होती है तब आनन्द के बीच में तीनों का फल एक ही हो जाता है।
व्यास-भाष्य—“तदेतद्धारणाध्यानसमाधित्रयमेकत्र संयमः। एकविषयाणि त्रीणि साधनानि संयमः इत्युच्यते। तदस्य त्रयस्य तान्त्रिकी परिभाषा संयम इति।।”
अर्थः—जो धारणा, ध्यान और समाधि, तीनों का एक विषयक होना है, वह संयम कहलाता है। इन तीनों साधनों की एक शास्त्रीय परिभाषा संयम है। अर्थात् योगशास्त्र में संयम शब्द से धारणा, ध्यान और समाधि के सम्मिलित रूप का बोध होता है।

संयम के जय का फल
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“तज्जयात्प्रज्ञालोकः।।” (योगदर्शन ३.५)

ऊपर संयम के बारे में कहा गया है, संयम के जय –सम्यक् अभ्यस्त होने से योगी की समाधिजन्यप्रज्ञा (बुद्धि का आलोक) प्रकाश प्रकट हो जाता है, अर्थात् स्वच्छ एवं सूक्ष्म होने से प्रज्ञा विकसित हो जाती है।
व्यास-भाष्यः—“तस्य संयमस्य जयात् समाधिप्रज्ञाया भवत्यालोको यथा यथा संयमः स्थिरपदो भवति तथा तथेश्वर प्रसादात् समाधिप्रज्ञाविशारदी भवति।”
अर्थः—पूर्वोक्त सूत्रोक्त संयम के जय (जीत लेने) अभ्यस्त होने से समाधिप्रज्ञा (समाधिजन्य) प्रज्ञा (बुद्धि) का आलोक (प्रकाश) दीप्त हो जाता है और जैसे-जैसे संयम स्थिर पद अच्छी प्रकार से अभ्यस्त हो जाता है, वैसे-वैसे ईश्वर के अनुग्रह से समाधिजन्य प्रज्ञा विशारदी (अत्यन्त) निर्मल तथा सूक्ष्मविषय को भी शीघ्र ग्रहण करने वाली हो जाती है।
संयम का उत्तरवर्ती दशाओं में उपयोग
“तस्य भूमिषु विनियोगः ।।” ( योगदर्शन–३.६)
सूत्रार्थः—उन पूर्वावस्थाओं में अभ्यस्त संयम का उत्तरवर्ती अतिशय उन्नतदशाओं में उपयोग करना चाहिए।
व्यास-भाष्य का हिन्दी में अभिप्रायः—–
उस संयम का जिसने योगसाधना भूमि (अवस्था विशेष) को जीत लिया है अर्थात् अभ्यास कर लिया है, उसका अनन्तर (व्यवधान रहित) अतिशय निकट क्रमप्राप्त अगली अवस्थाओं में विनियोग (उपयोग) लेना चाहिए, क्योंकि नीचे की अथवा प्रथम भूमि (अवस्थाओं) को बिना जीते उससे उत्तरवर्ती भूमि का उल्लंघन करके (बिना जीते प्रान्तभूमि) अत्युच्च सूक्ष्म भूमियों में संयम नहीं किया जा सकता और उस संयम के बिना योगी को प्रज्ञालोक (समाधिजन्य बुद्धि) का प्रकाश कैसे प्राप्त हो सकता है ? और ईश्वर के अनुग्रह से यदि योगी ने उत्तर भूमि (उच्च दशा) में संयम का अभ्यास कर लिया है तो उसको निचली परचित्त (ज्ञानादि अवस्थाओं) में संयम करना युक्त नहीं अर्थात् उन्नत दशा को प्राप्त होकर अधर (दशा) में संयम करना व्यर्थ है। उसका कारण यह है कि उस प्रयोजन का (अधारभूमि) में संयम करने का, संयम से भिन्न (उपाय) ईश्वरानुग्रह से ही बोध अथवा सिद्धि हो जाती है (और यह जानने के लिए कि) इस भूमि (दशा) की अनन्तर भूमि कौन-सी है, इस विषय में योग (योग का अभ्यास ही उपाध्याय) गुरु होता है इसका कारण ऐसा कहा गया है—
“योगेन योगो ज्ञातव्यो योगो योगात् प्रवर्तते।
यो अप्रमत्तस्तु योगेन स योगे रमते चिरम्।।”
योग से योग को जानना चाहिए। योग के अभ्यास से योग आगे बढता है। जो योगी योग-साधनों में प्रमाद नहीं करता अर्थात् सदा अभ्यास करता है, वह योग (योगाभ्यासरूपी) गुरु से योगसाधना में दीर्घकाल तक रमण करता है।

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2 comments:

  1. बहुत अच्छा लेख डाला है आपने, धन्यवाद आपका।
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