Sunday 18 June 2017

वैदिक प्रणाली की ईसाई निन्दा

यूरोप में ईसाई पन्थ जैसे-जैसे पनपता गया, वैसे-वैसे उसने वैदिक-धर्म के चिह्नों और साहित्यों को मिटाता गया । पहले ये वैदिक-धर्मी ही थे, किन्तु स्वयं को वैदिक-धर्मियों से अलग दिखाना था, सो वे एकदम अलग होने लग गए । क्यूमाँट लिखता है–सबकुछ लुप्त हो गया । दूसरी शताब्दी में Eusebius और Pallas जैसे लेखकों ने The Mysteries of Mithra जैसी प्राचीन दन्तकथाओं के जो मोटे-मोटे ग्रन्थ प्रकाशित किए, उन सबको निर्दयता पूर्वक नष्ट कर दिया गया ।  इन ग्रन्थों में वैदिक देवी-देवताओं की कथाएँ दी गईं थीं ।वे ईसाई घाव पर नमक छिडकने की तरह वे लोग वैदिक प्रथाओं, कर्मकाण्डों, संस्कारों  की निन्दा करने लगे ।अरब प्रदेशों में और यूरोप के कई नगरों में कृष्ण-मन्दिर हुआ करते थे । अरबियों ने उन सबको मस्जिद में बदल दिया । वे फिर भी बहुत कुछ नहीं मिटा पाए । कुछ शब्द और कुछ प्रथाएँ वैदिक-धर्म के उनके यहाँ रह गए हैं । जैसे वे हरम शब्द का प्रयोग करते हैं । यह हरम हरि शब्द से बना है, जो हरियम् को दर्शाता है । हरि अर्थात् कृष्ण का मन्दिर । यूरोपीय लोगो में Hercules यानि हरि-कुल-ईश–श्रीकृष्ण और Hierapolis यानि हरिपुर के मन्दिरों का उल्लेख आता रहता है । वैदिक प्रणाली में ईश परमात्मा को कहते हैं ।  अतः प्राचीन विश्व में रोम, ईजिप्ट आदि प्रदेशों में जो Isis ईशिश देवी कही जाती है, वह परमेश्वरी, पार्वती, चण्डी, दुर्गा, भवानीदेवी थी ।प्रारम्भ में जब ईसाई पन्थ बहुत छोटा था, लगभग २५–५० लोगों का गुट था, तब वे लोगों वैदिकों से स्वयं को अलग दिखाने के लिए बहुत प्रयत्न करते थे । वे किस प्रकार अपने को अलग करने का प्रयत्न करते थे, इसका वर्णन क्यूमाँट Franz Cumont नामक ब्रिटिश लेखक अपनी पुस्तक Textas Monuments Figure’s relatifs aux mysteres de Mithra में लिखता है कि २५-५० लोग खुद को वैदिकों से अलग दिखाते थे । सभी वैदिक धर्म के चिह्नों की निन्दा करते थे । पूजा-पाठ छोड दिया था । हवन को घृणित मानने लगे थे । वे आस्तिकों से घृणा करते थे , वे स्वयं को नास्तिक मानते थे । इनकी संख्या शुरु में बेशक कम थी, किन्तु ये सशक्त थे ।
एक दूसरे लेखक Grant Showerman अपनी पुस्तक Oriental Religions की भूमिका में लिखते हैं, “रोम में ईसापूर्व जितने वैदिक धर्मी थे, उनके सिद्धान्त ईसाई पन्थ के सिद्धान्तों से कहीं अधिक शरीर, मन, बुद्धि, चेतना आदि सभी का समाधान करने वाले होते थे । उनकी परम्परा बडी प्राचीन थी । विज्ञान और सभ्यता पर आधारित थीं । उनके विविध समारम्भ होते थे । वे लोग ईश्वर की अनुभूति से मग्न हो जाया करते थे । उनके देवता बडे दयालु थे । उनके धार्मिक समारोहों में सामाजिक समागम बडा अच्छा होता था । उनकी धार्मिक प्रणाली तर्क पर आधारित होती थी । वे पुनर्जन्म को मानते थे, अतः अगला जन्म अधिक शुद्ध, पवित्र और पुण्य प्रदायी हो, इसके लिए वे वैदिक धर्मी सदैव प्रयत्न करते थे । ईसाइयों ने इन सबका विरोध करना शुरु किया । वे इसे पोगा-पन्थी कहते थे । जबकि असलियत यह थी कि ईसाई ही बडे पोगा-पन्थी थे । ईसाई वैदिकों के खण्डन का कोई भी अवसर नहीं चूकते थे ।”

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