Saturday 17 June 2017

वैदिक शिक्षा-प्रणाली, पाश्चात्यों की दृष्टि

वैदिक शिक्षा-प्रणाली, पाश्चात्यों की दृष्टि
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भारत में लगभग सभी विद्याओं का प्रकाशन प्राचीन भारत में हो चुका था । अंग्रेजों ने दुनिया को गलत जानकारी देकर भम्राया है ।

आंग्ल-भाषा में एक कहावत है "History repeats itself" इसका अभिप्राय है कि मानव इतिहास में एक जैसी घटनाएँ बार-बार होती रहती है ।

प्राचीन भारत में डाक-व्यवस्था थी, अंग्रेजों के शुरु करने से पहले । यह हम नहीं, अपितु मध्ययुगीन एक यूरोपीय लेखक का है । इस लेखक का नाम है---"Fra Paoline Da Tan Bartolomeo" यह रोम नगर का रहने वाला था । यह व्यक्ति वहाँ की एक संस्था में अध्यापक था । इसने भारत भ्रमण किया था । इसकी पुस्तक का नाम है---"A Voyage East Indies" इसने अपनी पुस्तक के पृष्ठ १४७ पर लिखा है, "भारत में डाक-व्यवस्था चालु है , उस डाक-सेवा का नाम है---अंजला ।

इसने भारत की वैदिक-शिक्षा-व्यवस्था का वर्णन किया है ।

महाभारत युद्ध के बाद हमारी शिक्षा-व्यवस्था चौपट हो गई थी । और इसके कारण पूरे संसार में अंधेरा छा गया, क्योंकि शिक्षा देने का काम उस समय केवल भारत करता था ।

इतना होने पर भी भारत वैदिक शिक्षा की जडें गहरी जमी हुई थी, इसलिए पूर्णतया समाप्त नहीं हुई । इसी प्रकार कहा जा सकता है कि अंग्रेजों (मैकाले, मैक्समूलर आदि) के अथक प्रयासों से भी भारत में वैदिक शिक्षा-व्यवस्था पूर्णतया समाप्त नहीं हुई ।

इतना अवश्य हुआ कि वैदिक-शिक्षा-व्यवस्था रूपी वृक्ष की विश्व में फैली हुई शाखाएँ वैदिक विश्व साम्राज्य के नष्ट होने के कारण सूखकर कट अवश्य गई । उस समय सारे विश्व में वैदिक गुरुकुल शिक्षा ही प्रसृत थी ।

इस यूरोपीयन लेखक बार्तोलोमियो ने लिखा है कि ईसाई और इस्लाम दोनों ने मिलकर इस वैदिक शिक्षा व्यवस्था को यूरोप और अफ्रिका से पूर्णतया समाप्त कर दिया । भारत में जब ये दोनों आए तो यहाँ आकर भी वही प्रयास किया । वे अपने प्रयास में पूर्णतया सफल नहीं हो पाए । यद्यपि मुसलमानों ने हिन्दुओं के अनेकानेक ग्रन्थ जलाकर राख कर दिए और इसाइयों ने भारतीयों की जडें खोखली कर दीं, तथापि वे समाप्त नहीं कर पाए । इनमें बख्तियार खिलजी का नाम लिया जा सकता है । जिसने नालन्दा विश्वविद्यालय के बडे पुस्तकालय में आग लगा दी, जिससे लाखों ग्रन्थ जलकर राख हो गए । समझा जाता है कि वेदों की अनेक शाखाएँ जलकर राख हो गई ।

बार्तोलोमियो अपनी पुस्तक में लिखता है कि १८ वीं शताब्दी तक में भारत में गुरुकुल व्यवस्था थी । वह केरल के एक स्थल का वर्ण करता है---

"भारत में प्रचलित शिक्षा-प्रणाली बडी सीधी-साधी और सस्ती है । बच्चे बहुत कम कपडे पहनते हैं, अर्धनग्न रहते हैं । पेड के नीचे बैठ जाते हैं । उँगली से जमीन पर रेखा खींचकर संख्या सीखते हैं । इसमें वे गिनती, बारहखडी आदि लिखना सीखते हैं । फिर वे उसे मिटा देते हैं, उसके बाद आगे लिखते जाते हैं । इस काम में प्रवीण होने पर उन्हें अन्य गुरुकुलों में प्रवेश मिलता है । इसके बाद वे ताड-पत्रों पर लिखना सीखते हैं । गुरु के आने पर सांष्टांग नमन करते हैं । वे प्रारम्भ में पञ्चविद्या सीखते थे । जिनमें शिक्षा, व्याकरण, शिल्प, हेतुविद्या, न्याय सीखते थे ।"

इसके बाद छात्रों को अन्य विषय पढाए जाते थे, जैसे---छन्दःशास्त्र, आत्मरक्षण, वनस्पतिशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, नौकायन विद्या, भाला फेंकना, बन्दूक क्रीडा, शतरंज, ज्योतिष्, नीतिशास्त्र, स्वाध्याय आदि ।


इन गुरुकुलों में सबको समान शिक्षा दी जाती थी । चाहे राजा का पुत्र हो या किसी गरीब किसान या मजदूर का । मैंने स्वयं देखा है कि त्रावणकोर नरेश राम वर्मा की सन्तानों की उसी तरह शिक्षा दी जाती थी, जैसे शूद्रों को । (पृष्ठ संख्या---२६२ --२६७)

इस तरह देखा जाए तो पूरे संसार प्राचीनकाल एक धर्म था--वैदिक धर्म और एक भाषा थी---संस्कृत भाषा ।
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