Sunday 28 May 2017

महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक

महाराज युधिष्ठिर जी का राज्याभिषेक
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३२०२ ई.पू. में द्रौपदी का स्वयंवर हुआ । पाण्डवों का विवाह सम्पन्न हुआ । सभी हस्तिनापुर पधारे ।

विचित्रवीर्य के ज्येष्ठ और श्रेष्ठ पौत्र युधिष्ठिर पहले से ही युवराज घोषित हो चुके थे । पाण्डवों को ऐतिहासिक सीमा से निकाल बाहर करने के लिए लाक्षागृह का काण्ड किया गया था । इसी बीच में पाण्डवों की अनुपस्थिति में दुर्योधन को युवराज घोषित कर दिया गया । एक वन में दो सिंह-शावक तो रह सकते हैं, किन्तु एक राजधानी में दो युवराज नहीं रह सकते ।

दो युवराजों के अस्तित्व से उत्पन्न संकट से निपटने के लिए सत्तासीन धृष्टराष्ट्र ने सत्ता का विभाजन कर दिया ।

(इस तरह भारत का दो बार विभाजन हुआ, सत्ता के लिए । एक बार धृतराष्ट्र ने दुर्योधन के लिए किया तो दूसरी बार गाँधी ने नेहरू के लिए किया ।)

कौरव (युवराज दुर्योधन) जस के तस हस्तिनापुर में बने रहे और पाण्डवों के भाग्य में इन्द्रप्रस्थ आया । पाण्डव इसी में खुश थे ।

३९९९ ई. पू. में महाराज युधिष्ठिर का अभिषेक निश्चित हुआ , परन्तु पारिवारिक संविधान के अनुसार अर्जुन को १२ वर्ष के लिए प्रवास में जाना पडा और युधिष्ठिर का अभिषेक इस कारण से रुक गया ।

जब जब बारह वर्षीय युग की चर्चा चलती है, गुरुसंचार की कालगणना को बीच में रखकर निर्णय लिया जाता है । गुरु ग्रह एक वर्ष में एक राशि का संचार करते हैं । बारह राशियों के लिए बारह वर्ष निश्चित है ही । क्वचित क्वचित् अतिसंचार के कारण गुरु ग्रह बारह वर्ष में कुछ दिनों की कटौती कर लेते हैं । सूक्ष्म गणित से १२* गुणा ७ =बराबर ८४ वर्ष में संभाव्य समय को ८३ वर्ष में पूरा कर लेते हैं , अर्थात् गुरुग्रह का सातवाँ संचार ग्यारह वर्षीय होता है । इसी अनुपात से बारह वर्ष के लिए प्रवास में गए अर्जुन ग्यारहवें वर्ष में लौट आए ।

जब अर्जुन प्रवास से वापस लौटे तब उनकी गर्भवती भार्या सुभद्रा उनके साथ आई थी । महाराज युधिष्ठिर के अभिषेक के बाद सुभद्रा ने एक शिशु को जन्म दिया, जो आगे चलकर अभिमन्यु के नाम से प्रसिद्ध हुआ । स्मरण रहे कि युद्ध के समय अभिमन्यु चालिस वर्षीय युवक थे न कि सोलह वर्षीय किशोर, जैसा कि लोग-बाग बताते हैं ।

महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक ३१८८ ई. पू. में हो गया था ।

युधिष्ठिर संवत्----
"युधिष्ठिरो महाराजा दुर्योधनस्तथापि वा ।
उभौ राजौ सहस्रे द्वे वर्षसु प्रवर्तते ।।"
(आर्ष संस्कृत)

अर्थात् ३१८८ ई. पू. में युधिष्ठिर संवत् स्थापित हुआ । यह संवत् दो हजार वर्ष तक प्रचलन में रही । महाराज अजातशत्रु के बाद यह संवत् की परम्परा स्थगित हो गई ।

आचार्य वराहमिहिर ने युधिष्ठिर संवत् का ठीक-ठीक प्रयोग किया है---

"स्वस्तिश्रीनृपसूर्यसूनुजशके शाके द्विवेदाम्बरत्रयि ।
मानाब्दमितेSनेहसि जये वर्षे वसन्ताधिके ।।"

अर्थात् युधिष्ठिर संवत् ३०४२ (३१८८--३०४२=१४६) ठीक है । उस समय उज्जैन में चन्द्रगुप्त मौर्य द्वितीय का शासन था और मगध में शुङ्ग नरेश पुष्यमित्र का शासन था ।

जरासन्ध-वध
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जब महाराज युधिष्ठिर को शासन करते-करते बारह वर्ष बीत गए तो उन्हें राजसूय यज्ञ करने की सूझी । उन्होंने अपने इष्ट मित्रों, सन्तों, ऋषियों, मुनियों, राजाओं और परिजनों को बताया, विचार-विनिमय आरम्भ हुआ ।

श्रीकृष्ण ने सभा में खडे होकर कहा---जब तक जरासन्ध सत्तासीन है, तब तक राजसूय यज्ञ का कोई मतलब नहीं---

"षडशीतिसमाः नीताः आश्लेषायाः चतुर्दश ।
जरासन्धेन राज्ञा वै ततः क्रूरं प्रवर्त्यस्यसे ।।"

इसका कोष विभाजित अर्थ इस प्रकार है---(१) ९८६, (२) १४, (३) क्रूर (४) ३१७६ ई. पू.

सभा में सुविचारित संकल्प के अनुसार ब्राह्मणवेषधारी श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम जरासन्ध के दरबार में युद्ध हेतु पहुँचे और उसे मल्लयुद्ध के लिए ललकारा । जरासन्ध ने कहा---तुम ब्राह्मण नहीं हो, मैं तुम तीनों को पहचानता हूँ य़ मल्लयुद्ध में चुनौती स्वीकार है । युद्ध हुआ । भीम ने जरासन्ध को धोखे से शरीर के दो टुकडो में विभाजित कर दिया और मार गिराया ।

जरासन्ध के दिवङ्गत हो जाने के बाद उसके ज्येष्ठ पुत्र सहदेव का राज्याभिषेक हुआ । द्विपक्षीय सन्धि के अनुसार मगध की वफादारी हस्तिनापुर से हटकर इन्द्रप्रस्थ से जुड गई । सहदेव की चार अक्षौहिणी सेना पर पाण्डवों का नैतिक अधिकार हो गया ।

सहदेव को शासन करते हुए २८ वर्ष बीत गए ।

इसके बाद हम महाभारत के युद्ध का विवरण पृथक् पोस्ट में देंगे ।

इस वीडियो में जरासन्ध-भीम का युद्ध देखें---

https://youtu.be/Hk7MnNXiHL4?t=3


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