Thursday 18 May 2017

वैदिक वाङ्मय में पुरुष शब्द से अभिप्राय


!!!---: पुरुष शब्द से अभिप्राय :---!!!
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आजकल अल्पज्ञान और मतिमन्द होने के कारण बहुत से लोग पुरुष से अभिप्राय केवल अंग्रेजी के जेण्ट्स से लेते हैं । वैदिक वाङ्मय में पुरुष शब्द के अनेक अभिप्राय उपलब्ध होते हैं । आइए देखते हैं कि पुरुष शब्द का क्या अभिप्राय हैः---

(१.) पुरुष शब्द परमात्मा का वाचकः---
सृष्टि विद्या के विषय में अति प्राचीन आर्यग्रन्थकार सहमत हैं कि वर्त्तमान दृश्य जगत् का आरम्भ परम पुरुष अविनाशी , अक्षर अथवा परब्रह्म से हुआ । तदनुसार पुरुष शब्द मूलतः परब्रह्म का वाचक है ।

(२.) हिरण्यगर्भ का वाचकः---
पुरुष शब्द का प्रयोग कहीं-कहीं हिरण्यगर्भ अथवा प्रजापति के लिए भी हुआ है ।

(३.) मनुष्यपरकः---
पुरुष शब्द का तीसरा मनुष्यपरक अर्थ सुप्रसिद्ध ही है ।

यह केवल आदमी या जेण्ट्स का वाची नहीं है । यह मनुष्यमात्र का बोधक है, अब चाहे वह मनुष्य पुल्लिंग, स्त्रीलिंग या नपुंसकलिंग हो ।

पुरुष का स्वरूप
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कठोपनिषद् (१.३.१०--११) में कठ ऋषि पुरुष के स्वरूप को स्पष्ट करते हैंः---

"इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः । महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः । पुरूषात् न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः ।।"

अर्थः---अव्यक्त से पुरुष परे हैं । पुरुष से परे कुछ नहीं । वह अन्तिम स्थान और परे से भी परे की गति है ।

उसे ही अन्यत्र परम-पुरुष कहा है---"परात् परं पुरुषम् उपैति दिव्यम् ।" (मुण्डकोपनिषद्--३.२.८)

अर्थात् परा प्रकृति से परे दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है ।

उसी के लिए वेदमन्त्र अलौकिक रूप में कहता है---"आनीदवातं स्वधया तदेकम् ।" (ऋग्वेदः--१०.१२९.२)

अर्थात्---प्राण लेता था---जीवित था, विना वायु के, स्वधा-प्रकृति से (युक्त), वह एक अद्वितीय ।

पुरुष का सब पर अधिष्ठानः---
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इस दिव्य परम पुरुष के विना सृष्टि का प्रादुर्भाव असम्भव था । एक शिष्य ने श्वेताश्वतरोपनिषद् में ऋषि से प्रश्न किया----"कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुषः इति चिन्त्यम् ।।"

जगत् की उत्पत्ति में काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पञ्चभूत, योनि (प्रकृति) तथा पुरुष में से प्रधान (मुख्य) कौन हैं , यह विचारणीय है ।

ऋषि ने उत्तर दिया----"कालादि सात कारणों में से प्रधान कारण पुरुष है । उसी का सबपर अधिष्ठान है ।

पुरुष के अन्य नाम
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(१.) क्षेत्रज्ञ----(l) मानव-धर्मशास्त्र में पुरुष के अर्थ में क्षेत्रज्ञ शब्द का प्रयोग हुआ है---(क) "यो अस्यात्मनः कारयिता ते क्षेत्रज्ञं प्रचक्षते ।" (१२.१२) (ख) "तावुभौ भूतसंसृतौ महान् क्षेत्रज्ञ एकश्च ।" (१२.१४)

(ll) आचार्य शंकर ने ब्रह्मसूत्र १.२.१२ और १.३.७ में पैङ्गि-रहस्य-ब्राह्मण तथा पैङ्गि-उपनिषद् से क्षेत्रज्ञ-विषयक दो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं---

(क) "तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति---इति । सत्त्वम् । अनश्नन् अन्यSभिचाकशीति । अनश्नन् अन्योSअभिपश्यति ज्ञः । तावेतौ सत्त्वक्षेत्रज्ञौ--इति ।....तदेतत् सत्त्वम् येन स्वप्नं पश्यति । अथ योSयं शारीर उपद्रष्टा स क्षेत्रज्ञः । तावेतौ सत्त्वक्षेत्रज्ञौ---इति ।।"

अर्थः----उन दोनों में से एक फल को अच्छे प्रकार भोगता है---वह भोक्ता सत्त्व है । न खाता हुआ एक, सब ओर देखता है, वह द्रष्टा ज्ञ है । वे दोनों सत्त्व और क्षेत्रज्ञ हैं । ...वही सत्त्व है, जिससे स्वप्न को देखता है । जो यह शरीर में देखने वाला है, वह क्षेत्रज्ञ है । ये दोनों सत्त्व और क्षेत्रज्ञ हैं ।

(ख) "यदापि पैंग्युपनिषत्कृतेन व्याख्यानेन .....। सत्त्वम् (प्रकृति क्षेत्रज्ञ ब्रह्म)"

(lll) पञ्चशिख के तन्त्र में----वर्त्तमान उपनिषदों में बहुत पूर्व आसुरि मुनि के प्रधान शिष्य चिरंजीवी महामुनि पञ्चशिख (कलि संवत् से १००० वर्ष पूर्व) के तन्त्र में यह शब्द बहुधा प्रयुक्त हुआ है ।

(lV) वेद में----ऋग्वेद---(१०.३२.७) में क्षेत्रविद् (क्षेत्रज्ञ) शब्द का प्रयोग हुआ है---
"अक्षेत्रवित्क्षेत्रविदं ह्यप्राट् स प्रैति क्षेत्रविदानुशिष्टः ।" ===============================
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