Sunday 5 March 2017

मानव के नव-निर्माण का आधार संस्कार-पद्धति है....

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मानव के नव-निर्माण का आधार संस्कार-पद्धति है....
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अगर यह बात ठीक है कि बालक जन्म-जन्मान्तर के और माता-पिता के संस्कारों को लेकर आता है, प्रश्न उठ खडा होता है कि संस्कार-पद्धति द्वारा इस एक छोटे-से जन्म में जो हम संस्कारों की प्रक्रिया करते हैं, उनसे जन्म-जन्मान्तरों के जमा हुए संस्कार कैसे घुल सकते हैं ।

हमने गत जन्मों में न जाने कितने कर्म किए, अच्छे किए, बुरे किए, उन सबको एक-एक करके भोगे बिना केवल इस जन्म के संस्कारों से कैसे बदला जा सकता है ? क्या ये एक जन्म के संस्कार पिछले इकट्ठे हुए अनन्त जन्मों के कर्मों के बोझ को , उन कर्मों से पडे हुए संस्कारों को मिटा सकते हैं ???

यहाँ "संस्कार" का प्रश्न "कर्म" का प्रश्न बन जाता है । क्या पिछले जन्म के कर्म-जन्य संस्कार को इस जन्म के "संस्कार" से मिटाया जा सकता है ???

"कर्म" के विषय में धर्म के चिन्तकों ने भिन्न-भिन्न विचारों को जन्म दिया है । कोई धर्म कहता है, मनुष्य की पीठ पर जो फरिश्ते हर समय हर काम को दो बहियों में लिखते रहते हैं ।

कोई मत यह कहता है कि चित्रगुप्त की बही में एक-एक काम, अच्छा हो, बुरा हो, दर्ज किया जाता है । हर काम की पडताल होती है, हर कर्म का फल मिलता है, जब तक एक-एक कर्म का फल नहीं मिल जाता, तब तक कर्म बैठा रहता है, मिटता नहीं ।

इन सब विचारों का आधारभूत विचार एक ही है । आधारभूत विचार यह है कि संसार का शासन कारण-कार्य के नियम से हो रहा है । कोई कार्य विना कारण के नहीं होगा और हर कारण का कार्य अवश्य होगा । जिसे हम "कारण" कहते हैं, वह पिछले जन्म का "कार्य" होता है, जिसे हम कार्य कहते हैं, वह अगले जन्म का "कारण" बन सकता है ।

इस प्रकार कारण-कार्य की व्यवस्था से कर्मों की शृंखला चलती चली जाती है । कर्मों की इस कारण-कार्य की शृंखला का क्या रूप है ?

क्या हर कर्म तब तक बैठा रहता है, जब तक उसका फल नहीं मिल जाता ???

अगर हमारे जीवन का नियन्त्रण जन्म-जन्मान्तरों के कर्मों के संस्कारों से होता है और उनके साथ माता-पिता के संस्कार भी मिल जाते हैं, जिन्हें भोगना पडता है, तब एक-एक कर्म का भुगतान करने के लिए इस जन्म के थोडे-से कर्म कैसे बस हो सकते हैं ????
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