Saturday 4 February 2017

गोमेध का निरूपण

!!!---: गोमेध का निरूपण :---!!!
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वैदिक विचारधारा में यज्ञों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । कालान्तर में यज्ञों का प्राधान्य हो जाने से वेदमन्त्रों का विनियोग यज्ञों में ही होने लगा और जैसे-जैसे यज्ञों का महत्त्व बढता गया, वैसे-वैसे वेदों का आध्यात्मिक और आधिभौतिक प्रक्रियानुसारी अर्थ गौण होता गया और याज्ञिक प्रक्रियानुसारी अर्थों में ही उनका पर्यावसान कर दिया ।

वेदमन्त्रों के केवल अधियाज्ञिक अर्थ किए जाने का प्रत्यक्ष प्रहार आधिदैविक प्रक्रिया पर हुआ । प्राचीन काल में आधिदैविक प्रक्रिया के अनुसार वेद के जो वैज्ञानिक अर्थ किए जाते थे, वे धीरे-धीरे लुप्त हेते गए । परिणामतः अत्युत्कृष्ट वैज्ञानिक सिद्धान्तों के प्रतिपादक मन्त्र चारण-भाटों के स्तुतिवाचन बनकर रह गए और इस प्रकार वेद का "सर्वज्ञानमयत्व" नष्ट हो गया । वेद के नाम पर पशुबलि और नरबलि दी जाने लगी ।

सायण का मुख्य उद्देश्य अपने आश्रयदाता हरिहर बुक्क द्वारा संस्थापित विजयनगरम् राज्य की प्रतिष्ठा बढाना था । उसके लिए उसने और उसके पश्चात् उवट्ट और महीधर ने वेदों को अपौरुषेय मानते हुए भी उनमें पशुहिंसा आदि अनेक अनर्थकारी बातों को स्वीकार कर लिया ।

अथर्ववेद के नवम काण्ड के चतुर्थ सूक्त में गौओं से सन्तानोत्पत्ति के लिए नियुक्त किए जाने वाले वृष्भ (साँढ) की महिमा का वर्णन है । वहाँ काव्यात्मक आलंकारिक शैली में यह उपदेश दिया गया है कि यदि किसी के घर में बहुत उत्तम कोटि का बछडा उत्पन्न हो तो उसे नगर की गौओं से सन्तान उत्पन्न करने के लिए दान कर देना चाहिए या उसे राज्य को सौंप देना चाहिए ।

वेद की दृष्टि में यह बडा पवित्र कार्य है, अतः विशेष यज्ञ का आयोजन करके ऐसे वृषभ को समाज को सौंप देना चाहिए ।

२४ मन्त्रों के इस सूक्त में वृष्भ के गुणों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह बहुत दूध देने वाली नस्ल की गौ की सन्तान हो (पयस्वान्) जिससे उससे उत्पन्न बछडियाँ भी बहुत दूध देने वाली हों, वडा तेजस्वी हो (त्वेषः) , सहस्रों सन्तान उत्पन्न करने समर्थ हो (साहस्रः), पुंस्त्वयुक्त हो (पुमान्) और पूर्ण जवान हो (स्थविरः) ।

वह उत्तम बछडे-बछडियों का पिता (पिता वत्सानाम्) और गौओं का पति (पतिरघ्न्यानाम्) हो । ऐसे वृषभ से बलवान् और सुन्दर बच्चे पैदा हों (त्वष्टा रूपाणां जनिता पशूनाम्) और उसके कारण अमृततुल्य दूध और घी से भरे घडे प्राप्त हों । (सोमेन पूर्णकलशं बिभर्षि, आज्यं बिभर्ति घृतमस्य रेतः) । यह सब तभी होगा जब वह सन्तान रूपी तन्तु को आगे फैला सकेगा (तन्तुमातान्) ।

सायणाचार्य आदि भाष्यकारों ने इतने उपयोगी सूक्त को बैल को मारक उसके मांस से यज्ञ करने में लगाया है । सायण ने इस सूक्त लके भाष्य की उत्थानिका में लिखा है----

"ब्राह्मणो वृषभं हत्वा तन्मांसं भिन्नभिन्नदेवताभ्यो जुहोति । तत्र वृषभस्य प्रशंसा तदङ्गानां च कतमानि कतमदेवेभ्यः प्रियाणि भवन्ति तद्विवेचनम् । वृषभबलिहवनस्य महत्त्वं च वर्ण्यते । तदुत्पन्नं श्रेयश्च स्तूयते ।"

अर्थात्---ब्राह्मण वृषभ को मारकर उसके मांस से भिन्न भिन्न देवताओं के लिए आहुति देता है । इसमें वृषभ की प्रशंसा और उसके अंगों से कौन-कौन अंग किस-किस देवता को प्रिय है---इसका विवेचन किया है और वृषभ की बलि देकर हवन करने के महत्त्व का और उससे प्राप्त होने वाले श्रेय का वर्णन है ।

इन भाष्यकारों ने इतना भी नहीं सोचा कि सूक्त में किया गया बैल का वर्णन यज्ञ में मारकर जला दिए गए बैल से कैसे मेल खा सकता है और मरे हुए बैल से बछडे-बछडियाँ उत्पन्न होकर कैसे घी-दूध से भरे घडे प्रदान कर सकती है ?



वेद में किए गए गोवध-निषेध और पशुयज्ञ-निषेध के रहते अथर्ववेद के इस सूक्त का अर्थ बैल को मारकर उसके मांस से यज्ञ में आहुतियाँ देने विषयक नहीं किया जा सकता ।
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