Saturday 21 January 2017

सप्त रश्मियाँ

!!!---: सप्त रश्मियाँ :---!!!
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शरीर के सात प्राण ही सप्त रश्मियाँ हैं । वे ही सप्त अर्चियाँ, सप्त होम, सप्त लोक, सप्त समिधाएँ और सप्तर्षि हैंः----
"सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः ।
सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा गुहाशया निहिताः सप्त सप्त ।।"
(मुण्डकोपनिषद्--२.१.८)
अर्थः---
सात लोकः----मनुष्य शरीर में दो आँख, दो कान, दो नाक और एक मुख ये सात लोक हैं ।
ये मानों सात गुफाएँ हैं, । इन गुफाओँ में प्रविष्ट हुए प्राण विचरते हैं ।
एक-एक में एक-एक प्राण है, अतः सातों में सात-सात प्राण हैं । ये सातों प्राण उसी से उत्पन्न होते हैं ।
इन सातों गुफाओं में प्राण-यज्ञ हो रहा है, सात होम हो रहे हैं, जिनमें विषय रूपी सात समिधाएँ पड रही हैं और इन समिधाओं के जलने से ज्ञान-रूपी सात अग्नियाँ ज्योति दे रहीं हैं । ये सब उसी विराट् पुरुष से हैं ।
तथा
"सप्त S ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम् ।
सप्तापः स्वपतो लोकमीयुस्तत्र जागृतो S अस्वप्नजौ सत्रसदौ च देवौ ।।"
(यजुर्वेदः--३४.५५)
ये ही आत्मा की सात परिधियाँ हैं । शरीर के भीतर रखी हुई अग्नि की ये सात चितियाँ हैं । द्युलोक, अन्तरिक्ष और पृथिवी में बँटकर ये सात अर्चियाँ या समिधाएँ सप्तत्रिक २१ प्रकार की हो जाती हैं । वेदों में त्रिःसप्त संख्या का अनेक स्थानों में वर्णन है ।
उसका अभिप्राय इन्हीं सप्त प्राणों की पृथिवी, अन्तरिक्ष और आकाश में फैली हुई तीन प्रकार की शक्तियों से है ।
ये तीन लोक शरीरस्थ केन्द्रीय नाडी जाल के ही विभाग हैं । सुषुम्णा के ३३ पर्व पृथिवी लोक है, ऊर्ध्व मस्तिष्क द्युलोक या स्वर्ग है, इनके बीच का भाग ही अन्तरिक्ष है ।
षट्चक्रों की सब चेतनाएँ और संज्ञाएँ अन्तरिक्ष में होकर ही मस्तिष्क में पहुँचती हैं, जहाँ से सातों प्राणों का नियमन होता है ।
नाभि से जंघाएँ पैर आदि पाताल लोक हैं, वहाँ अन्धकार रहता है । ज्ञान का अलौकिक स्थान तो स्वर्ग या मस्तिष्क है, वहीं मननात्मक देव रहते हैं ।
इन्द्र सातों प्राणों का नियामक है । आत्मज्ञान के लिए सप्त इन्द्रियों द्वारों का संयम परम आवश्यक है ।
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