Saturday 21 January 2017

विनियोग और अज्ञानी पण्डित

विनियोग और अज्ञानी पण्डित
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वेदमन्त्रों का किसी विशेष क्रिया में प्रयोग करना ही विनियोग है ।
विनियोग केवल वेद के विद्वान् जन या ऋषिजन कर सकते हैं ।
ये विनियोग प्राचीन काल में ही विभिन्न क्रियाओं में ऋषियों ने कर दिया था ।
विनियोग के लिेए विद्वत्ता, परम्परा, व्याकरण, निरुक्त, ब्राह्मण, दर्शन, उपनिषद्, आरण्यक की विद्वत्ता की आवश्यकता होती है ।
आजकल कोई भी विनियोग करने लग गया है । थोडा-सा ज्ञान क्या हासिल कर लिया, वेदों में सिर पटकने लग गए हैं ।
इस लेख को पढिए और हमारे मत पर समीक्षा कीजिए कि कैसे-कैसे लोग विनियोग करने लगे हैंः---
याज्ञिक-काल में जब वेद के उपयोग का एकमात्र केन्द्र बन गए, तब कर्मकाण्ड में साक्षात् अविनियुक्त वेदभाग निष्प्रयोजन न माना जाए, इसलिए वेद के समस्त मन्त्रों का कर्मकाण्ड के साथ येन-केन-प्रकारेण बलात् सम्बन्ध जोडने का प्रयत्न किया गया ।
मन्त्रों की मुख्यता समाप्त होकर विनियोजक ब्राह्मण ग्रन्थ ही मुख्य बन गए ।ब्राह्मण ग्रन्थों की मुख्यता यहाँ तक बढी कि "उरु प्रथस्व" आदि मन्त्रों में विद्यमान साक्षात् विधायक लोक, लिङ् और लेट् लकारों को विधायक न मानकर ब्राह्मणग्रन्थों के "प्रथयति" आदि पदों को ही विधि-अर्थ वाला (विधायक) माना गया ।
अर्थात् प्रारम्भ में मन्त्र के किसी पदविशेष के मुख्य अर्थ की उपेक्षा की गई, परन्तु उत्तरकाल में पूरे मन्त्र को ही अनर्थक मानकर उसके पदमात्र के सादृश्य से विनियोग की कल्पना की गई ।
"भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः" तथा "वक्ष्यन्ति वेदागनीगन्ति कर्णम्" आदि मन्त्रों का कर्णवेध-संस्कार में किया गया विनियोग ऐसा ही है । जैसे---कात्यायन गृह्य, कर्णवेध-संस्कार (पारस्कर गृह्य की टीका में उद्धृत) तथा संस्कार भास्कर बम्बई संस्करण पत्रा १४१ ख । संस्कारभास्कर के रचयिता ने इसी गृह्य के अनुसार यह विनियोग लिखा है ।
इन मन्त्रों में कोई भी ऐसा पद नहीं है, जो कर्ण के वेधन करने का वाचक हो । मन्त्रों में पठित कर्ण पदमात्र को देखकर आँख मीचकर कर्णवेध में इनका विनियोग कर दिया गया ।
उत्तरकाल में "पदैकदेशमात्र के सादृश्य से" विनियोग होने लगा । यथा---"दधिक्राव्णो अकारिषम्" का दधिभक्षण में । तत्पश्चात् अक्षरमात्र के सादृश्य से विनियोग की कल्पना हुई । यथा "शन्नो देवी" का शनैश्चर की और "उद्बुध्यस्व" का बुध की पूजा में ।
इस अनर्थक विनियोग का कुपरिणाम यह हुआ कि कौत्स जैसे बडे विद्वान् को कहना पडा , "अनर्थका हि मन्त्राः" ।
एक अन्य बात भी मैं कहना चाहुँगा कि "जो याज्ञिक प्रक्रिया प्रारम्भ में वेद के आधिदैविक वा आध्यात्मिक मुख्यार्थ का ज्ञान कराने के लिए कल्पित की गई थी, उसने अन्त में वेदों को भी अर्थरहित (निर्थक) बना दिया ।
यदि यास्क, जैमिनि और याज्ञवल्क्य आदि मन्त्र-आनर्थक्यवाद का प्रबल खण्डन न करते तो जो कुछ याज्ञिकप्रक्रियानुसारी टूटा-फूटा वेदार्थ उपलब्ध होता है, वह भी न मिलता और वेदमन्त्र सर्वथा तान्त्रिक मन्त्रों के समान निरर्थक समझे जाते ।
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