Sunday 21 August 2016

व्याकरण और निरुक्त दो विद्याएँ

!!!---: व्याकरण और निरुक्त दो विद्याएँ :---!!!
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कुछ वर्षों से विद्या के अभाव के कारण व्याकरण और निरुक्त का प्रायः शब्दनिर्वचन ही प्रयोजन माना है, परन्तु यह भूल है । इस भूल से अवगत कराने के लिए ही इस लेख का उपक्रम हुआ है ।

शास्त्रों में १४ अथवा १८ विद्याओं की गणना में छहों वेदाङ्ग स्वतन्त्र विद्यास्थान माने गए हैं---
(१.) वायु-पुराण (६१.७८) के अनुसार १४ विद्याँ इस प्रकार हैं---
"अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः ।
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश ।"

७९ वें श्लोक में भी आया है---
आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और सामवेद कूी गणना करके १८ विद्याएँ दर्शाईं हैं । यह गणना अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होती है ।

यदि व्याकरण और निरुक्त का एक ही प्रयोजन होता तो तो ये दो स्वतन्त्र विद्यास्थान न माने जाते । समान प्रयोजन मानने पर निरुक्त व्याकरण का परिशिष्ट मात्र बन जाता है । परन्तु निरुक्त-प्रवक्ता यास्क ने निरुक्त शास्त्र को स्वतन्त्र विद्यास्थान कहा है । यास्क का वचन है---

"तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य कार्त्स्न्यम्, स्वार्थसाधकं च ।" (निरुक्त--१.१५)
अर्थात्---निरुक्त स्वतन्त्र विद्याग्रन्थ है, व्याकरणशास्त्र का पूरक है और स्वप्रयोजन को सिद्ध करने वाला है ।

इससे स्पष्ट है कि व्याकरण और निरुक्त का एक ही प्रयोजन नहीं है ।

व्याकरण और निरुक्त के कार्यक्षेत्र का पार्थक्य
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यतः व्याकरण और निरुक्त दो पृथक् स्वतन्त्र विद्याएँ हैं, इसलिए इनका कार्यक्षेत्र भी पृथक्-पृथक् ही होना चाहिए, न कि एक ।

व्याकरण का कार्यक्षेत्र
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पाणिनि ने अपने शास्त्र के प्रथम सूत्र "अथ शब्दानुशासनम्" से अपने शास्त्र का प्रयोजन साधु शब्दों का ही अनुशासन (निर्वचन) बताया है । शब्दों का निर्वचन अर्थ की उपेक्षा करके नहीं हो सकता । इसलिए व्याकरण-प्रवक्ता को शब्दों के अर्थों की भी अपेक्षा करनी पडती है । यतः व्याकरण का मुख्य प्रयोजन शब्द-निर्वचन होता है, अतः वह अर्थनिर्देश को प्रधानता नहीं देता । अनेकार्थक शब्द के किसी एक सामान्य अर्थ को निमित्त मान कर वह प्रकृति-प्रत्यय-विभाग द्वारा शब्द का निर्वचन कर देता है ।

निरुक्त का कार्यक्षेत्र
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निरुक्त का कार्य है---अर्थनिर्वचन । शब्द-निर्वचन निरुक्त का प्रयोजन नहीं है । प्राचीन आर्चाय निरुक्तशास्त्र के इन प्रयोजन का प्रतिपादन बडे स्पष्ट शब्दों में करते हैं । यथा---

(१.) निरुक्तकार दुर्ग (५०० वि.सं.) निरुक्त की वृत्ति में लिखते हैं--
"तस्मात् स्वतन्त्रमेवेदं विद्यास्थानम् अर्थ-निर्वचनम् । व्याकरणं तु लक्षणप्रधानम् ।" (१.१५)
अर्थात्---इसलिए स्वतन्त्र ही है यह निरुक्त विद्या का स्थान, अर्थनिर्वचन-शास्त्र । व्याकरण तो लक्षण (शब्द) प्रधान है ।

(२.) प्रपञ्चहृदयकार का मत---
"तान्यवयवप्रत्यवयवविभागपूर्वकं स्वरवर्णमात्रादिभेदेनार्थनिर्वचनाय निर्वचनानि ।" (षडङ्ग-प्रकरण)
अर्थात्---अवयव प्रत्यवयव के विभागपूर्वक सर्व-वर्ण और मात्रादि के भेद से अर्थ के निर्वचन के लिए निरुक्तशास्त्र के निर्वचन है ।

(३.) सायण ऋग्भाष्य के उपोद्घात में निरुक्तशास्त्र का प्रयोजन लिखता है---
"एकैकस्य पदस्य संभाविता अवयवार्थस्तत्र निश्शेषेणोच्यन्त इति व्युत्पत्तेः ।" (षडङ्ग-प्रकरण)
अर्थात्---प्रत्येक पद के सम्भावित अवयवार्थ वहाँ (निरुक्तशास्त्र में) निश्शेष रूप से कहे गए हैं ।

निर्वचन शब्द का अर्थ ही "अर्थान्वाख्यान" है---वस्तुतः निर्वचन शब्द का अर्थ अर्थान्वाख्यान ही है, शब्दान्वाख्यान नहीं । यथा---

(४.) अनन्तभट्ट भाषिकसूत्र (३.६) की व्याख्या में लिखता है---
"निर्वचनं नाम अर्थस्यान्वाख्यानम् ।"
अर्थात्---निर्वचन शब्द अर्थान्वाख्यान (अर्थ का कथन) का वाचक है ।

(५.) निरुक्त का अन्तःसाक्ष्य
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निर्वचन शब्द प्रधानतया अर्थान्वाख्यान का ही वाचक है । इसके लिए हम निरुक्त का अन्तःसाक्ष्य भी उपस्थित करते हैं । यथा---

(क) निरुक्त में पचासों स्थानों पर शब्द का निर्वचन करके, और उदाहरणार्थ द्वितीय ऋक् उदाहृत करने से पूर्व लिखा मिलता है--
"तस्योत्तरा भूयसे निर्वचनाय ।"
अर्थात् पूर्व-प्रदर्शित अर्थ को अधिक स्पष्टता से प्रकट करने के लिए उत्तरा ऋक् उपस्थित की जाती है ।

निरुक्त में जहाँ-जहाँ "तस्योत्तरा भूयसे निर्वचनाय" लिखा है, वहाँ निर्वचन का अर्थ "अर्थान्वाख्यान" के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता । शब्दान्वाख्यान अथवा धातुनिर्देश की तो सम्भावना ही नहीं है ।

(ख) निरुक्त में अन्यत्र भी निर्वचन शब्द का प्रयोग "अर्थान्वाख्यान" अर्थ में मिलता है । यथा---
"अनिर्वचनं कपालानि भवन्ति ।" (७.२४)
अर्थात्---द्वादशकपाल आदि में निर्दिष्ट कपाल संख्या से वैश्वानर शब्द के अर्थ के निश्चय में सहायता नहीं मिलती ।

निर्वचन शब्द का अन्य अर्थ
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यद्यपि निरुक्त में निर्वचन शब्द का अर्थ "अर्थान्वाख्यान" ही है, तथापि निरुक्त के सहयोगी व्याकरणशास्त्र में निवचन-शब्द का अर्थ "शब्दान्वाख्यान" अर्थात् प्रकृति-प्रत्यय-निर्देश है ।

एक शास्त्र में उभयार्थक का प्रयोग
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कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ग्रन्थकार शब्द का पारिभाषिक अर्थ स्वयं लिख देते हैं, पुनरपि उस शब्द का प्रयोग स्व-अनभिप्रेत अर्थात् लोकप्रसिद्ध अथवा अन्यशास्त्र-प्रसिद्ध अर्थ में कर देते हैं । यथा---

(क) पाणिनि ने अष्टाध्यायी (४.१.१६२) में "गोत्र" शब्द का "पौत्र-प्रभृति अपत्य" अर्थ में संकेत करके भी अष्टा. ४.२.३९ आदि अनेक स्थानों में लोकप्रसिद्ध "अनन्तर अपत्यरूप" अर्थ में भी गोत्र शब्द का व्यवहार किया है ।

(ख) इसी प्रकार "बहुगणवतुडति संख्या" (अष्टा--१.१.२३) सूत्र द्वारा कृत्रिम अथवा पारिभाषिक सञ्ज्ञा का विधान करके भी "संख्याया अतिशदन्तायाः कन्" (अष्टा. ५.१.२२) में लोकप्रसिद्ध एक द्वि आदि संख्या का ग्रहण भी माना है ।

इसी दृष्टि से शास्त्रकारों का कथन है--
"उभयगतिः पुनरिह भवति ।" (महाभाष्य---१.१.२३)
अर्थात्---व्याकरण में कृत्रिम अथवा पारिभाषिक संज्ञाओं के रूप में प्रसिद्ध शब्द कहीं-कहीं लोकप्रसिद्ध अर्थ का भी ग्रहण कराते हैं ।

यथा व्याकरणे तथा निरुक्ते
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जिस प्रकार व्याकरण में स्वपारिभाषिक संज्ञाओं से पारिभाषिक अर्थ के अतिरिक्त लोकप्रसिद्ध अर्थ का भी बोध होता है , उसी प्रकार निरुक्त में भी अर्थान्वाख्यान के लिए परिभाषित निर्वचन शब्द से कहीं-कहीं शब्दान्वाख्यान रूप अर्थ का निर्देश भी उपलब्ध होता है । यथा---

"तानि चेत् समानकर्माणि समाननिर्वचनानि , नानाकर्माणि चेन्नानानिर्वचनानि ।" (निरुक्त २.७)

अर्थात्---यदि वे (समान) शब्द समान अर्थ के वाचक हों, तब उनका निर्वचन (शब्दान्वाख्यान--प्रकृति-निर्देश) समान होगा । यदि अर्थ भिन्न-भिन्न है, तो निर्वचन (प्रकृतिनिर्देश) भी भिन्न-भिन्न होगा ।

इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि निर्वचन शब्द का अर्थ निरुक्त में शब्दान्वाख्यान (प्रकृतिनिर्देश) ही है । केवल शब्दान्वाख्यान अर्थ मानने पर पचासों स्थानों पर प्रयुक्त "तस्योत्तरा भूयसे निर्वचनाय" तथा "अनिर्वचनं कपालानि" आदि वाक्यों में व्यवहृत "निर्वचन" शब्द का कोई संगत अर्थ उपपन्न ही न होगा । अतः निरुक्त में निर्वचन शब्द के दोनों अर्थ प्रत्येकव्यक्ति को मानने पडेंगे ।

प्रश्न इतना ही है कि---निरुक्त में निर्वचन शब्द का मुख्य अर्थ क्या है---अर्थान्वाख्यान अथवा शब्दान्वाख्यान ।

पूर्व उद्धृत प्रमाणों के प्रकाश में हमारा विचार है कि निरुक्त में निर्वचन शब्द का मुख्य अर्थ अर्थान्वाख्यान ही है, शब्दान्वाख्यान नहीं । यह तो पर-तन्त्र अभिप्रेत गौण अर्थ है ।

निरुक्त का वास्तविक नाम
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अज्ञानवश हम जिस शास्त्र का निरुक्त नाम से व्यवहार करते हैं, उसका वास्तविक नाम तो निर्वचन-शास्त्र है---

""अथ निर्वचनम् ।" (२.१) का अर्थ है---यहाँ से "निर्वचन" नामक शास्त्र का आरम्भ जानना चाहिए । तुलना करें---"शब्दानुशासनं नाम शास्त्रमधिकृतं वेदितव्यम् ।" (महाभाष्यम्---१.१.१)

"निरुक्त" शब्द"निघण्टु" का वाचक है---निघण्टु के लिए निरुक्त नाम का व्यवहार अनेक प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है----"सुवर्णनामधेयेषु लोहशब्द आम्नातो निरुक्ते--लोहं कनकं काञ्चनमिति ।" (कौषीतकि गृह्य भवत्रात-विवरण)

सायण ने भी ऋग्भाष्य के उपोद्घात में षडङ्ग-प्रकरण में "निघण्टु" के लिए निरुक्त शब्द का ही व्यवहार किया है ।

इसके अन्य अनेक प्रमाण हैं । विस्तारभय से रहने देते हैं ।

अत एव "समाम्नायः समाम्नातः" (१.१) से आरम्भ होने वाले ग्रन्थ के लिए प्राचीन ग्रन्थों में निरुक्तभाष्य शब्द का व्यवहार होता है । निरुक्त-भाष्य के लिए निरुक्त पद का व्यवहार लाक्षणिक है ।
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