Thursday 7 July 2016

उद्गीथ की उपासना

!!!---: छान्दोग्योपनिषद् की एक कथा :---!!!
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प्राचीन काल की कथा है- उद्-गीथ ओSम् कार की उपासना करने में पारंगत तीन महर्षियों शालावान् का पुत्र शिलक, चिकितायन का पुत्र दाल्भ्य तथा जीवल का पुत्र प्रवाहण परस्पर मिले और भगवान नारायण के उद्-गीथ की कथा पर संवाद करने लगे।



जीवल ने कहा- तुम दोनों महानुभाव परस्पर वार्तालाप करो और मैं सुनूँगा। तब शिलक ने दाल्भ्य को कहा-

शिलक: मैं तुमसे कुछ पूछूँ ?
दालभ्य: हाँ ! हाँ ! पूछो।

शिलक: साम की गति और उसका आश्रय क्या है ?
दालभ्य: स्वर ! स्वर में साम बसता है।

शिलक: स्वर का आश्रय क्या है ?
दालभ्य: प्राण , क्योंकि प्राण की ही शक्ति से स्वर निकलता है।

शिलक: तो फिर प्राण की गति क्या है ?
दालभ्य: अन्न है प्राण का आश्रय, इससे ही तो प्राण बच पाते हैं।

शिलक: अन्न का उद्भव किससे होता है ?
दालभ्य: जल ! जल से ही अन्न पैदा होता है।

शिलक: जल की गति कौन ?
दालभ्य: वह लोक होता है । सूर्य लोक जो कि स्वर्ग है।

शिलक: फिर स्वर्ग ??

दालभ्य: अब स्वर्ग को मत लांघो, क्योंकि स्वर्ग भी साम से स्थापित है। भगवान के इस उद्-गीथ से स्वर्ग ही तो प्राप्त होता है। तभी तो साम द्वारा स्वर्ग की स्तुति की जाती है।


हन्ताहमेतद्भगवतो वेदानीति विद्धीति होवाचामुष्य लोकस्य का गतिरित्ययं लोक इति होवाचास्य लोकस्य का गतिरिति न प्रतिष्ठां लोकमिति नयेदिति होवाच
प्रतिष्ठां वयं लोकँ सामाभिसँस्थापयामः प्रतिष्ठासँस्तावँ हि सामेति ॥ १. ८. ७ ॥

तब शिलक ने कहा- तुम्हारा साम तो आश्रय रहित है, यह तो तुच्छ फल प्रदान करेगा। तुम्हारा ज्ञान अभी कच्चा है। उपासना में प्रवीण कोई प्रश्नकर्ता मिल गया तो तुम्हारा सिर नीचा हो जायेगा।

दाल्भ्य निरुत्तर हो गया । विनम्रता पूर्वक बोला---"हे शिलक ! तुम ही बताओ कि स्वर्ग का आश्रय क्या है ?"

शिलक ने कहा- सुनो! स्वर्ग लोक का आश्रय यह पृथ्वी लोक है।
और इस पृथ्वी का आश्रय ?

यह प्रतिष्ठा लोक है इसके पार सोचना या जाना ठीक नहीं है। इसे हम साम से ही तो स्थापित करते हैं । इसी साम के फल से उत्तम मनुष्य योनि में जन्म प्राप्त होता है ।

तभी अब तक चुप बैठा ऋषि चिकितायन पुत्र प्रवाहण बोल पड़ा-

हे शिलक! तेरे साम का फल तो अंत करने वाला है, नाशवान है । यदि तुम्हे सामोपासना में प्रवीण कोई मिल गया तो उससे वार्तालाप करने में तेरा सिर गिर जायेगा (सिर नीचा हो जायेगा)। (१.८.१-१.८.८)
नवम् खण्ड

अस्य लोकस्य का गतिरित्याकाश इति होवाच सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्त आकाशं प्रत्यस्तं यन्त्याकाशो ह्येवैभ्यो ज्यायानकाशः परायणम् ॥१.९.१ ॥

स एष परोवरीयानुद्गीथः स एषोऽनन्तः परोवरीयो हास्य भवति परोवरीयसो ह लोकाञ्जयति य एतदेवं विद्वान्परोवरीयाँसमुद्गीथमुपास्ते ॥१.९.२॥
तँ हैतमतिधन्वा शौनक उदरशाण्डिल्यायोक्त्वोवाच यावत्त एनं प्रजायामुद्गीथं वेदिष्यन्ते परोवरीयो हैभ्यस्तावदस्मिँल्लोके जीवनं भविष्यति ॥ १. ९. ३ ॥

तथामुष्मिँल्लोके लोक इति स य एतमेवं विद्वानुपास्ते परोवरीय एव हास्यास्मिँल्लोके जीवनं भवति तथामुष्मिँल्लोके लोक इति लोके लोक इति ॥ १. ९. ४ ॥

शिलक ने पूछा- तो फिर यह पृथ्वी लोक का आश्रय क्या है?

प्रवाहण ने कहा-आकाश। जो परमात्मा का ही नाम है। यही सबका प्रकाशक भी है और परमेश्वर भी। समस्त प्राणी परमेश्वर से ही उत्पन्न होते हैं और उनकी मृत्यु भी आकाश में ही होती है। जन्म-मरण ईश्वर के ही हाथ है। इसके ऊपर कुछ भी नहीं। भगवान नारायण का धाम ही परम धाम है। यही उद्-गीथ भी है और अनंत भी। यह देशकाल से भी परे है। इन्हीं नारायण की उपासना से मनुष्य साधारण से महापुरुष हो जाता है। जो भी भगवद्भक्त नारायण के नाम को ही सर्वश्रेष्ठ समझ कर आराधना करता है वह सभी लोकों को जीत कर परम धाम को प्राप्त करता है।




छान्दोग्योपनिषद् का परिचयः----
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सामवेद की जैमिनी, कौथुमी और राणायनी आदि शाखाओं का ब्राह्मण भी छान्दोग्य ही है।

सामवेदीय उपनिषद के ताण्डय तलवकार महाब्राह्मण का ही एक अंश छान्दोग्योपनिषद है इसमें ४० प्रपाठक या अध्याय हैं।

प्रथम २५ प्रपाठक या अध्याय को प्रौढ़ ब्राह्मण और अगले पांच को षड्विश ब्राह्मण कहते हैं।

इसके साथ ८ प्रपाठक छान्दोग्योपनिषद और २ प्रपाठक मन्त्र ब्राह्मण मिलाकर ४० अध्याय ही तांडय महाब्राह्मण कहा जाता है।

वेद के यही मन्त्र ‘छन्दस्’ कहे जाते हैं और पढने और गान करने वाले ब्राह्मणो को ‘छान्दोग’।

इनमें सात प्रमुख छंद होते हैं-गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती ।

इनके भी ८ प्रकार हैं - आर्षी, दैवी, आसुरी, प्राजापत्या, याजुषी, साम्नी, आर्ची और ब्राह्मी। इस प्रकार कुल ५६ भेद कहे जाते हैं। इसके पश्चात भी ७ अतिछंद, ७ विछंद आदि के साथ अनेक भेद हो जाते हैं।

इन्ही की संहिता ग्रन्थ को छान्दोग्य कहा गया। ज्ञान के यही रहस्य जो गुरु के समीप रहकर प्राप्त किये गए हैं, उपनिषद कहलाये। इनमें वेदों का तत्व-सिद्धांत और सार है, यही वेदांत हैं।
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