Sunday 7 May 2017

वैदिक और लौकिक में भेद


वैदिक और लौकिक में भेद है या नहीं....
===========================
www.vaidiksanskritk.com

साम्प्रतिक वैयाकरणों का मानना है कि शब्द दो प्रकार के हैं--- लौकिक संस्कृत laukik sanskrit और वैदिक-संस्कृत
मीमांसा में लिखा है--"आदौ लौकिकवैदिकशब्दार्थयोरविशेषः"(४)
सृष्टि के आरम्भ में वैदिक और लौकिक शब्दों में तथा उनके अर्थों में कोई भेद नहीं था ।
भारतीय ऐतिहासिक परम्परानुसार वेद का प्रादुर्भाव सृष्टि के आरम्भ में माना जाता है । जगद्रचयिता आदि गुरु मनीषी स्वयम्भू ब्रह्म मानवों के कल्याण के लिए उनके हृदय में वेद का प्रकाश करता है ।
इसी के द्वारा मानवीय व्यवहार का प्रादुर्भाव होता है । शनैः शनैः जैसे जैसे मानवों का सांसारिक पदार्थों से परिचय बढता जाता है, वैसे-वैसे उन्हें पदार्थों के नामकरण के लिए शब्दों की आवश्यकता पडती है ।
अतः प्रारम्भ में पदार्थों के नामकरण तथा समस्त व्यवहारोपयोगी शब्दों का निर्माण और उनके अर्थों का निर्धारण कैसे किया गया इसका निर्देश भगवान् स्वयम्भुव मनु महाराज ने इन शब्दों में किया है---
"सर्वेषां तु नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।
वेदशब्देभ्य एव आदौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ।।"
सृष्टि के आरम्भ में सब पदार्थों की संज्ञाएँ, शब्दों के पृथक् पृथक् (विभिन्न कर्म) अर्थ और शब्दों की संस्था (रचनाविशेष) सब विभक्ति वचनों के रूपों का निर्धारण ब्रह्मा ने किया ।

क्योंकि मानुष वाग्व्यवहार का आरम्भ वैदिक वाक् से हुआ, अतः प्रारम्भ में लौकिक-वैदिक शब्द समान थे । उनमें कोई ऐसा भेद न था कि यह वैदिक ही है, इसका लोक में व्यवहार नहीं करना चाहिए ।इसी प्रकार शब्दों के अर्थों में भी लौकिक-वैदिक भेद नहीं था । आज भी सहस्रों वर्षों के बाद भी अनेक परिस्थितियों के बदल जाने पर भी ९० प्रतिशत लौकिक-वैदिक शब्द समान है । इसी प्रकार जिन शब्दों का जो अर्थ लोक में प्रसिद्ध है, प्रायः वे अर्थ वेद में हैं । भेद इतना है कि वेद में शब्दार्थ-सम्बन्ध अधिक विस्तृत है ।

आरम्भ में लौकिक-वैदिक शब्द और अर्थ के समान होने पर उत्तरकाल में क्यों भेद हो गया ??? इसका कारण देखिए---

"मतिमान्द्याद् धारणाशक्तेर्ह्रासादायुषः क्षयान् म्लेच्छनत्वाच्च शब्थार्थयोर्यथाकालं ह्रासः ।"

मनुष्यों की बुद्धि की न्यूनता, धारणा शक्ति का ह्रास, आयु का क्षय और म्लेच्छ भाषाओं की उत्पत्ति के कारण उत्तरोत्तर शब्द और उनके अर्थों में ह्रास हुआ ।

सृष्टि के आदि में मनुष्य सत्त्वगुणविशिष्ट थे, उत्तरोत्तर उनमें रजोगुण और तमोगुण की वृद्धि धारणाशक्ति और आयु अल्प होती गई । अज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ म्लेच्छ भाषाओं की उत्पत्ति और वृद्धि हुई । उससे आदिकाल की अतिविस्तृत दैवी भाषा शब्द और अर्थ की दृष्टि से क्षीण होती गई । जो शब्द लोक-व्यवहार में आने बन्द हो गए और उनके स्थान पर अपभ्रंश शब्दों का व्यवहार होने लगा, वे शब्द उस समय की भाषा से लुप्त हो गए । इसी प्रकार शब्दों के अर्थ भी पहले बहुत विस्तृत थे । उनमें भी मतिमान्द्य आदि के कारण ह्रास हुआ । इस प्रकार शनैः शनैः शब्दों और अर्थों का ह्रास होते-होते दैवी भाषा शब्द और अर्थ की दृष्टि से अतिक्षीण हो गई और उनमें क्षीणता को कारण वैदिक वाक् और पाणिनि कालिक वाक् में अन्तर प्रतीत होने लगा ।

भगवान् पतञ्जलि ने लिखा है कि दैवी का प्रयोग क्षेत्र सप्त द्वीप वसुमति था । इतने विस्तृत क्षेत्र में व्याप्त अगाध शब्दभण्डार वाली दैवी वाक् के सब शब्द सब स्थानों पर प्रयुक्त नहीं होते थे । कोई शब्द कहीं बोला जाता था, कोई कहीं । इतना ही नहीं, किसी शब्द की कोई धातु क्रियारूप में कहीं बोली जाती थी और उसका कृदन्त रूप कहीं अन्यत्र बोला जाता था---

"सर्वे खल्वप्येते शब्दा देशान्तरे प्रयुज्यन्ते । न चैवोपलभ्यन्ते ? उपलब्धौ यत्नः क्रियताम् । महान् हि शब्दस्य प्रयोगविषयः । सप्तद्वीपा वसुमती, त्रयो लोकाः, चत्वारो वेदाः, साङ्गाः रहस्याः बहुधाभिन्नाः, एकशतमध्वर्युशाखाः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः, एकविंशतिधा बाह्वृच्यम्, नवधाथर्वणो वेदः, वाकोवाक्यम्, इतिहासः, पुराणम्, एत्येतावाञ्छब्दस्य प्रयोगविषयः । एतस्मिंश्चातिमहति शब्दस्य प्रयोगविषये ते ते शब्दास्तत्र तत्र नियतविषयाः दृश्यन्ते । तद्यथा शवतिर्गतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाषितो भवति, विकार एनमार्या भषन्ते शव इति । हम्मतिः सुराष्ट्रेषु, रंहतिः प्राच्यमगधेषु, गमिमेव त्वार्याः प्रयुञ्जते । दातिर्लवनार्थो प्राच्येषु , दात्रमुदीच्येषु ।" (महाभाष्य)


Website :---
www.vaidiksanskritk.com
www.shishusanskritam.com
चाणक्य-नीति पढें---
www.facebook.com/chaanakyaneeti
वैदिक साहित्य की जानकारी प्राप्त करें---
www.facebook.com/vaidiksanskrit
www.facebook.com/shabdanu
लौकिक साहित्य पढें---
www.facebook.com/laukiksanskrit
सामान्य ज्ञान प्राप्त करें---
www.facebook.com/jnanodaya
संस्कृत सीखें---
www.facebook.com/shishusanskritam
संस्कृत निबन्ध पढें----
www.facebook.com/girvanvani
संस्कृत काव्य का रसास्वादन करें---
www.facebook.com/kavyanzali
संस्कृत सूक्ति पढें---
www.facebook.com/suktisudha
संस्कृत की कहानियाँ पढें---
www.facebook.com/kathamanzari

No comments:

Post a Comment