Friday 25 March 2016

षष्ठ वेदांग--ज्योतिष्

ज्योतिष् का महत्त्वः----

छः वेदांगों में ज्योतिष् नामक वेदांग का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है । यह अन्तिम वेदांग है । इसे वेदपुरुष का चक्षु कहा गया हैः----

"ज्योतिषामयनं चक्षुः ।" (पाणिनीय शिक्षा)

जिस प्रकार आँख से हीन व्यक्ति अपने कार्य सम्पादन में असमर्थ रहता है, उसी प्रकार ज्योतिष्-ज्ञान से रहित व्यक्ति वैदिक कार्यों में सर्वथा अन्धा ही रहता है ।

वेद की प्रवृत्ति या उपयोगिता यज्ञ के सम्पादन में है । यज्ञ का विधान विशिष्ट समय की अपेक्षा रखता है । कुछ यज्ञों का विधान संवत्सर की दृष्टि से होता है और कुछ यज्ञ ऋतु की दृष्टि से किए जाते हैं । एक उदाहरण द्रष्टव्य हैः---

"वसन्ते ब्राह्मणो अग्निमादधीत ग्रीष्मे राजन्य आदधीत । शरदि वैश्य आदधीत ।" (तैत्तिरीय-ब्राह्मण---1.1)

अर्थः---ब्राह्मण वसन्त ऋतु में यज्ञ का आधान करें । क्षत्रिय ग्रीष्म ऋतु में यज्ञ का आधान करें, और वैश्य शरद् ऋतु में अग्नि का आधान करे ।

कुछ ऐसे यज्ञ भी हैं , जिनका समय किसी विशेष मास , विशेष पक्ष या किसी विशेष तिथि में होता है । उदाहरण के लिएः----

"फाल्गुनी पूर्णमासे दीक्षेरन् ।" (ताण्ड्य-ब्राह्मणः---1.1)

अर्थः-----फाल्गुन मास की पूर्णिमा को दीक्षा दी जाए ।

इसी प्रकार पञ्च महायज्ञों में प्रातःकाल और सायंकाल को दुग्ध और घृत से आहुति देने की बात कही गई हैः----

""प्रातर्जुहोति सायं जुहोति ।" (तै.ब्रा.---2.1.2)


ज्योतिष् का महत्त्व इस विषय में है कि कब कौन-सा यज्ञ किया जाए । कौन-सा विशेष यज्ञ किस संवत्सर में, किस ऋतु में, किस मास में, किसी तिथि में और किस समय किया जाए । काल के किसी भी खण्ड को जानने के लिए ज्योतिष् शास्त्र आवश्यक है । ज्योतिष् शास्त्र के बिना यज्ञ को ठीक ढँग से नहीं किया जा सकता । जो व्यक्ति ज्योतिष् को जानता है, समझो वही यज्ञ को भी जानता है । इसका अभिप्राय यही है कि जो ज्योतिष् को नहीं जानता वहयज्ञ को भी नहीं जानताः---

यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम् ।

ज्योतिष् वेदांग गणना पर आधारित है । उचित काल ज्ञान के लिए ग्रह-नक्षत्र आदि की भौतिक दशा को ध्यान में रखा जाता है । यह सब गणित पर ही निर्भर करता है । इसीलिए ज्योतिष् और गणित ये दोनों पर्यायवाची हैं । वेदांग-ज्योतिष् में गणित को इसीलिए मूर्धन्य स्थान दिया गया हैः----

यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा ।
तद्वत् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम् ।।

अर्थः----जैसे मोर की शिखा उनके सिर पर होती है, जैसे साँप ती मणियाँ उनके सिर पर होती है, उसी प्रकार सब वेदांगों के ऊपर गणित (ज्योतिष्) वेदांग रहता है ।

प्रतिनिधि ग्रन्थ----

वेदांग ज्योतिष् का प्रतिनिधि ग्रन्थ दो प्रकार से हैं । एक---ऋग्वेद से सम्बन्ध रखने वाला ज्योतिष् ग्रन्थ---आर्च ज्योतिष् और यजुर्वेद से सम्बन्ध रखने वाला ज्योतिष् ग्रन्थ----याजुष ज्योतिष् ।

आर्च ज्योतिष्----इसमें 43 श्लोक हैं । याजुष ज्योतिष् में 36 श्लोक हैं ।

वेदांग ज्योतिष् ----

सम्प्रति ज्योतिष् से सम्बन्धित एक ही प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध है----जिसका नाम है---वेदांग ज्योतिष् । इसके कर्त्ता हैं---महर्षि लगध । इस ग्रन्थ के दो भाग हैं । पहले का नाम है---आर्च ज्योतिष् । इसमें ऋग्वेद से सम्बन्धित श्लोक है, कुल 36 हैं । दूसरे भाग का नाम है----याजुष ज्योतिष् । इसमें यजुर्वेद से सम्बन्धित श्लोक है, कुल श्लोक हैं---43 । कुछ श्लोक दोनों भागों में एक समान है । इस ग्रन्थ की भाषा बहुत ही क्लिष्ट और दुरुह है । इस ग्रन्थ पर सोमाकर नामक लेखक की एक टीका उपलब्ध होती है ।

इस ग्रन्थ पर कुछ पाश्चात्य लेखकों ने भी जोर आजमाइश की है , जिनमें से हैंः---विलियम जोंंस, प्रो, बेवर, प्रो. व्हिटनी, प्रो. कोलब्रुक, डॉ. थीबो, ।

अन्य कुछ भारतीयों ने भी जोर लगाया हैः----पं. शंकर बालकृष्ण दीक्षित, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, पं. सुधाकर द्विवेदी, श्री शाम शास्त्री, डॉ. सत्यप्रकाश सरस्वती, प्रो. टी. एस. कुप्पन्न शास्त्री आदि ।

इस ग्रन्थ का समय कुप्पन्न ने लगभग 1370 ई. पू. निर्धारित किया है । श्री शंकर बालकृष्ण ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि इस ग्रन्थ का समय 1400 ई. पू. है ।

वर्ण्य-विषयः--

-इस ग्रन्थ के मुख्य प्रतिपाद्य विषय हैः---

(1.) काल का विभाजन,
(2.) नक्षत्र और नक्षत्र देवता,
(3.) युग के वर्ष,
(4.) काल-तिथि का निर्धारण,
(5.) अयन-पर्व का निर्धारण,
(6.) नक्षत्रों का काल विभाजन,
(7.) तिथि-नक्षत्र,
(8.) नक्षत्र और पर्व का काल निर्धारण,
(9.) अधिक मास आदि ।

काल विभाजन

10 मात्रा---1 काष्ठा,
124 काष्ठा---1 कला
10+1/2=1 नाडिका (24 मिनट)
2 नाडिका---1 मुहूर्त (48 मिनट)
30 मुहूर्त---1 दिन, (अहोरात्र, 24 घण्टे)
366 दिन---1 सौर वर्ष (12 सौर मास, 6 ऋतु, 2 अयन---उत्तरायण और दक्षिणायन )
5 सौर वर्ष---1 युग

एक युग के पाँच सौर वर्षों के नाम---

युगस्य पञ्चवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते ।(याजुष ज्योतिष्--5, आर्च---32)
यजुर्वेद में इन पांच वर्षों के नाम दिए हैं---
(1.) संवत्सर, (2.) परिवत्सर, (3.) इदावत्सर, (4.) इद्वत्सर (5.) वत्सर । (यजुर्वेदः--27.45)----

संवत्सरोसि परिवत्सरः इदावत्सरः इद्वत्सरः वत्सर । यजुर्वेदः--27.45)

यही नाम शत्पथ-ब्राह्मण (8.1.4.1) में भी दिए हैं । तैत्तिरीय-ब्राह्मण (3.10.4.1) और तैत्तिरीय-आरण्यक (4.19.1) में एक नाम में थोडा अन्तर है । इनमें चतुर्थ वर्ष का नाम अनुवत्सर और पञ्चम नाम इद्वत्सर है ।

पाँच वर्ष का युग मानने का कारण यह है कि ठीक 5 वर्ष बाद सूर्य और चन्द्रमा राशिचक्र के उसी नक्षत्र पर पुनः एक सीथ में होते हैं ।

27 नक्षत्रों के नाम---

इसमें एक ही श्लोक में 27 नक्षत्रों के नाम दिए गए हैं । प्रत्येक नक्षत्र का आदि, मध्य या अन्त का अक अक्षर लिया गया है । यह श्लोक लगध के पाण्डित्य का प्रदर्शक है कि एक छोटे से अनुष्टुप् (32 अक्षर वाले) छन्द में 27 नक्षत्रों के नाम दे दिए हैं और शेष 5 अक्षर में अपनी शेष बात भी पूरी कह दी हैः---

जौ द्रा गः खे श्वेsही रो षा
चिन् मू ष ण्यः सू मा धा णः ।
रे मृ घाः स्वा ssपो sजः कृ ष्योः
ह ज्ये ष्ठा इत्यृक्षा लिंगैः ।। (याजुष 18, आर्च 14)

इसका विवरण इस प्रकार हैः---
जौ--अश्वयुजौ (अश्विनी)
द्रा---आर्द्रा, गः---भगः (उत्तरा फाल्गुनी ) , खे---विशाखे (विशाखा), श्वे--विश्वेदेवाः (उत्तरा आषाढा), अहिः---अहिर्बुध्न्य (उत्तरा भाद्रपदा) , रो--रोहिणी, षा---आश्लेषा, चित्--चित्रा, मू---मूल, ष--शतभिषक्, ण्यः---भरण्यः (भरणी), सू--पुनर्वसू (पुनर्वसु), मा---अर्यमा (पूर्वा फाल्गुनी), धा---अनुराधा, णः--श्रवणः (श्रवणा), रे---रेवती, मृ---मृगशिरस् (मृगशिरा) घाः---मघाः (मघा), स्वा--स्वाति, आपः--आपः (पूर्वा अषाढा) अजः---अज एकपाद् (पूर्वा भाद्रपदा ) , कृ---कृत्तिकाः (कृत्तिका) ष्यः--पु्ष्य, ह--हस्त, ज्ये---ज्येष्ठा, ष्ठाः---श्रविष्ठा ।

ज्योतिष् के परकालीन ग्रन्थों में 12 राशियों का मख्यरूप से उल्लेख मिलता है, परन्तु वेदांग-ज्योतिष् में राशियों का कहीं भी नामोल्लेख नहीं हुआ है ।




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