त्रिविधा वाक्
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"ओ३म् सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वधायाः । इन्द्रस्य त्वा भागं सोमेना तनच्मि विष्णो हव्यं रक्ष ।।" (यजुर्वेदः--१.४)
पदार्थः---
हे (विष्णो) व्यापक ईश्वर ! आप जिस वाणी का धारण करते हैं (सा) वह (विश्वायुः) पूर्ण आयु की देने वाली (सा) वह (विश्वकर्मा) जिससे सम्पूर्ण क्रियाकाण्ड सिद्ध होता है और (सा) वह (विशवधायाः) सब जगत् को विद्या और गुणों से धारण करने वाली है। पूर्वमन्त्र में जो प्रश्न हैं, उसके उत्तर में यही तीन प्रकार की वाणी ग्रहण करने योग्य है. इसी से मैं (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (भागम्) सेवन करने योग्य यज्ञ को (सोमेन) विद्या से सिद्ध किए रस अथवा आनन्द से (आ तनच्मि) अपने हृदय में दृढ करता हूँ तथा हे परमेश्वर ! (हव्यम्) पूर्वोक्त यज्ञ-सम्बन्धी देने लेने योग्य द्रव्य वा विज्ञान की (रक्ष) निरन्तर रक्षा कीजिए ।
टिप्पणी---तीन प्रकार की वाणी ये हैं---(१.) ऐसी वाणी बोलिए, जिससे आयु बढ जाए--पूर्ण आयु की देने वाली । (२.) यदि आप वाणी का सही समय पर सही प्रयोग करेंगे तो आपके सभी कार्य सिद्ध हो जाएँगे---जिससे सम्पूर्ण क्रियाकाण्ड सिद्ध होता है । (३.) वाणी से ही विद्या और गुणों का विकार होता है--- सब जगत् को विद्या और गुणों से धारण करने वाली है।
भावार्थः--
तीन प्रकार की वाणी होती है अर्थात् प्रथम वह जो कि ब्रह्मचर्य में पूर्ण विद्या पढने वा पूर्ण आयु होने के लिए सेवन की जाती है । दूसरी वह जो गृहाश्रम में अनेक क्रिया वा उद्योगों से सुखों की देने वाली विस्तार से प्रकट की जाती है और तीसरी वह जो इस संसार में सब मनुष्यों की शरीर और आत्मा के सुखों की वृद्धि वा ईश्वर आदि पदार्थों के विज्ञान को देने वाली वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में विद्वानों से उपदेश की जाती है ।
इस तीन प्रकार की वाणी के विना किसी को सब सुख नहीं हो सकते, क्योंकि इसी से पूर्वोक्त यज्ञ तथा व्यापक ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करनी योग्य है । ईश्वर की यह आज्ञा है कि जो नियम से किया हुआ यज्ञ संसार में रक्षा का हेतु और प्रेम सत्यभाव से प्रार्थित ईश्वर विद्वानों की सर्वदा रक्षा करता है । वही सबका अध्यक्ष है, परन्तु जो क्रिया में कुशल धार्मिक परोपकारी मनुष्य हैं, वे ही ईश्वर और धर्म को जानकर मोक्ष और सम्यक् क्रियासाधनों से इस लोक और परलोक के सुख को प्राप्त होते हैं ।
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"ओ३म् सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वधायाः । इन्द्रस्य त्वा भागं सोमेना तनच्मि विष्णो हव्यं रक्ष ।।" (यजुर्वेदः--१.४)
पदार्थः---
हे (विष्णो) व्यापक ईश्वर ! आप जिस वाणी का धारण करते हैं (सा) वह (विश्वायुः) पूर्ण आयु की देने वाली (सा) वह (विश्वकर्मा) जिससे सम्पूर्ण क्रियाकाण्ड सिद्ध होता है और (सा) वह (विशवधायाः) सब जगत् को विद्या और गुणों से धारण करने वाली है। पूर्वमन्त्र में जो प्रश्न हैं, उसके उत्तर में यही तीन प्रकार की वाणी ग्रहण करने योग्य है. इसी से मैं (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (भागम्) सेवन करने योग्य यज्ञ को (सोमेन) विद्या से सिद्ध किए रस अथवा आनन्द से (आ तनच्मि) अपने हृदय में दृढ करता हूँ तथा हे परमेश्वर ! (हव्यम्) पूर्वोक्त यज्ञ-सम्बन्धी देने लेने योग्य द्रव्य वा विज्ञान की (रक्ष) निरन्तर रक्षा कीजिए ।
टिप्पणी---तीन प्रकार की वाणी ये हैं---(१.) ऐसी वाणी बोलिए, जिससे आयु बढ जाए--पूर्ण आयु की देने वाली । (२.) यदि आप वाणी का सही समय पर सही प्रयोग करेंगे तो आपके सभी कार्य सिद्ध हो जाएँगे---जिससे सम्पूर्ण क्रियाकाण्ड सिद्ध होता है । (३.) वाणी से ही विद्या और गुणों का विकार होता है--- सब जगत् को विद्या और गुणों से धारण करने वाली है।
भावार्थः--
तीन प्रकार की वाणी होती है अर्थात् प्रथम वह जो कि ब्रह्मचर्य में पूर्ण विद्या पढने वा पूर्ण आयु होने के लिए सेवन की जाती है । दूसरी वह जो गृहाश्रम में अनेक क्रिया वा उद्योगों से सुखों की देने वाली विस्तार से प्रकट की जाती है और तीसरी वह जो इस संसार में सब मनुष्यों की शरीर और आत्मा के सुखों की वृद्धि वा ईश्वर आदि पदार्थों के विज्ञान को देने वाली वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में विद्वानों से उपदेश की जाती है ।
इस तीन प्रकार की वाणी के विना किसी को सब सुख नहीं हो सकते, क्योंकि इसी से पूर्वोक्त यज्ञ तथा व्यापक ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करनी योग्य है । ईश्वर की यह आज्ञा है कि जो नियम से किया हुआ यज्ञ संसार में रक्षा का हेतु और प्रेम सत्यभाव से प्रार्थित ईश्वर विद्वानों की सर्वदा रक्षा करता है । वही सबका अध्यक्ष है, परन्तु जो क्रिया में कुशल धार्मिक परोपकारी मनुष्य हैं, वे ही ईश्वर और धर्म को जानकर मोक्ष और सम्यक् क्रियासाधनों से इस लोक और परलोक के सुख को प्राप्त होते हैं ।
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