Wednesday, 7 June 2017

यज्ञ-मीमांसा-१

!!!---: यज्ञ-मीमांसा-१ :---!!!
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यज्ञ शब्द से अभिप्राय है--"द्रव्यं देवता त्याग" (कात्यायन श्रौतसूत्र--१.२.२) अर्थात् जिस कर्म में द्रव्य देवता और त्याग तीनों का सहभाव होता है, वह "यज्ञ" कहाता है ।

मीमांसा में इसकी परिभाषा है--"देवतोद्देशेन द्रव्यस्य त्यागो यज्ञः" (पूर्वमीमांसा)
अर्थात् देवता को उद्दिष्ट करके किसी द्रव्य का त्याग करना "यज्ञ" कहाता है ।

यहाँ त्याग से अभिप्राय है बुद्धिपूर्वक किसी को कोई वस्तु समर्पित करते हुए, उस वस्तु से स्व-स्वत्व की निीवृत्ति करना और जिसे वस्तु दी जा रही है, उसका उस वस्तु पर स्वत्व प्राप्त कराना ।

इस परिप्रेक्ष्य में "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्" (यजुर्वेदः--४०.१)
का अर्थ होगा--उस चराचर के ईश द्वारा जो भोज्य पदार्थ प्रदत्त है, उन्हीं का भोग करो । अन्य के धन (भोज्य पदार्थों) की आकांक्षा मत करो ।

यज्ञों में देवता-उद्देश से हव्य द्रव्य का त्याग प्रायः अग्नि में किया जाता है ।

द्रव्य-यज्ञों के भेद
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यज्ञों के दो भेद माने गए हैं---श्रौत और स्मार्त । श्रौत-यज्ञ से अभिप्राय है कि जिन यज्ञों का साक्षात् श्रुति (संहिता-ब्राह्मण ) में पठित किसी वचन से होता है, वह श्रौतयज्ञ होता है । स्मार्तयज्ञ वह होता है, जिनका विधान गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों में मिलता है ।

गृह्यसूत्रों में प्रधानतया संस्कार और गृहस्थ-उपयोगी कर्मों का विधान है और धर्मसूत्रों में मानवसमाज के विभाग विशिष्ट कर्त्तव्यकर्मों का निरूपण किया गया है । इसीलिए गृह्य और धर्मशास्त्रोक्त कर्मों का श्रुति में साक्षात् विधान नहीं मिलता । ऋषियों ने इन कर्मों का विधान करके स्मरण किया है । स्मरण करने के कारण ये स्मार्त कहलाते हैं । इसीलिए धर्मसूत्र "स्मृति" कहाते हैं ।

श्रुति और स्मृति में कभी किसी भी प्रकार से यदि विरोध हो तो श्रुति ही प्रमाण मानी जाती है ---"विरोधे त्वनपेक्षं स्यादसति ह्यनुमानम्" (पूर्व मीमांसा १.३.२)

श्रौत और स्मार्त के तीन भेद
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इन दोनों यज्ञों के पुनः तीन भेद हैं---नित्य, नैमित्तिक और काम्य ।

नित्य यज्ञ वे हैं, जिनका अनिवार्य रूप से प्रतिदिन दोनों समय किया जाना आवश्यक है । नित्य यज्ञ है--अग्निहोत्र से लेकर सोमान्त (अग्निहोत्र, दर्शमौर्णमास, चातुर्मास्य और सोमयाग) यज्ञ नित्य यज्ञ माने गए हैं---(आपस्तम्ब-श्रौतसूत्र--१.१.१)

इनका फल है कि कर्त्तव्य बुद्धि से क्रियमाण होने से इनका फल शुद्धि-पूर्वक मोक्षप्राप्ति है । कोई भी कर्म बिना फल के नहीं होता ।

महाभारतकार ने अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास और चातुर्मास्य को प्राचीन यज्ञ कहा है---
"दर्शं च पौर्णमासं च अग्निहोत्रं च धीमतः ।
चातुर्मास्यानि चैवासन् तेषु धर्मः सनातनः ।।"
(म.भा.शा.प.२६९.२०)

नैमित्तिक कर्म वे हैं जो गृहादि-दाह होने, भीषण भूकम्प आने अतिवृष्टि आदि निमित्त होने पर किए जाते हैं ।

काम्य कर्म वे हैं, जो ग्रामप्राप्ति, पशुप्राप्ति धनप्राप्ति यशःप्राप्ति आदि की कामना से किए जाते हैं , अर्थात् जिसकी कामना का उदय हो, उस समय उनकी पूर्ति के लिए किए जाते हैं । इस प्रकार विभिन्न कामनाओं के लिए भिन्न-भिन्न पचासों यज्ञ शाखा ब्राह्मण और श्रौत, गृह्य एवं धर्मसूत्रादि में कहे गए हैं । इन सब कर्मों का त्रेता युग में बहुत विस्तार हुआ---"तानि त्रेतायां बहुधा संततानि" (मुण्डकोपनिषद्--१.२.१)

इन तीनों श्रौत यज्ञों के भी तीन भेद हैं--पाकयज्ञ, सोमयाग और पशुबन्ध ।
पाकयज्ञ का सम्बन्ध मानव के भोज्य पदार्थ से हैं । जैसे--यव व्रीहि, तिल गोधूम दुग्ध दही घृत आदि । इन पदार्थों से हव्य द्रव्य पुरोडाश, चरु आदि को अग्नि पर पकाया जाता है ।

दूसरे यज्ञ सोमयाग है । इसमें सोम अथवा तत्स्थानीय पूतिका (तृणविशेष) होता है ।

तीसरा यज्ञ पशुबन्ध है, यह हविर्यज्ञ है । गौ, अज आदि पशुओं के विना यज्ञ सम्भव ही नहीं है । घृत, दुग्ध, दधि, गोमय आदि इन पशुओं से प्राप्त होते हैं । अतः यह यज्ञ है ।

इन तीनों पाकयज्ञ, सोमयाग और पशुबन्ध के सात-सात भेद हैंः---

गोपथ-ब्राह्मण (१.१.१२) में पैप्पलाद-संहिता (५.२८.१) को मन्त्र---"अग्निर्यज्ञं त्रिवृतं सप्ततन्तुम्" को उद्धृत करके आचार्य ने लिखा है---

"अथाप्येष प्राक्रीडितः श्लोकः प्रत्यभिवदति सप्त सुत्याः सप्त च पाकयज्ञा इति ।"

अर्थः---यज्ञ के त्रिवृत सात तन्तुओं (३गुणा७ ) अर्थात् इक्कीस भेद हैं ।

इस प्रकार सात पाकयज्ञ , सात सोमयाग और सात हविर्यज्ञ , कुल मिलाकर २१ यज्ञ हो जाते हैं----

"ते नो रत्नानि धत्तन त्रिरा साप्तानि सुन्वते । एकमेकं सुशस्तिभिः ॥" (ऋग्वेदः--१.२०.७)

वे उत्तम स्तुतियो से प्रशंसित होने वाले ऋभुदेव ! सोमयाग करने वाले प्रत्येक याजक को तीनो कोटि के सप्तरत्नो अर्थात इक्कीस प्रकार के रत्नो (विशिष्ट कर्मो) को प्रदान करें। (यज्ञ के तीन विभाग है - हविर्यज्ञ, पाकयज्ञ एवं सोमयज्ञ। तीनो के सात-सात प्रकार है। इस प्रकार यज्ञ के इक्कीस प्रकार कहे गये हैं।)

इन २१ यज्ञों के नाम गोपथ-ब्राह्मण में दिए हैं---

"सायंप्रातर्होमौ स्थालीपाको नवश्च यः ।
बलिश्च पितृयज्ञश्चाष्टका सप्तमः पशुरित्येते पाकयज्ञाः ।।
अग्न्याधेयमग्निहोत्रं पौर्णमास्यमावास्ये ।
नवेष्टिश्चातुर्मास्यानि पशुबन्धोत्र सप्तम इत्येते हविर्यज्ञाः ।।
अग्निष्टोमोत्यग्निष्टोम उक्थ्यषोडशिमांस्ततः ।
वाजपेयोतिरात्राप्तोर्यामात्र सप्तम इत्येते सुत्याः ।।"
(गोपथ-ब्राह्मण--१.५.२३)

(क) पाकयज्ञ---(१) सायंहोम, (२.) प्रातःहोम, (३.) स्थालीपाक, (४.) बलिवैश्वदेव, (५.) पितृयज्ञ, (६.) अष्टका और (७.) पशु ।

(ख) हविर्यज्ञ−(१.) अग्न्याधेय, (२.) अग्निहोत्र, (३.) दर्श, (४.) पूर्णमास, (५.) नवसस्येष्टि, (६.) चातुर्मास्य और (७.) पशुबन्ध ।

(ग) सोमयज्ञ−(१.) अग्निष्टोम, (२.) अत्यग्निष्टोम, (३.) उक्थ्य, (४.) षोडशी, (५.) वाजपेय, (६.) अतिरात्र, (७.) अप्तोर्याम।

इनमें प्रथम सात पाकयज्ञों का सम्बन्ध गृह्यसूत्रों से है । अतः ये स्मार्त यज्ञ है । इनका मन्त्र-ब्राह्मण के साथ साक्षात् सम्बन्ध नहीं है ।

शेष १४ यज्ञ (सात हविर्यज्ञ और सात सोमयाग) का सम्बन्ध साक्षात् मन्त्र-ब्राह्मण वा श्रौतसूत्रों से है । इसलिए ये १४ यज्ञ श्रौतयज्ञ (श्रुति प्रतिपादित यज्ञ) है ।

इन २१ नामों का कुछ भिन्न नाम भी अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध होता है ।

पाकयज्ञ का उल्लेख गृह्यसूत्रों में हुआ है । इन सात यज्ञों के अतिरिक्त भी गृह्यसूत्रों में उल्लेख है ।

कात्यायन श्रौतसूत्र में निर्दिष्ट श्रौतयागों के नाम

(१.) अग्न्याधान (अ.४)
(२.) अग्निहोत्र (अ.४)
(३.) दर्शपूर्णमास (अ.२-३-४)
(४.) दाक्षायणय यज्ञ (अ.४)
(५.) आग्रयणेष्टि (अ.४)
(६.) दर्विहोम, क्रैडिनीयेष्टि आदित्येष्टि, मिश्रविन्देष्टि (अ.५)
(७.) चातुर्मास्य (अ.५)
(८.) निरूढ पशुबन्ध (अ.६)
(९.) सोमयाग (अ ७--११)
(१०.) एकाह (अ.१२,२२)
(११.) द्वादशाह (अ. १२)
(१२.) सत्ररूप द्वादशाह (अ. १२)
(१३.) गवामयन (अ. १३.)
(१४.) वाजपेय (अ. १४ )
(१५.) राजसूय (अ. १५)
(१६.) अग्निचयन (अ. १६-१७-१८)
(१७.) सौत्रामणि (अ १९)
(१८.) अश्वमेध (अ. २०)
(१९.) पुरुषमेध (अ.२१)
(२०.) अभिचार-याग (अ. २०.)
(२१.) अहीन-अतिरात्र (अ.२३)
(२२.) सत्र (द्वादशाह के सहस्र--संवत्सरान्त) (अ. २४.)
(२३.) प्रवर्ग्य (अ. २६)

अन्य श्रौतसूत्रों में कुछ न्यूनाधिक यागों का वर्णन मिलता है ।
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