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दयानन्दकृत-भाष्य
“ओ३म् इषे त्वोर्ज्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणाSआप्यायध्वमघ्न्याSइन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाSअयक्ष्मा मा वस्तेनSईशत माघशंसो ध्रुवाSअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि ।।”
(यजुर्वेदः–१.१)
पदार्थान्यवयभाषाः—
हे मनुष्य लोगों ! जो (सविता) सब जगह की उत्पत्ति करने वाला सम्पूर्ण ऐश्वर्य युक्त (देवः) सब सुखों को देने और सब विद्या के प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है । सो (वः) तुम हम और अपने मित्रों के जो (वायवः) सब क्रियाओं के सिद्ध कराने हारे स्पर्श गुण वाले प्राण अन्तःकरण और इन्द्रियाँ (स्थ) हैं उनको (श्रेष्ठतमाय) अत्युत्तम (कर्मणे) करने योग्य सर्वोपकारक यज्ञादि कर्मों के लिए (प्रार्पयतु) अच्छी प्रकार संयुक्त करे । हम लोग (इषे) अन्नादि उत्तम-उत्तम पदार्थों और विज्ञान की इच्छा और (ऊर्जे) पराक्रम अर्थात् उत्तम रस की प्राप्ति के लिए (भागम्) सेवा करने योग्य धन और ज्ञान के भरे हुए (त्वा) उक्त गुण वाले और (त्वा) श्रेष्ठ पराक्रम आदि गुणों के देनेहारे आपका सब प्रकार के आश्रय करते हैं ।
हे मित्र लोगों ! तुम भी ऐसे होकर (आप्यायध्वम्) उन्नति को प्राप्त हो तथा हम भी हों ।
हे भगवन् जगदीश्वर ! हम लोगों के (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए (प्रजावतीः) जिनके बहुत सन्तान हैं तथा जो (अनमीवाः) व्याधि और (अयक्ष्माः) जिनमें राजयक्ष्मा आदि रोग नहीं हैं, वे (अघ्न्या) जो जो गौ आदि पशु वा उन्नति करने योग्य हैं जो कभी हिंसा करने योग्य नहीं हैं, कि जो इन्द्रियाँ वा पृथिवी आदि लोक हैं उनको सदैव (प्रार्पयतु) नियत कीजिए ।
हे जगदीश्वर ! आपकी कृपा से हम लोगों में से दुःख देने के लिए कोई (अघशंसः) पापी वा (स्तेनः) चोर डाकू (मा ईशत) मत उत्पन्न हो तथा आप इस (यजमानाय) परमेश्वर और सर्वोपकार धर्म के सेवन करने वाले मनुष्य के (पशून्) गौ, घोडे और हाथी आदि तथा लक्ष्मी और प्रजा की (पाहि) निरन्तर रक्षा कीजिए जिससे इन पदार्थों के हरने को पूर्वोक्त कोई दुष्ट मनुष्य समर्थ न हो । (अस्मिन्) इस धार्मिक (गोपतौ) पृथिवी आदि पदार्थों की रक्षा चाहने वाले सज्जन मनुष्य के समीप (बह्वीः) बहुत से उक्त पदार्थ (ध्रुवाः) निश्चल सुख के हेतु (स्यात) हों । इस मन्त्र की व्याख्या शतपथ ब्राह्मण में की है, उनका ठिकाना पूर्व संस्कृत भाष्य में लिख दिया और आगे भी ऐसा ही ठिकाना लिखा जाएगा, जिनको देखना हो, वह उन ठिकाने में देख लेवे ।
(श्रीर्हि पशवः)—शतपथ-ब्राह्मण–१.६.३.३६)
प्रजा वै पशवः—श.ब्रा. १.४.६.१७
अयं मन्त्रः शतपथ-ब्राह्मण–१.५.४.१–८) व्याख्यातः ।
भावार्थभाषाः—-
विद्वान् मनुष्यों को सदैव परमेश्वर और धर्मयुक्त पुरुषार्थ के आश्रय से ऋग्वेद को पढके गुण और गुणी को ठीक-ठीक जानकर सब पदार्थों के सम्प्रयोग से पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए अत्युत्तम क्रियाओं से युक्त होना चाहिए कि अच्छे-अच्छे कामों से प्रजा की रक्षा तथा उत्तम-उत्तम गुणों से पुत्रादि की शिक्षा सदैव करें कि जिससे प्रबल रोग विघ्न और चोरों का अभाव होकर प्रजा और पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हों । यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है । हे मनुष्य लोगों ! आओ अपने मिलके जिसने इस संसार में आश्चर्य रूप पदार्थ रचे हैं, उस जगदीश्वर के लिए सदैव धन्यवाद देवें । वही परम दयालु ईश्वर अपनी कृपा से उक्त कामों को करते हुए मनुष्यों की सदैव रक्षा करता है ।
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