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लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएँ हैं- एकविंशतिधा बाह्वृच्यम्। इनमें से उपलब्ध पाँच शाखाएँ हैं ---शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन।
"ऋक्" का अर्थ हैः--स्तुतिपरक-मन्त्र। "ऋच्यते स्तूयतेऽनयाया इति ऋक्।"
जिन मन्त्रों के द्वारा देवों की स्तुति की जाती है, उन्हें ऋक् कहते हैं।
ऋग्वेद में विभिन्न देवों की स्तुति वाले मन्त्र हैं, अतः इसे ऋग्वेद कहा जाता है। इसमें मन्त्रों का संग्रह है, इसलिए इसे "संहिता" कहा जाता है। संहिता सन्निकट वर्णों के लिए भी कहा जाता है, ऐसा पाणिनि का मानना हैः--"परः सन्निकर्षः संहिता।" (अष्टाध्यायी--१/४/१०९) लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
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ऋक् भूलोक है, (अग्नि देवता प्रधान)।
यजुः अन्तरिक्ष-लोक है, (वायु-देवता-प्रधान)।
साम द्युलोक है। (सूर्य-देवता-प्रधानः---"अयं (भूः) ऋग्वेदः।" (षड्विंश-ब्राह्मणः--१/५)
अत एव अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद, आदित्य से सामवेद और अङ्गिरा से अथर्ववेद की उत्पत्ति बताई गई है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
इस प्रकार कहा जा सकता है कि तीनों वेदों में तीनों लोकों का समावेश है। यजुर्वेद में इसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से की गई हैः--ऋग्वेद वाक्-तत्त्व (ज्ञान-तत्त्व या विचार-तत्त्व) का संकलन है। यजुर्वेद में मनस्तत्त्व (चिन्तन, कर्मपक्ष, कर्मकाण्ड, संकल्प) का संग्रह है तथा सामवेद प्राणतत्त्व (आन्तरिक-ऊर्जा, संगीत, समन्वय) का संग्रह है। इन तीनों तत्त्वों के समन्वय से ब्रह्म की प्राप्ति होती हैः--- "ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये साम प्रपद्ये।" (यजुर्वेदः--३६/१) लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
ब्राह्मण-ग्रन्थों में इसकी अन्य प्रकार से व्याख्या की गई हैः---
(क) ऋग्वेद ब्रह्म हैः---"ब्रह्म वा ऋक्" (कौषीतकि- ७/१०)
(ख) ऋग्वेद वाणी है----"वाक् वा ऋक्" (जैमिनीय-ब्राह्मण--४/२३/४)।
(ग) ऋग्वेद प्राण हैः--"प्राणो वा ऋक्" (शतपथः--७/५/२/१२)
(घ) ऋग्वेद अमृत हैः--"अमृतं वा ऋक्" (कौषीतकि--७/१०)।
(ङ) ऋग्वेद वीर्य हैः--"वीर्यं वै देवता--ऋचः" (शतपथ---१/७/२/२०)
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यज्ञों के चार प्रकार के ऋत्विक् होते हैंः--
(क) होता, (ख) अध्वर्यु, (ग) उद्गाता, (घ) ब्रह्मा ।
इसका वर्णन ऋग्वेद में आया हैः--- "ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान् गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु। ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उत्वः।।" (ऋग्वेदः--१०/७१/११)
(१.)
होताः---होता ऋग्वेद का ऋत्विक् है। यह यज्ञ में ऋग्वेद के मन्त्रों का पाठ करता है। ऐसी देवस्तुति वाली ऋचाओं का पारिभाषिक नाम "शस्त्र" है। इसका लक्षण हैः--"अप्रगीत-मन्त्र-साध्या स्तुतिः शस्त्रम्।" अर्थात् गान-रहित देवस्तुति-परक मन्त्र को "शस्त्र" कहते हैं।
(२.)
अध्वर्युः---अध्वर्यु का सम्बन्ध यजुर्वेद से है। यह यज्ञ के विविध कर्मों का निष्पादक होता है। यह प्रमुख ऋत्विक् है। यज्ञ में घृताहुति-आदि देना इसी का कर्म है।
(३.)
उद्गाताः---उद्गाता सामवेद का प्रतिनिधि ऋत्विक् है। यह यज्ञ में देवस्तुति में सामवेद के मन्त्रों का गान करता है।
(४.)
ब्रह्माः---ब्रह्मा अथर्ववेद का ऋत्विक् है। यह यज्ञ का अधिष्ठाता और संचालक होता है। इसके निर्देशानुसार ही अन्य ऋत्विक् कार्य करते हैं। यह चतुर्वेद-विद् होता है। यह त्रुटियों का परिमार्जन, निर्देशन, यज्ञिय-विधि की व्याख्या आदि करता है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
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पतञ्जलि ऋषि ने ऋग्वेद की २१ शाखाओं काउल्लेख किया हैः--"एकविंशतिधा बाह्वृच्यम्।" (महाभाष्य--पस्पशाह्निक)।
इसमें से सम्प्रति पाँच शाखाओं के नाम उपलब्ध होते हैंः---(१.) शाकल, (२.) बाष्कल, (३.) आश्वलायन, (४.) शांखायन और (५.) माण्डूकायन। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
(१.)
शाकलः--सम्प्रति यही शाखा उपलब्ध है। इसी का वर्णन विस्तार से आगे किया जाएगा।
(२.)
बाष्कलः--यह शाखा उपलब्ध नहीं है। शाकल में १०१७ सूक्त हैं, परन्तु बाष्कल में १०२५ सूक्त थे, अर्थात् ८ सूक्त अधिक थे। इन ८ सूक्तों का शाकल में संकलन कर लिया गया है। एक "
संज्ञान-सूक्त" के रूप में और शेष ७ सूक्त "
बालखिल्य" के रूप में
समाविष्ट कर लिया गया है। ये ७ सूक्त प्रथम ७ सूक्तों में सम्मिलित किया गया है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
(३.)
आश्वलायनः--इस शाखा की संहिता और ब्राह्मण उपलब्ध नहीं है, किन्तु श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र उपलब्ध है।
(४.)
शांखायनः---यह शाखा उपलब्ध नहीं है, किन्तु इसके ब्राह्मण, आरण्यक, श्रौत और गृह्यसूत्र उपलब्ध हैं।
(५.)
माण्डूकायनः--इस शाखा का कोई भी साहित्य उपलब्ध नहीं है।
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ऋग्वेद का विभाजन दो प्रकार से किया जाता हैः---(१.) अष्टक, अध्याय, वर्ग और मन्त्र। (२.) मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मन्त्र।
(१.)
अष्टक-क्रमः--इसमें आठ अष्टक हैं, प्रत्येक अष्टक में आठ-आठ अध्याय हैं, जिनकी कुल संख्या ६४ (चौंसठ) है। प्रत्येक अध्याय में वर्ग है, किन्तु इनकी संख्या समान नहीं है। कुल वर्ग २०२४ है, सूक्त २०२८ बालखिल्य सहित है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
(२.)
मण्डलक्रमः----यह विभाजन अधिक सुसंगत और उपयुक्त हैं। इसके अनुसार ऋग्वेद में कुल १० मण्डल हैं। इसमें बालखिल्य के ११ सूक्तों के ८० मन्त्रों को सम्मिलित करते हुए ८५ अनुवाक, १०२८ सूक्त और १०,५५२ मन्त्र हैं। जब कभी ऋग्वेद का पता देना हो तब अनुवाक की संख्या छोड देते हैं। सन्दर्भ में मण्डल, सूक्त और मन्त्र-संख्या ही देता हैं, जैसेः---ऋग्वेदः--१०/७१/११ इसमें अनुवाक सम्मिलित नहीं है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
ऋग्वेद के प्रत्येक मण्डल में सूक्तों की संख्याः--
प्रथम-मण्डलः---१९१,
द्वितीय---४३
तृतीयः--६२
चतुर्थः---५८
पञ्चमः---८७
षष्ठः---७५
सप्तमः--१०४
अष्टमः---१०३
नवमः---११४
दशमः---१९१
ऋग्वेद में १० मण्डल, ८५ अनुवाक, १०२८ सूक्त हैं ।
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प्रथम-मण्डलः--२४,
द्वितीयः---०४,
तृतीयः---०५
चतुर्थः---०५
पञ्चमः---०६
षष्ठ---०६
सप्तमः--०६
अष्टमः--१०
नवमः--०७
दशमः---१२
इस प्रकार ऋग्वेद में कुल अनुवाक ८५ हैं।
ऋग्वेद के प्रत्येक मण्डल में सूक्तों की संख्याः--
प्रथम-मण्डलः---१९१
द्वितीय---४३
तृतीयः--६२
चतुर्थः---५८
पञ्चमः---८७
षष्ठः---७५
सप्तमः--१०४
अष्टमः---१०३
नवमः---११४
दशमः---१९१
इस प्रकार ऋग्वेद में कुल सूक्त १०२८ हैं।
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श्रद्धासूक्त, पुरुष-सूक्त, यम-यमी-सूक्त, उर्वशी-पुरुरवा-सूक्त, नासदीय-सूक्त, वाक्-सूक्त, हिरण्यगर्भ-सूक्त, दान-सूक्त, सरमा-पणि-सूक्त, औषधि-सूक्त, विश्वामित्र-नदी-सूक्त आदि-आदि।
ऋग्वेद में कुल मन्त्रों की संख्या १०,५८०, कुल शब्द १५३८२६ और कुल अक्षर ४३,२००० हैं।
पतञ्जलि मुनि ने ऋग्वेद की २१ शाखाओं का उल्लेख किया है। इनमें से पाँच शाखाओं के नाम उपलब्ध हैः--शाकल, बाष्कल, शांखायन, माण्डूकायन औऱ आश्वलायन।
इन पाँच शाखाओं में से केवल एक शाखा उपलब्ध हैः--शाकल-शाखा। बाष्कल-शाखा में १०,६२२ मन्त्र हैं ।
ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं---
ऐतरेय और कौषीतकि (शांखायन) ।
ऋग्वेद के आरण्यक को ऐतरेय कहते हैं, इसमें पाँच आरण्यक और अठारह अध्याय हैं।
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ऋग्वेद के ऋषि और मण्डल निम्न हैः---
मण्डल-------सूक्तसंख्याः------मन्त्र-संख्याः----ऋषिनाम
(१.)प्रथम-----१९१--------------२००६--------मधुच्छन्दाः, मेधातिथिः, दीर्घतमा,अगस्त्य, गौतम, पराशर,
(२.) द्वितीय—--४३----------------४२९---------गृत्समद और उनके वंशज
(३.) तृतीय----६२-----------------६१७--------विश्वामित्र और उनके वंशज
(४.) चतुर्थ-----५८------------------५८९------वामदेव और उनके वंशज
(५.) पञ्चम----८७------------------७२७------अत्रि और उनके वंशज
(६.) षष्ठ-------७५ ----------------७६५------भरद्वाज और उनके वंशज
(७.) सप्तम----१०४-----------------८४१------वशिष्ठ और उनके वंशज
(८.) अष्टम-----१०३----------------१७१६----कण्व, भृगु, अंगिरस् और उनके वंशज
(९.) नवम-------११४----------------११०८-----अनेक ऋषि
(१०.) दशम-----१९१-----------------१७५४----
त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा-कामायनी, इन्द्राणी, शची, उर्वशी मन्त्र-द्रष्टा ऋषिकाएँ ------
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ऋग्वेद में २४ मन्त्र-द्रष्टा ऋषिकाएँ हैं। इनके द्वारा दृष्ट मन्त्रों की संख्या २२४ है।
ऋषिका---------------मन्त्रसंख्या-------------सन्दर्भ
(१.) सूर्य सावित्री-------४७-----------------१०/८५
(२.) घोषा काक्षीवती----२८--------------१०/३९-४०
(३.) सिकता निवावरी---२०-----------------९/८६
(४.) इन्द्राणी-------------१७---------------१०/८६,१४५
(५.) यमी वैवस्वती------११------------१०/१०,१५४
(६.) दक्षिणा प्राजापत्या—११----------------१०/१०७
(७.) अदिति----------------१०---------------4४/१८, १०/७२
(८.) वाक् आम्भृणी-------८------------------१०/१२५
(९.) अपाला आत्रेयी-------७-------------------८/९१
(१०.) जुहू ब्रह्मजाया-----७-------------------१०/१०९
(११.) अग्स्त्यस्वसा-------६--------------------१०/६०
(१२.) विश्ववारा आत्रेयी---६---------------------5.28
(१३.) उर्वशी-----------------६--------------------10.95
(१४.) सरमा देवशुनी--------६--------------------१०/१०८
(१५.) शिखण्डिन्यौ अप्सरसौ—६-----------------९/१०४
(१६.) श्रद्धा कामायनी----------५-----------------१०/१५१
(१७.) देवजामयः-----------------5----------------१०/१५३
(१८.) पौलोमी शची--------------६---------------१०/१५९
(१९.) नदी------------------------४------------------३/३३
(२०.) सार्पराज्ञी--------------------३---------------१०/१८९
(२१.) गोधा-----------------------१-----------------१०/१३४
(२२.) शश्वती आंगिरसी-----------१-----------------८/१
(२३.) वसुक्रपत्नी------------------१---------------१०/२८
(२४.) रोमशा ब्रह्मवादिनी---------१.------------१/१२६
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ऋग्वेद में कुल २० छन्दों का प्रयोग हुआ है। इनमें से ७ छन्दों का मुख्य रूप से प्रयोग हुआ है। ये हैं----
(१.) गायत्री (२४ अक्षर),
(२.) उष्णिक् (२८अक्षर),
(३.) अनुष्टुप् (३२ अक्षर),
(४.) बृहती (३६ अक्षर),
(५.) पंक्ति (४० अक्षऱ),
(६.) त्रिष्टुप् (४४ अक्षर),
(७.) जगती (४८ अक्षर),
इनमें से त्रिष्टुप्, गायत्री, जगती और अनुष्टुप् छन्दों का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है।
इनका विवरणः----
छन्दनाम----------मन्त्र-संख्या-------------अक्षर-संख्या
(१.) त्रिष्टुप्---------४२५८-------------------१,८७,३१२
(२.) गायत्री--------२४५६-------------------५८,९३८
(३.) जगती---------१३५३-------------------६४,९४४
(४.) अनुष्टुप्---------८६०--------------------२७,५२०
(५.) पंक्ति-------------४९८
(६.) उष्णिक्-----------३९८
(७.) बृहती---------------३७१
इस प्रकार ऋग्वेद के लगभग ८०% प्रतिशत मन्त्र इन्हीं छन्दों में है। अन्य छन्दों का विवरण इस प्रकार हैः----
छन्दनाम--------------अक्षर------------------मन्त्र
(८.) अतिजगती-------५२--------------------१७
(९.) शक्वरी-----------५६--------------------१९
(१०.) अतिशक्वरी-----६०-------------------१०
(११.) अष्टि-------------६४--------------------०७
(१२.) अत्यष्टि-----------६८-------------------८२
(१३.) धृति---------------७२-------------------०२
(१४.) अतिधृति-----------७६------------------०१
(१५.) द्विपदा गायत्री-------१६-----------------०३
(१६.) द्विपदा विराट्--------२०---------------१३९
(१७.) द्विपदा त्रिष्टुप्---------२२-----------------१४
(१८.) द्विपदा जगती---------२४-------------------०१
(१९.) एकपदा विराट्---------१०------------------०५
(२०.) एकपदा त्रिष्टुप्---------११-----------------०१
वेदों को स्वरूप के आधार पर तीन भागों में बाँटा गया हैः—पद्य, गद्य और गीति। मीमांसाकार जैमिनि के इसका उल्लेख किया है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
(१.) जिन मन्त्रों में अर्थ के आधार पर पाद (चरण) की व्यवस्था है और पद्यात्मक है, उन्हें ऋक् या ऋचा कहते हैं। ऐसे संकलन को ऋग्वेद कहते हैं----”तेषाम् ऋक् यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था।” (जैमिनीय सूत्र—२/१/३५)
(२.) जिन ऋचाओं का गान होता है और जो गीति रूप है, उन्हें साम कहते हैं। ऐसे मन्त्रों का संकलन सामवेद में किया गया हैः----”गीतिषु सामाख्या।” (पूर्वमीमांसा---२/१/३६)
(३.) जो मन्त्र पद्य और गान से रहित है अर्थात् गद्य रूप हैं, उन्हें यजुष् कहते हैं। ऐसे मन्त्रों का संकलन यजुर्वेद में हैं----”
शेषे यजुः शब्दः।” (
पूर्वमीमांसा—२/१/३७)
(४.) अथर्ववेद में पद्य और गद्य दोनों का संकलन हैं, अतः वह इन्हीं तीन भेद के अन्तर्गत आ जाता है। इस भेदत्रय के कारण वेदों को ”वेदत्रयी” कहते हैं। वेदत्रयी का भाव है-- वेदों की त्रिविध रचना। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
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”खिल” से अभिप्राय है—परिशिष्ट या प्रक्षिप्त। जो अंश या मन्त्र मूल ग्रन्थ में न हो और आवश्यकतानुसार अन्यत्र से संग्रह किया गया हो, उसे खिल कहते हैं। इस समय सम्पूर्ण विश्व ऋग्वेद की बाष्कल शाखा प्रसिद्ध है। शाकल शाखा में कुछ अधिक मंन्त्र थे। जो इस समय उपलब्ध नहीं है, किन्तु उनके कुछ मन्त्र बाष्कल में परिशिष्ट के रूप में गृहीत हैं। मैक्समूलर के संस्करण में ३२ तथा ऑफ्रेख्त के संस्करण में २५ खिल सूक्त हैं। सातवलेकर की ऋक्संहिता में ३६ खिल सूक्त हैं। प्रो. रॉठ की प्रेरणा से डॉ. शेफ्टेलोवित्स ने एक खिल-सूक्त-संग्रह १९०६ में ब्रेस्लाड (जर्मनी) से प्रकाशित करवाया। तदनन्तर पूना से सायण ऋग्वेद-भाष्य के प्रकाशित किया गया। चिन्तामणि गणेश काशीकर ने खिल सूक्तों पर विस्तृत विवेचन किया है। ५ अध्यायों में ८६ खिल सूक्तों का पाठभेद आदि के साथ इसका विवरण यहाँ प्रस्तुत हैः---
अध्याय----सूक्त------मन्त्रसंख्या----------विशिष्ट सूक्त
(१.) ------१२----------८६-------------------सौपर्ण सूक्त (११ सूक्त. ८४ मन्त्र)
(२.) -------१६----------६६+७० (अन्य)------श्रीसूक्त (१९+२१=४० मन्त्र)
(३.) -------२२---------१३७+२५ (अन्य)------बालखिल्य (८ सूक्त, ६६ मन्त्र)
(४.) -------१४----------१०५+६० (अन्य)------शिवसंकल्प (२८ मन्त्र),
(५.) --------२२----------३७०+९ (अऩ्य)-------निविद् १९३, प्रैष ६४, कुन्ताप ८० मन्त्र) इस प्रकार कुल सूक्त ८६ और कुल मन्त्र ९२९ हैं।
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यजुष् का अर्थ हैः---(१.) “यजुर्यजतेः” (निरुक्त—७/१२) अथार्त् यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्रों को यजुष् कहते हैं।
(२.) ”इज्यतेऽनेनेति यजुः।” अर्थात् जिन मन्त्रों से यज्ञ किया जाता है, उन्हें यजुष् कहते हैं। यजुर्वेद का कर्मकाण्ड से साक्षात् सम्बन्ध है। इसका ऋत्विक् अध्वर्यु होता है, अतः इसे ”अध्वर्युवेद” भी कहा जाता है। यह अध्वर्यु ही यज्ञ के स्वरूप का निष्पादक होता हैः---”अध्वर्युनामक एक ऋत्विग् यज्ञस्य स्वरूपं निष्पादयति। अध्वरं युनक्ति, अध्वरस्य नेता।” (सायणाचार्य-ऋग्भाष्यभूमिका)
(३.) ”अनियताक्षरावसानो यजुः” अर्थात् जिन मन्त्रों में पद्यों के तुल्य अक्षर-संख्या निर्धारित नहीं होती, वे यजुः हैं।
(४.) ”
शेषे यजुःशब्दः” (
पूर्वमीमांसा—२/१/३७) अर्थात् पद्यबन्ध और गीति से रहित मन्त्रात्मक रचना को
यजुष् कहते हैं। इसका अभिप्राय यह भी है कि सभी गद्यात्मक मन्त्र-रचना यजुः की कोटि में आती है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
(५.) ”एकप्रयोजनं साकांक्षं पदजातमेकं यजुः” अर्थात् एक उद्देश्य से कहे हुए साकांक्ष एक पद-समूह को यजुः कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि एक सार्थक वाक्य यजुः की एक इकाई माना जाता है। तैत्तिरीय-संहिता के भाष्य की भूमिका में सायण ने यजुर्वेद का महत्त्व बताते हुए कहा है कि यजुर्वेद-भित्ति (दीवार) है और अन्य वेद (ऋक् और साम) चित्र है। इसलिए यजुर्वेद सबसे मुख्य है। यज्ञ को आधार बनाकर ही ऋचाओं का पाठ और सामगान होता हैः----”भित्तिस्थानीयो यजुर्वेदः, चित्रस्थानावितरौ। तस्मात्कर्मसु यजुर्वेदस्यैव प्राधान्यम्।” (सायण)
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ब्राह्मण-ग्रन्थों में यजुर्वेद का दार्शनिक रूप प्रस्तुत किया गया है।
(१.) यजुर्वेद विष्णु का रूप है, अर्थात् इसमें विष्णु (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन हैः---”
यजूंषि विष्णुः” (
शतपथ—४/६/७/३)
(२.) यजुर्वेद प्राणतत्त्व और मनस्तत्त्व का वर्णन करता है। अतः वह प्राण है, मन हैः---”प्राणो वै यजुः” (शतपथ—१४/८/१४/२) । ”मनो यजुः” (शतपथ---१४/४/३/१२)
(३.) यजुर्वेद में वायु व अन्तरिक्ष का वर्णन है। अतः वह अन्तरिक्ष का प्रतिनिधि हैः--”अन्तरिक्षलोको यजुर्वेदः” (षड्विंश-ब्राह्मण—१/५)
(४.) यजुर्वेद तेजस्विता का उपदेश देता है। अतः वह महः (तेज) हैः--”यजुर्वेद एव महः” (गोपथ-ब्राह्मण, पूर्व---५/१५)
(५.) यजुर्वेद क्षात्र-धर्म और कर्मठता की शिक्षा देता है। अतः वह क्षत्रियों का वेद हैः--”यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम्।” (तैत्तिरीय-ब्राह्मण---३/१२/९/२)
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यजुर्वेद मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त है---
(१.) शुक्लयजुर्वेद (२.) कृष्णयजुर्वेद। यजुर्वेद के दो सम्प्रदाय प्रचलित हैं---(१.) आदित्य-सम्प्रदाय (२.) ब्रह्म-सम्प्रदाय। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
शुक्लयजुर्वेद आदित्य-सम्प्रदाय से सम्बद्ध है और कृष्णयजुर्वेद ब्रह्म-सम्प्रदाय से। शतपथ-ब्राह्मण में इसका उल्लेख हुआ है कि शुक्लयजुर्वेद आदित्य-सम्प्रदाय से सम्बन्धित है और इसके आख्याता याज्ञवल्क्य हैं----”
आदित्यानीमानि शुक्लानि यजूंषि। वाजसनेयेन याज्ञवल्क्येन आख्यायन्ते।” (
शतपथ—१४/९/४/३३) लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
शुक्लयजुर्वेद को ही वाजसनेयि-संहिता और माध्यन्दिन-संहिता भी कहते हैं। याज्ञवल्क्य इसके ऋषि हैं। वे मिथिला के निवासी थे। इनके पिता वाजसनि थे, इसलिए याज्ञवल्क्य वाजसनेय कहलाते थे। वाजसनेय से सम्बद्ध संहिता ”वाजसनेयि-संहिता” कहलाई। याज्ञवल्क्य ने मध्याह्न के सूर्य के समय अपने आचार्य वैशम्पायन से इस वेद का ज्ञान प्राप्त किया था, इसलिए इस ”माध्यन्दिन-संहिता” भी कहते हैं। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
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शुक्ल और कृष्ण भेदों का आधार यह है कि शुक्ल यजुर्वेद में यज्ञों से सम्बद्ध विशुद्ध मन्त्रात्मक भाग ही है। इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग नहीं है। ये मन्त्र इसी रूप में यज्ञों में पढे जाते हैं। विशुद्ध और परिष्कृत होने के कारण इसे शुक्ल (स्वच्छ, श्वेत, अमिश्रित) यजुर्वेद कहा जाता है। इस शुक्लयजुर्वेद की एक अन्य शाखा काण्व-शाखा है।
कृष्णयजुर्वेद का सम्बन्ध ब्रह्म-सम्प्रदाय से है। इसमें मन्त्रों के साथ व्याख्या और विनियोग वाला अंश भी मिश्रित है। अतः इसे कृष्ण (अस्वच्छ, कृष्ण, मिश्रित) यजुर्वेद कहते हैं।
इसी आधार पर शुक्लयजुर्वेद के पारायणकर्ता ब्राह्मणों को ”शुक्ल” और कृष्णयजुर्वेद के पारायणकर्ता ब्राह्मणों को ”मिश्र” नाम दिया गया है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
गुरु वैशम्पायन ने अपने शिष्यों को दोनों प्रकार के यजुर्वेद का अध्ययन कराया था। इन्हीं का एक शिष्य तित्तिरि थे, जिन्होंने कृष्णयजुर्वेद का अध्ययन किया था, किन्तु इन्होंने अपनी एक पृथक् शाखा बना ली। उनके नाम से ही तैत्तिरीय-शाखा कहलाई ।
मैत्रेय ने कृष्णयजुर्वेद की अपनी एक पृथक् शाखा चलाई, जिसका नाम मैत्रायणी पडा। इसी प्रकार कठ और कपिष्ठल भी कृष्णयजुर्वेद की पृथक्-२ शाखाएँ हैं।
(१.) महर्षि पतञ्जलि ने महाभाष्य के पस्पशाह्निक में यजुर्वेद की १०१ शाखा का उल्लेख किया हैः--“एकशतमध्वर्युशाखाः”। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
(२.) षड्गुरुशिष्य ने सर्वानुक्रमणी की वृत्ति में १०० शाखाओं का उल्लेख किया है---”यजुरेकशताध्वकम्।” (सर्वानुक्रमणी)।
(३.) कूर्मपुराण में भी १०० शाखाओं का उल्लेख प्राप्त होता है---”शाखानां तु शतेनाथ यजुर्वेदमथाकरोत्।” (कूर्मपुराण—४९/५१)
(४.) इसके विपरीत ”चरणव्यूह” में यजुर्वेद की केवल ८६ शाखाओं का ही उल्लेख प्राप्त होता है। उसके अनुसार
(क) चरकशाखा की १२,
(ख) मैत्रायणी की ७,
(ग) वाजसनेय की १७,
(घ) तैत्तिरीय की ६, और
(ङ) कठ की ४४ शाखाएँ हैं---”यजुर्वेदस्य षढशीतिर्भेदाः, चरका द्वादश, मैत्रायणीयाः सप्त, वाजसनेयाः सप्तदश, तैत्तिरीयकाः षट्, कठानां चतुश्चत्वारिंशत्.” (चरणव्यूह—२)
इस निर्देश से ऐसा प्रतीत होता है कि यजुर्वेद की शाखाएँ क्रमशः लुप्त होती जा रही थीं और चरणव्यूह के समय में केवल ४२ शाखाएँ ही उपलब्ध थीं । कठ-शाखा के ४४ ग्रन्थों एवं उनके लेखकों के नाम भी लुप्त हो चुके थे। सम्प्रति केवल ६ शाखाएँ ही यजुर्वेद की उपलब्ध हैं। दो शुक्ल की और ४ कृष्ण यजुर्वेद की। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
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इसकी दो शाखाएँ उपलब्ध हैं---(१.) वाजसनेयि और (२.) काण्व।
(१.) माध्यन्दिन या वाजसनेयि-संहिताः----इस संहिता में ४० अध्याय और १९७५ मन्त्र हैं। इसका ब्राह्मण शतपथ-ब्राह्मण है। इसके अनुसार वाजसनेयि-संहिता में कुल अक्षर २,८८,००० (दो लाख, अठासी हजार) हैं। इस शाखा का प्रचार-प्रसार उत्तर भारत में है। इसका उपनिषद् ईशोपनिषद्, बृहदारण्यकोपनिषद् है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
(२.) काण्व-संहिताः---इसमें ४० अध्याय, ३२८ अनुवाक और मन्त्र २०८६ हैं। इसमें माध्यन्दिन की अपेक्षा १११ मन्त्र अधिक हैं। इसके प्रवर्तक ऋषि कण्व हैं। इनके पिता बोधायन और गुरु याज्ञवल्क्य थेः---”बोधायन-पितृत्वाच्च प्रशिष्यत्वाद् बृहस्पतेः। शिष्यत्वाद् याज्ञवल्क्यस्य कण्वोsभून्महतो महान्।।” इस शाखा का प्रचार महाराष्ट्र प्रान्त में अधिक है। प्राचीन काल में इसका प्रचार उत्तर भारत में भी था। महाभारत आदि-पर्व (६३/१८) के अनुसार शकुन्तला के धर्मपिता महर्षि कण्व का आश्रम मालिनी नदी (सम्प्रति बिजनौर जिले में कोटद्वार के पास) था। इस प्रकार देखा जाए तो कण्व का सम्बन्ध उत्तर भारत से रहा है।
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चरणव्यूह के अनुसार यजुर्वेद की ८६ शाखाओं में से शुक्लयजुर्वेद की १७ और कृष्णयजुर्वेद की ६९ शाखाएँ हैं। कृष्णयजुर्वेद की चार शाखाएँ सम्प्रति उपलब्ध हैं---(१.) तैत्तिरीय, (२.) मैत्रायणी, (३.) काठक (या कठ), (४.) कपिष्ठल
तैत्तिरीय-शाखा के दो मुख्य भेद हैं---औख्य और खाण्डिकेय। खाण्डिकेय के ५ भेद हैः—आपस्तम्ब, बौधायन, सत्याषाढ, हिरण्यकेशि और लाट्यायन।
मैत्रायणी के भी ७ भेद हैं और चरक (या कठ) के १२ भेद हैं। कठ के ४४ उपग्रन्थ भी हैं। इसके उपनिषद् कठोपनिषद् और श्वेताश्वतर है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
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यह कृष्णयजुर्वेद की प्रमुख शाखा है। इसमें ७ काण्ड, ४४ प्रपाठक और ६३१ अनुवाक हैं। अनुवाकों के भी उपभेद (खण्ड) किए गए हैं। इसलिए जब पता दिया जाता है तो उसमें चार अंक होते हैं। जैसेः---देवा वसव्या अग्ने सोम सूर्य। (तै.सं. कां. २/ प्र.४/अनु.८/खण्ड.१)
यही एक संहिता है, जिसके सम्पूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इसका ब्राह्मण (तैत्तिरीय-ब्राह्मण) आरण्यक (तैत्तिरीय-आरण्यक), उपनिषद् (तैत्तिरीय-उपनिषद्), श्रौतसूत्र (बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशि या सत्याषाढ, वैखानस, भारद्वाज), गृह्यसूत्र (बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशि,वैखानस, भारद्वाज, अग्निवेश्य), शुल्बसूत्र बौधायन और आपस्तम्ब) और धर्मसूत्र (बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशि) प्राप्त हैं। इसीलिए यह सर्वांगपूर्ण संहिता है। तैत्तिरीय-संहिता का विशेष प्रचार दक्षिण भारत में हैं। आचार्य सायण की यही शाखा थी। इसलिए उन्होंने इसी शाखा का सर्वप्रथम भाष्य लिखा।
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चरणव्यूह के अनुसार मैत्रायणी-संहिता की सात शाखाएँ हैं---(१.) मानव, (२.) दुन्दुभ, (३.) ऐकेय, (४.) वाराह, (५.) हारिद्रवेय, (६.) श्याम, (७.) श्यामायनीय। मैत्रायणी-संहिता के प्रवर्तक आचार्य मैत्रायण या मैत्रेय थेः----”मैत्रायणी ततः शाखा मैत्रेयास्तु ततः स्मृतः।” (हरिवंशपुराण—अ. ३४)
इस शाखा में मन्त्र और व्याख्या भाग (ब्राह्मण या गद्यभाग) मिश्रित है। इसमें ४ काण्ड, ५४ प्रपाठक और ३१४४ मन्त्र हैं। इनमें से १७०१ ऋचाएँ ऋग्वेद से उद्धृत हैं। इस संहिता में विभिन्न यागों का विस्तृत वर्णन है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
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इसे कठ-संहिता भी कहते हैं। यह चरकों की शाखा मानी जाती है। इसमें ५ खण्ड हैं---(१.) इठिमिका, (२.) मध्यमिका, (३.) ओरामिका, (४.) याज्यानुवाक्या, (५.) अश्वमेधादि अनुवचन। इसके उपखण्डों को स्थानक और अनुवचन कहा जाता है। जैनियों ने स्थानक शब्द को अपना लिया। कुल ५ खण्डों में ४० स्थानक और १३ वचन हैं, दोनों को मिलाकर ५३ उपखण्ड हैं। कुल अनुवाक ८४३ और कुल मन्त्र ३०२८ हैं। मन्त्र और ब्राह्मणों की सम्मिलित संख्या १८ हजार है। इसमें १९ प्रमुख यागों का वर्णन है। कभी इस शाखा का ग्राम-ग्राम में प्रचार था। मुनि पतञ्जलि लिखते हैं कि बालक-बालक इस शाखा को जानते थेः---”ग्रामे ग्रामे काठकं कालापकं च प्रोच्यते।” (महाभाष्य—४/३/१०१) आज कल यह शाखा प्रायः लुप्त हो गई है, अर्थात् इसका अधिक प्रचार नहीं है। लेखक --- योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
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प्राचीन काल में कठों की कई शाखाएँ प्रचलित थीं---कठ, प्राच्य कठ और कपिष्ठल कठ। इस शाखा के प्रवर्तक आचार्य थे---कपिष्ठल ऋषि। ये वसिष्ठ गोत्र के थे। इनका निवास स्थान कुरुक्षेत्र के पास कपिष्ठल (कैथल) नामक स्थान है। यह ग्रन्थ अपूर्ण है। यह ग्रन्थ अष्टकों और अध्यायों में विभक्त है। इसके ६ अष्टक उपलब्ध हैं। कुल ४८ अध्याय हैं।
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