!!!---: ब्रह्ममय जीवन :---!!!
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जो उस परमब्रह्मा को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है :----
"स यो हि वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति ।"
(मुण्डकोपनिषद् ३/२/९)
इसका अर्थ यह नहीं है कि ईश्वर के गुणों को जानने से व्यक्ति परमात्मा बन जाता है । जीवात्मा परमात्मा के स्वरूप को जानने से उसके गुणों को धारण कर लेता है ।जैसे लोहे के गोले को हम अग्नि में डाल दें तो वह अग्नि रूप हो जाता है । यही स्थिति जीवात्मा की होती है :---
"अकामो धीरो अमृतः स्वयंभू रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः ।
तमेव विद्वान् न विभाय मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम् ।।" (अथर्ववेद १०/८/४४)
वह परमात्मा कामनाओं से रहित है । जैसे सांसारिक व्यक्तियों की कामनाएं होती है, वैसी उसकी कोई कामना नहीं है । वह धीर है, धैर्यवान् है, अमर है, आनंद अथवा शक्ति से तृप्त है, उसमें कहीं से भी कोई कमी नहीं है । उस धीर अजर, युवा (महाबली) परमात्मा को जानता हुआ मनुष्य मृत्यु से नहीं डरता है ।
अतः वेद भगवान के अनुसार मृत्यु से बचने का एक उपाय यह है कि हम परमात्मा के स्वरूप को समझे । उसे हृदयंगम करने का प्रयत्न करें । प्रश्न यह है कि परमात्मा का स्वरूप क्या है ? महर्षि दयानंद सरस्वती महाराज ने परमात्मा के स्वरूप का वर्णन आर्य समाज के दूसरे नियम ने किया है । वह नियम इस प्रकार है :---"ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है ।उसी की उपासना करनी योग्य है। ।
लेखक :--- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री
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