वैदिक काल में आकाश मार्ग से आवागमन
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वैदिक काल में अनेक प्रकार के आविष्कार हो चुके थे । इसके प्रमाण अनेक वैदिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं । पश्चिम के लोगों ने कॉपी राइट का उल्लंघन किया और हमारी विद्याओं की चोरी की ।
वैदिक लोग सांसारिकता से दूर रहते थे, इसलिए उन्होंने भौतिक उन्नति को अधिक प्रश्रय नहीं दिया , किन्तु वे सब कुछ जानते थे ।
ऋग्वेद में वरुण की स्तुति में कहा गया है कि वह आकाश में उडने वाले पक्षियों का मार्ग जानता है---
"वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम् ।" (ऋग्वेदः---१.२५.७)
आकाश में चलने वाले वायुयानों के लिए ऋग्वेद में नौ (नौका) और रथ शब्दों का प्रयोग हुआ है । इन्हें "अन्तरिक्षप्रुद्" (अन्तरिक्ष में चलने वाला) और "अपोदक" (जल-स्पर्श-रहित) कहा गया है । मन्त्र में इन्हें "आत्मन्वती" कहा गया है, इससे सूचित होता है कि इसमें कोई मशीन रखी जाती थी, जिससे ये सजीव तुल्य होते थे---
"नौभिरात्मन्वतीभिः अन्तरिक्षप्रुद्भिः अपोदकाभिः ।" (ऋग्वेदः--१.११६.३)
"वीडुपत्मभिः" और "आशुहेमभिः" शब्द इनकी तीव्र उडान को सूचित करते हैं---
"वीडुपत्मभिः आशुहेमभिः ।" (ऋग्वेदः--१.११६.२)
इन्य मन्त्र में अश्विनीकुमार के रथ को "श्येनपत्वा" बाज की तरह उडने वाला और मन से भी तीव्र गति वाला बताया गया है---
"रथो अश्विना श्येनपत्वा मनसो जवीयान् ।" (ऋग्वेदः---१.११८.१)
इसमें तीन सीट, तीन हिस्से और तीन पहिए होते थे---
"त्रिबन्धुरेण त्रिवृता रथेन त्रिचक्रेण ।" (ऋग्वेदः---१.११८.२)
यह श्येन (बाज) और गृध्र (गिद्ध) की तरह उडता था---
"श्येनासो वहन्तु । दिव्यासो न गृध्राः ।" (ऋग्वेदः---१.११८.४)
इससे ज्ञात होता है कि प्राचीन ऋषि आकाशीय मार्ग और आकाशीय यात्रा से परिचित थे । इनका व्यापार के लिए प्रयोग होता था ।
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